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ज्ञान मीमांसा वचनात्मक होता है। शब्द का श्रवण मतिज्ञान है, क्योंकि वह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुन लिया जाता है, तभी उसके अर्थ का चिन्तन किया जाता है। शब्दश्रवण रूप जो ज्ञान है, वह मतिज्ञान है, उसके बाद उत्पन्न होने वाला विकसित ज्ञान श्रुतज्ञान होता है । इसी आधार पर यह कहा जाता है, कि मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान उसका कार्य है। ज्ञान होगा, तभी श्रुतज्ञान होगा।
यहाँ पर एक बात और समझने योग्य है कि श्रुतज्ञान का अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम ही है। मतिज्ञान तो उसका बहिरंग कारण है। इसी कारण कहा जाता है कि श्रुतज्ञान से पूर्व मतिज्ञान होता है अर्थात् मतिज्ञान के होने पर ही श्रुतज्ञान हो सकता है।
यहाँ पर मैं आप लोगों को एक बात और बतला देना चाहता हूँ कि हमारे यहाँ पर अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट की क्या व्याख्या की गई है। अंगप्रविष्ट उसे कहते हैं, जो साक्षात् तीर्थंकर द्वारा भाषित होता है और गणधरों द्वारा जिसे सूत्रबद्ध किया जाता है। परन्तु आगे चलकर बल और बुद्धि की मन्दता के कारण समर्थ आचार्य अथवा श्रुतधर आचार्य अंगप्रविष्ट आगमों का आधार लेकर शिष्यहित के लिए एवं ज्ञान प्रसार के लिए जो ग्रन्थ-रचना करते हैं, उन्हें अंगबाह्य ग्रन्थ कहते हैं।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक बातें ऐसी हैं, जिनका जानना अनिवार्य है। मैं आपको संक्षेप में उन बातों को यहाँ बतलाने का प्रयत्न करूँगा। एक बात तो यह है, कि प्रत्येक संसारी जीव में कम से कम दो ज्ञान तो अवश्य होते ही हैं - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ।
प्रश्न यह होता है, कि यह ज्ञान कब तक रहते हैं ? केवलज्ञान होने के पूर्व तक ये रहते हैं अथवा केवलज्ञान होने के बाद भी यह रहते हैं ? इस विषय में अनेक प्रकार के मतभेद हैं, जिनके विस्तार की यहाँ आवश्यकता नहीं है। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि केवलज्ञान की उपलिब्ध के बाद भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की सत्ता रहती है। जिस प्रकार दिवाकर के प्रचण्ड प्रकाश के समक्ष ग्रह और नक्षत्रों का प्रकाश नष्ट नहीं होता, बल्कि तिरोहित हो जाता है, उसी प्रकार केवलज्ञान के महाप्रकाश के समक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अल्प प्रकाश नष्ट नहीं होता है, बल्कि तिरोहित हो जाता है।
तब
दूसरे आचार्यों का अभिमत यह है, कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं और केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। जब समग्र ज्ञानावरण का क्षय हो जाता है, क्षायिकज्ञान प्रकट होता है, जिसे केवलज्ञान कहते हैं, उस समय क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकते। अतः केवलज्ञान हो जाने पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की सत्ता नहीं रहती, वे मिट जाते हैं, उस समय अकेला केवलज्ञान ही रहता है। यह पक्ष प्रथम पक्ष की अपेक्षा अधिक तर्कसंगत है।
पाँच ज्ञानों में तीसरा ज्ञान है-अवधिज्ञान । अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है। अवधिज्ञान रूपी पदार्थों का होता है । अवधिज्ञान क्या है ? इसके सम्बन्ध में
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