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अध्यात्म-प्रवचन
दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवलदर्शन और केवलज्ञान युगपद् होते हैं। इस विषय में दिगम्बर परम्परा के सभी आचार्य एकमत हैं। युगपद्वादी का कथन है, कि जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश और आतप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं।
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इस प्रकार हम देखते हैं, कि केवली के दर्शन और ज्ञान को लेकर श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा में मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा क्रमवादी है और दिगम्बर परम्परा युगपवादी है । परन्तु यह मतभेद केवली के दर्शन और ज्ञान को लेकर ही है, छद्मस्थ के दर्शन और ज्ञान के प्रश्न पर श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा में न किसी प्रकार का विवाद है और न किसी प्रकार का मतभेद ही है। दोनों परम्पराएँ छद्मस्थ व्यक्ति में दर्शन और ज्ञान को क्रमशः ही स्वीकार करती हैं, इस दृष्टि से इस विषय में दोनों परम्पराएँ क्रमवादी हैं ।
अब प्रश्न रहता है तीसरी परम्परा का, जिसके आविष्कारक चतुर्थ शताब्दी के महान् दार्शनिक, प्रखर तार्किक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर हैं। आचार्य सिद्धसेन का कथन है, कि मतिज्ञान से लेकर मनःपर्यायज्ञान तक दर्शन और ज्ञान में भेद सिद्ध किया जा सकता है, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद सिद्ध करना कथमपि सम्भव नहीं है। दर्शनावरण और ज्ञानावरण का जब हम युगपद् क्षय मानते हैं, तब उस क्षय से होने वाले उपयोग में “यह पहले होता है और यह बाद में होता है अथवा युगपद् होते हैं, ' इस प्रकार का कथन करना, न न्यायसंगत है और न तर्कसंगत है। पूर्ण उपयोग में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रहता है। अतः केवली के दर्शन में तथा ज्ञान में किसी भी क्रम को और युगपद् को स्वीकार नहीं किया जा सकता । वस्तुतः केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों अलग-अलग हैं ही नहीं, दोनों एक ही हैं।
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इस प्रकार जैसा कि मैंने आपको कहा था। दर्शन और ज्ञान को लेकर जैनाचार्यों में कुछ मतभेद है, पर इस मतभेद से मूल वस्तुस्थिति पर किसी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है । वस्तुस्थिति को भेदगामी दृष्टि से देखने पर भेद की प्रतीति होती है और अभेदगामी दृष्टि से देखने पर अभेद की प्रतीति होती है । अनेकान्त दृष्टि में भेद और अभेद दोनों का सुन्दर समन्वय किया गया है।
जैन दर्शन में ज्ञानवाद की चर्चा बहुत पुरानी और बहुविध है । अङ्ग, उपाङ्ग और मूल सूत्रों में, यत्र-तत्र जो ज्ञानवाद की चर्चा उपलब्ध होती है, वह अनेक पद्धतियों से प्रतिपादित है। स्थानांग सूत्र में, राजप्रश्नीय सूत्र में और उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञान के सीधे पाँच भेद किए गए हैं। भगवती सूत्र में और अनुयोगद्वार सूत्र में ज्ञान का चार प्रमाण के रूप में तर्क पद्धति पर वर्णन भी उपलब्ध है। नन्दी सूत्र में पाँच ज्ञान का वर्णन आगम और तर्कशैली से भिन्न दर्शन शैली पर किया गया है। इस प्रकार आगम साहित्य में ज्ञानवाद की चर्चा बहुविध और अनेकविध पद्धति पर आधारित है। ज्ञानवाद के वर्णन की उक्त
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