________________
हृदय का भन्धकार : निन्दा ६१
हो जाता है । आपस में मर्म खुलते हैं, पीढ़ियों की कीचड़ उछाली जाती है, और इस प्रकार कलह को एक मजबूत शृंखला कायम हो जाती हैं।
निन्दा की माग :
पुत्रियो ! तुम अभी जीवन-क्षेत्र में प्रवेश ही कर रही हो । तुम अभी से इन दुगुणों की बुराई को समझ लो और इनसे बचकर रहो। अपने हृदय को इस छोटे स्तर से ऊंचा उठाने का प्रयत्न करो। जो लडकियां इस प्रकार निन्दा-बुराई के फेर में पड़ जाती हैं, उनके हृदय की उन्नति नहीं हो सकती। वे कभी कोई अच्छी बात सोच ही नहीं सकतीं। अपने प्रेमी से प्रेमी व्यक्ति में भी वे दोष ही हुँदा करती हैं। माता हो, पिता हो, भाई हो, बहन हो, भाभी हो, सहेली हो, कोई भी क्यों न हो, वे सब दोष खोजती हैं और निन्दा करती है। आगे चलकर ससुराल में उनका यह दुर्गुण और बढ़ जाता है । रात-दिन सास, ससर, ननद, देवरानी, जेठानी आदि के दोष देखना और उनकी शिकायत करना ही उनका काम हो जाता है । ऐसी लड़कियों से सारा परिवार तंग आ जाता है । अतः किसी की निंदा मत करो, किसी मे घणा और द्वेष भी मत करो ! निन्दा हृदय को जलाने वाला दुगुण है । यह दोनों ओर आग लगाती है । इस आग में आज भारतीय परिवार जल रहे हैं।
आलोचना का सिद्धान्त :
अगर कभी तुम्हें पता लगे, कि अमुक स्त्री में या अमुक व्यक्ति में कोई दोष है, तो उसकी सहण निन्दा मत करो। यदि तुम अपने को इस योग्य समझो, तो उसके पास जाकर या उसे अपने पास बुलाकर, एकान्त में उसे समझा दो । दोष दूर करने का प्रयत्न हो, न कि किसी को बदनाम करने का । ऐसा करने से तुम्हारा हृदय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org