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अपरिग्रह आवश्यक क्यों ? : २७. का निरोध अपरिग्रह की मर्यादा से हो सकता है. अतः अपरिग्रह आवश्यक है। - अच्छा तुम संसार में जरा यह पता लगाओ, कि सब लोग क्या चाहते हैं ? तुम ध्यान लगाकर संसारी जीवों की गतिविधि का निरीक्षण-परीक्षण करोगी, तो तुम्हें पता लगेगा, कि संसार में सब लोग सुख चाहते हैं । क्या कोई जीव दु:ख चाहता है ? नहीं, कभी नहीं। लाभ और लोभ में दौड़ :
जिस मनुष्य की जितनी ही इच्छा बढ़ी हुई होगी, वह उतना ही सुख-हीन होगा । धन-सम्पत्ति, मकान, कोठी, कार, घोड़ा, बाग, बगीचा आदि के मिल जाने पर हमें सुख मिल जायगा, जो लोग यह समझ बैठे हैं, वे भूल में हैं ? मनुष्य मर्यादा-हीन होकर जितने भी पैर फैलाता जाएगा, उतनी ही अपने लिए भी और दूपरों के लिए भी अशान्ति बढ़ाता जाएगा । तुमने देखा है, अग्नि में ज्यों-ज्यों घास-फूस और लकड़ी डालते जाते हैं, वह त्यों-त्यों अधिकाधिक बढ़ती जाती है । क्या कभी अधिक-से-अथिक लकड़ी पाकर आग की भूख बुझी है ? मन की भी यही दशा है । उसकी जितनी इच्छाएँ पूरी करो, वह उतनी ही और बढ़ती चली जाएँगी। मन बिना तट की झील है । किनारा हो तो एक दिन उसके भरने का स्वप्न भी पूरा हो जाए। जिसका कि नारा ही नहीं, भला, वह कब भरेगा? भगवान महावीर ने कहा है-“सोने चाँदी के लाखों पहाड़ भी लोभी मनुष्य के मन को संतुष्ट नहीं कर सकते । इच्छा आकाश के समान अनन्त हैं, न वह कभी भरी है और न कभी भर सकेगी।" अतः इस प्रकार ज्यों-ज्यों लाभ होगा त्यों त्यों लोभ बढ़ेगा । लाभ और लोभ की दौड़ में मनुष्य हारता है।
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