Book Title: Adarsh Kanya
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर सन्म ति ज्ञा न पी ठ.. आगरा BODeationate For ivatePARonakuse. Onls ww jainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति साहित्य रत्नमाला का १०वा रत्न - - - - - आदर्श कन्या लेखक उपाध्याय अमरमुनि सन्मति ज्ञा न पीठ, आगरा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : आदर्श कन्या लेखक : उपाध्याय अमर मुनि प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी आगरा-2 प्रथम सन् 1950 1100 द्वितीय ,, 1954 1100 तृतीय , 1958 2 100 चतुर्थ ,, 1962 2200 पंचम ,, 1965 2200 षष्टम ,, 1968 5200 सप्तम ,, 1976 3000 अष्टम , 1979 3000 न बम ,, 1982 3000 दसम् ,, 1985 2200 ग्यारह ,, 1988 5200 बारहवाँ,, 1994 5200 मुद्रक : मनोज प्रिटिंग प्रेस अहीर पाड़ा, राजामण्डी, आगरा-2 मूल्य : 7.00 (सात रुपये) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसको? उन पुत्रियों को, जिनमें अभी सुन्दरसंस्कार के बोज पड़े नहीं हैं, पड़ गए हैं, तो अंकुरित नहीं हए हैं, अंकुरित भी हो गए हैं, तो लहलहाए नहीं हैं, लहलहा भो गए हैं, तो फूल नहीं आए हैं, फूल भी आ गए हैं, तो फल नहीं आए हैं, वह भो आ गए हैं, तो उन फलों में रस नहीं पड़ा है। रस भी पड़ गया है, तो मीठा रस नहीं पड़ पाया- उन्हीं स्वतन्त्र भारत को स्वतन्त्र और जागरण-शील पुत्रयों और सुनारियों के हाथों में। 00 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी कलम से भारतीय-सस्कृति के मूल स्वर को ध्वान पूर्वक सुना जाए, तो स्पष्ट सुनाई देगा कि नारी पूज्य है, भगवती है, आराध्य है और अन्नपूर्णा है। मानव-संस्कृति का वह मूल' बोज है। और मानवता का वह मूलबीज है और मानवता का मूलाधार भी। आज की नारो आत्मा की जड़ों में फिर से उसी ध्रव धारणा को अंकुरित और पल्लवित करने के लिए ही आदर्शबन्या नामक प्रस्तुत लघु-निबन्ध पुस्तक तैयार की गई है। यह पुस्तक आज बहुत वर्ष पहले प्रकाशित की गई थी। तब से अब तक इसके बारह संस्करण हो चुके हैं। इस कालावधि ने निबन्धों को कुछ धूमिल-सा कर दिया था। और कुछ-कुछ खरदुगपन भी पैदा कर दिया था। अत: उन्हें इनः सवारा सजाया गया है। प्रस्तुत प्रकाशन को कन्याओं के लिए उपयोगी बनाने का जितना प्रयास किया जा सकता था, किया है। फिर भी प्रकाशन कैसा है, यह पाठकों के निर्णय की चीज है, और सबसे बड़ी चीज है, उन बहनों के पसन्द की, जिनके लिए यह सब कुछ किया है। ओमप्रकाश जैन मन्त्री सम्मति ज्ञान पीठ लोहामण्डी, आगया-2 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम विषय १. विचार-वैभव ! २ सत्य ही भगवान है ! ३. विनय का चमत्कार ! ४. समय की परख ! ५. अस्वच्छता पाप है ! ६. कलह दूषण है ! ७. अपरिग्रह आवश्यक क्यों! ८. आदर्श नारी कौन ! ९. विवेक का दीपक ! १०. वस्तु-व्यय पद्धति ११. आत्म-गौरव का भाव ! १२. व्यवस्था की बुद्धि ! १३. शील स्वभाव! १४. मनुष्य का शत्रु : आलस्य १५. नारी का गौरव लज्जा ! १६. सरलता और सरसता ! १७. प्रेम को विराट शक्ति ! १८. हंसी-दिल्लगी! १६. दरिद्रनारायण की सेवा ! २०. कोयल के मीठे बोल ! Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o २१. बह्मचर्य का तेज ! २२. भय, मन का घुन है ! २३. हृदय अन्धकार : निन्दा ! २४. विलास विनाश है ! २५. नारी का पद : अन्नपूर्णा ! २६. मानवता के ये अमृत कण ! २७. ये हैं तप की परिभाषाएँ ! २८. आदर्श सभ्यता! ur or u. . D Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श कन्या - - आँखों में हो तेज, तेज में सत्य, सत्य में ऋजुता । वाणी में हो ओज, ओज में विनय, विनय में मृदुता। -उपाध्याय अमर मुनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28688009868&2858888885885885BY pas BRUSEREBRER पहले प्रेम किसको ? # क्या करेगा प्यार वह भगवान को ? क्या करेगा प्यार वह ईमान को ? जन्म लेकर गोद में इन्सान की! प्यार कर न पाया जो इन्सान को । KI588885608&&&0005888888858 -नीरज BRBPSBRSRPSBRS Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत लेख में मनुष्य के विचारों को एक विराट् शक्ति माना है और लेखक का दृढ़ विश्वास है कि अगर आपके पास विचार शक्ति है, तो दुनियाँ की हर मुश्किल, हर वक्त आसान है। - - विचार-वैभव मनुष्य विचारों के द्वारा ही संकीर्णताओं से ऊपर उठता है, और विचारों के द्वारा ही संकीर्णता के अंध-कूप में या गर्त में गिरता है। विचार ही उत्थान का मार्ग है, और विचार हो पतन का। विचारों के द्वारा ही मनुष्य सतह के ऊपर तैरता है, और विचारों के द्वारा ही अतल में पहुँच जाता है। मनुष्य पतन के मार्ग से बचकर चलता है, तो वह भी विचारों की महाशक्ति के माध्यम से ही । ___ कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति है और वह दुकान पर बैठा है। मालिक अभी-अभी उठकर कहीं चला गया है । उसका मन हुआ कि गल्ले में से कुछ पैसे उठा लू ! पर तत्क्षण विचार आया, नहीं !! यह काम अनैतिकता है, चोरी है, अपराध है ! किसी व्यक्ति ने नियम लिया हुआ है, कि रात्रि में भोजन नहीं करूंगा । परन्तु कभी मन हो आया थोड़ा खा पी लिया जाय, तो क्या हर्ज है ? बढ़िया माल है ! खाने को तत्पर होता है, हाथ भी आगे बढ़ जाते हैं, परन्तु तभी विचारों का करंट लगा और वह ठिठक गया। सोचने लगा। नियम मैंने दूसरों को दिखाने के लिए थोड़े ही लिया है। नियम, अपनो ईमानदारी और सच्चाई के लिए होता है। दूसरों की आँखे देता हैं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : आदर्श कन्या तो अमुक कार्य न किया जाय - यह व्रत नहीं है, दम्भ हो सकता है ! छल हो सकता है ! पर सत्य नहीं । हाँ तो विचार जीवन का वैभव है । बस वैभव से हम अपनी रक्षा कर सकते हैं । विचार शक्ति : उपर्युक्त दोनों उदाहरणों से हम इस निश्चित मत पर पहुँचे हैं, कि मानव जीवन के निर्माण में विचारों का बहुत बड़ा स्थान है । विचारों की शक्ति भाप और बिजली से भी बड़ी है, विराट है, व्यापक है | आपको पता ही है- इस द्वितीय विश्व युद्ध में परमाणु शक्ति को कितना महत्व मिला है ? इस सम्बन्ध में जापान में गिराए गये परमाणु बम का उदाहरण सुप्रसिद्ध ही है । परन्तु विचार शक्ति के आगे तो परमाणु बम की शक्ति भी फीकी पड़ जाती है । आखिर परमाणु शक्ति का पता किसने लगाया ? मनुष्य की विचार-शक्ति ने ही तो ! तो यह सिद्ध हुआ, कि विचारों की शक्ति बहुत बड़ी है । मनुष्य को अपनी इस महान शक्ति पर बहुत अधिक ध्यान रखने की आवश्यकता है । जिस प्रकार संसार में प्राप्त की जाने वालो कोई भी शक्ति, भलाई और बुराई दोनों में ही प्रयुक्त की जा सकती है, इसी प्रकार विचार भी दोनों ओर ही अपना कार्य बराबर करते हैं नेक विचार मनुष्य को ऊँचा उठाते हैं, और बुरे विचार नीचे गिराते हैं। इसलिए उन्नति पथ के प्रत्येक पथिक को, चाहे पुरुष हो या नारी - सच्ची सलाह यही है, कि वह अपने हृदय की तिजोरी में सुन्दर विचारों का संग्रह करें। # अच्छे विचार : मैं इस पुस्तक की पाठक पुत्रियों से भी कहना चाहता हूँ, तुम अपने विचारों की प्रबल शक्ति को व्यर्थ नष्ट न होने दो । अपने Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार-वैभव:३ विचारों पर नियन्त्रण करो। जब भी हो अच्छे विचारों को स्थान दो । बुरे विचार मन में अधिक समय तक स्थान पा जाते हैं, तो फिर उनको निकालना असम्भव-सा हो जाता है। बुरे विचार अधिक समय तक मन को भूमि में पड़े रहेंगे, तो समय का पानी उनको मिलता रहेगा और उनकी जड़े मजबूत होती जाएँगी । जिस वृक्ष की जड़ें गहरी जम जाती है, तो वह स्थायित्व पा जाता है। फिर उस वृक्ष का उल्मूलन कठिन हो जाता है । ___ दया, प्रेम, विनय, कोमलता आदि शुभ विचार हैं। इन विचारों के द्वारा चिरकाल से प्रसुप्त मानवता उद्बुद्ध हो जाती है । अतः प्रेम विनय, और सौजन्य को लहलहाती हरियाली मानव मात्र का मन मोह लेती है। विचारों में दृढ़ता: ____ कायर योद्धा युद्ध करने से पहले यह सोचता है कि यदि में शत्रु से घिर गया, तो इधर से भाग जाऊँगा, उधर से खिसक जाऊँगा । और जो वीर है, वह भागने का विकल्प तक नहीं करता। उसके सामने तो एक ही दृढ़ संकल्प होता है --शत्रु को परास्त कर दूंगा । जीवन भो एक समर भूमि है, युद्ध क्षेत्र है । कायर योद्धा को तरह यदि आपके मन में दृढ़ता-विहीन विवार चक्कर काट रहे होंगे, तो उस अवस्था में फिर निश्चित ही है, कि आप जीवन के क्षेत्र में युद्ध नहीं कर सकती। तुम्हारा काम द्वितीय वीर योद्धा की तरह लक्ष्य स्थिर करना है, और फिर उस लक्ष्य की परिपूर्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनी है। शुभ कर्म करते हुए बाधाएँ ता आयेंगी ही। रुकावटें अपना मार्ग भी अवरुद्ध करेंगी ही। परन्तु यदि आपके विचार में दृढता है, तो संसार की भारी से भारी शक्ति भी आपका मार्ग अवरुद्ध Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : आदर्श कन्या नहीं कर सकती हैं। विघ्नों की बड़ी-बड़ी चट्टानें भी चूर-चूर हो जाएंगी। उन विचारों का मूल्य ही क्या है, जो आपके अपने निश्चयों से डिगा दें। संकल्प दृढ़ ही क्या हुए, जो बाँधी में तिनके के समान उड़ जाएँ। त्याग और तप की दृढ़ता और सत्य की प्रतिमूर्ति महारानी सीता का जीवन तो तुमने पढ़ा ही होगा ? जिस समय महारानी सीताजी ने अपने पति महाराज रामचन्द्रजी के साथ भयानक वन में जाने का दृढ़ संकल्प कर लिया था, उस समय उनको वन की कितनी ही भयंकर यातनाएँ बतलाई गईं, परन्तु वे अपने निश्चित संकल्प से मणमात्र भी विचलित न हुई। बन में गईं, भीषण संकट सहे, अधिक क्या, राक्षसराज रावण की कैद में भी रही, पर क्या मजाल, जो मन में जरा भी क्षोभ हो जाए, सत्य से पतित हो जाय । उन्होंने अपने विचारों को बहुत दृढ़ कर लिया था, और यह निश्चय कर लिया था कि चाहे प्राण भले ही चले जाएँ, परन्तु मैं अपने उद्देश्य से अणुमात्र भी विचलित नहीं होऊँगी। ___तुम सीता के ही पवित्र देश की लाड़ली सुपुत्रियाँ हो । अत:: तुम्हें भी अपने शुभ विचारों में दृढ़ता का भाव रखना चाहिए आजकल तुम विद्या पढ़ रही हो, अत: इस समय यह निश्चित शुभ संकल्प करो, कि चाहे कुछ भी हो, कैसी भी स्थिति क्यों न हों, हम विद्या-अध्ययन में कभी भी पीछे नहीं हटेंगी, अन्तिम सीमा पर पहुंच कर ही विश्राम लेंगी। यह ही नहीं, इतना ही नहीं, भविष्य में भी जो सत्कार्य हों अपना और पर का कल्याण करने वाले काम हों, उन सबके लिए भी संकल्प की पूर्ण दृढ़ता अपने हृदय में रखो । देखना, कहीं साहस बीच में ही न भंग हो जाय । संगति कैसी? अब यह प्रश्न है कि, सुन्दर और शुभ विचार प्राप्त कैसे किए Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार-वैभव : ५ जाएं ? शुभ विचार उत्तम संगति से और,उतम पुस्तक पढ़ने से प्राप्त होते हैं। मनुष्य जैसी सगति म रहता है, वैसे ही उसक विचार हात हैं । फिर वह संगति, चाह मनुष्य की हा, चाहे पुस्तकों का। ____ अपने विचारों को पवित्र आर उतम वनाने क लिए सदा सच्चरित्र सुशाल कन्याओं क साथ रहा। जब कभा अवसर मिल, घर को बड़ी-बूढ़ी स्त्रिया क पास बैठकर उनस उत्तम शिक्षाएँ ला। गाँव में जब कभा गुरुदेव आ जाय, ता उनक प्रवचनादि स भो लाभ उठाओ। जब कभी साध्वोजा महाराज आएं तो यथावसर उनक पास भी जाआ और ज्ञान प्राप्त करा । इसक विपरात बुरे स्वभाव बााली आचरणहीन लड़ाकयों से बचा ओर जो स्त्रियाँ झगड़ालू एवं निन्दा, बुराई करने वाली हो, उनसे भी दूर रहा। साधुत्व के भेष में फिरने वाले पाखण्डी पुरुषों स भी सावधान रहो। पता नहीं, कब बुरी संगति से उत्पन्न बुरे विचार तुम्हारे मन में घिर आएँ । एक बार भी बुरे विचार आ गए, तो भले विचारों को दबा लेंगे, उनमें दूषण पदा कर देंगे, और सदा के लिए अपना आसन जमा लेंगे। तुमने कभा देखा हागा थोड़ी सी खटाई भी बहुत सारे उत्तम दूध को फाड़ डालता है । सदव भली सगात म रहने से ही मनुष्य के विचार अच्छे आर पावन हात है । आपकी सच्ची सहेलियाँ : शुभ विचारों का प्राप्त करने का दूसरा साधन अच्छी पुस्तक हैं । उत्तम पुस्तकें जीवन में बहुत बड़े ज्ञान का प्रकाश देती है। पुस्तकें मूक अध्यापिकाएँ हैं, जो न कभी मारती है, न कभी झिड़कती हैं, न झुझलाती है, किन्तु चुपचाप अच्छी-अच्छी शिक्षाएँ देती रहती हैं। पुत्रियों ! तुम अच्छी चुनी हुई पुस्तकों को भी अपनी सहेली बनाओ। जब कभी समय मिले, कोई अच्छा सा किसी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : आदश कन्या सती का जीवन चरित्र, महापुरुषों का जीवन चरित्र, या संतों का धर्मोपदेश वाली पुस्तकें लेकर बैठ जाओ, तुम्हें अवश्य ही शुभ विचारों का प्रकाश मिलेगा। अच्छी-अच्छो पुस्तकों से अच्छोअच्छी बातें नोट करो, और उनको आचरण में लाने का अभ्यास करो। आपका जीवन अवश्य ही उन्नत, पवित्र और मंगलमय हो जाएगा। उपसंहार : कौन मनुष्य कैसा है ? यह उसके बाह्य रंग रूप और जाति आदि से नहीं आंका जा सकता । प्रत्युत उसके विचारों से ही पता लगाया जा सकता है, कि कौन कितना सच्चा तथा चरित्रवान है । अत: मनुष्य को परखने की यह कसौटी है कि जैसे उनके विचार होंगे, वैसा ही उनका आचरण भी होगा। __ अच्छी पुस्तकों से संग्रह किये गए विचार, विचारों का वेभव है ! यह विचार-सम्पत्ति आपके जीवन के अंधेरे, उजाले में हर समय काम आने वाली है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की मशाल आपके जीवन के अधेरे-उजेले के, साँझ सकारे वे हर मोर्चे पर काम आयेगी ! इस लेख में यह सिद्ध है कि सत्य मानः जीवन के लिए साँसों के समान है आवश्यक है। सत्य हो भगवान है सत्व एक मशाल है। सत्य एक शक्ति है । सत्य ही सूर्य है और सत्य ही भगवान है । सत्य जीवन की ज्योति है । सत्य जोवन पथ का प्रकाश स्तम्भ है । मानव, अंधकार से बचने के लिए प्रकाश चाहता है । सत्य, झूठ के अन्धकार से बचने के लिए प्रकाश है, मशाल है । सत्य, मनुष्य को प्रकाश के पथ पर अग्रसर करने वाली शक्ति है । सूर्योदय होता है,तो अंधकार एकदम समाप्त हो जाता है। प्रातःकाल तुमने देखा होगा, सूर्य पूर्णतया आकाश में आता भी नहीं है, और उसके आने से काफी पहले ही अंधकार नष्ट होना प्रारम्भ हो जाता है। इसी प्रकार सत्य का सूर्य जब हृदयाकाश पर उदय होता है, तो असत्य का, झूठ का अंधकार भी सत्य से बोलने का संकल्प करते ही नष्ट होना प्रारम्भ हो जाता है । सूर्य से जैसे अंधकार दूर भागता है, इसी प्रकार सत्य से झूठ भी दूर भागता है । सत्य का महत्व : सत्य को जैन-धर्म ने अत्यधिक महत्व दिया है । शृमण भगवान महावीर ने अपने आपको भगवान कहलाने का कभी आग्रह नहीं किया, उन्होंने लो आज से बगभग पच्चीस सौ वर्ष पहले कहा था ____ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : आदर्श कन्या वस्तुतः सच्चा भगवान सत्य ही है --"तं सच्च खु भगवं" हमारे आराध्यदेव भगवान का कहना अक्षरशः सत्य है । सत्य पथ का पथिक बनकर ही तो मनुष्य भगवान बनता है। मानव से महामानव बनता है। सत्य वह भगवान है जो अपने उपासकों को भगवान बना देता है, वह भगवान ही क्या, जो अपने भक्तों को अपने समकक्ष स्थान प्रदान न कर सका, तो उसकी उदारता ही क्या रही ? साधारण मानव से महामानव की उदारता भी तो महान ही होनी चाहिए भगवान महावीर ने आचारांग सूत्र में कहा है"जो साधक (व्यक्ति) सत्य की आज्ञा में चलता है, वह मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है । मृत्यु पर विजय प्राप्त करना ही-तो भगवान बनना है। सत्य का व्यावहारिक रूप : ___ तुम जानती हो, सत्य किसे कहते हैं ? जैसा देखने व सुनने में आये उसे वैसा ही और उतना ही कहना सत्य है । अतः जो बात जैसी और जितनी हो, उसे वैसी और उतनी ही कहनी चाहिए। अपनी ओर से रंग लगाकर या बढ़ा-चढ़ाकर कभी कोई भी बात नहीं कहनी चाहिए । यदि तुम्हें भली और सुघड़ लड़की बनना है तथा सबको दृष्टि में सम्मानित होना है, तो असत्य कभी मत बोलो। झूठ बोलकर भूल छिपाने का कभी प्रयत्न नहीं करना चाहिए । भूल तो छोटे-बड़े सभी से होती है, पर स्वीकार कर लेना बड़ी बात है। झूठ से झूठ बढ़ता है : __झूठ से झूठ बढ़ता ही है, घटता नहीं । झूठ बोलने पर तुम्हारा एक अपराध ढंक भी गया तो क्या हुआ? इस तरह तो एक बार Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ही भगवान है झूठ बोलकर आगे तुम झूठ बोलने की परम्परा ही डाल लोगी और झूठ का अभ्यास बढ़ता जायेगा । ज्यों-ज्यों तुम्हारा झूठ बढ़ेगा, त्योंत्यों तुम्हारा विश्वास लोगों के दिल से उठता जाएगा। अगर तुमने किसी का झूठा नाम लगा दिया, तो समझ लो दोहरा झूठ हो गया । सत्य बोलने से आत्मा सदा प्रसन्न रहती है । सत्य के उपासक के चित्त में किसी प्रकार की खिन्नता और दुःख नहीं होता । सत्य बोलने वाला सदा निर्भय रहता है । झूठा व्यक्ति यह सोचकर भयातुर रहता है कि मेरा झूठ कहीं प्रकट न हो जाय । सत्यवादी के मुख पर अपूर्व तेज चमकता है ओर आस-पास के सब लोगों में विश्वास भो बढ़ता है । संसार के जितने भी काम हैं, सब परस्पर के विश्वास से ही चलते हैं । जिसने सत्य बोलकर जनता से विश्वास पाया, उसने सब कुछ पाया, सत्य बोलने की सब जगह प्रतिष्ठा होती है, उसका कोई भी काम कभी नहीं रुकता । सत्य की सीख : प्यारी कन्याओ ! तुम सदा सत्य बोला करो । जो लड़कियाँ झूठ बोलने वाली होती हैं, उनका काई विश्वास नहीं करता । सब लाग उनको घृणा का दृष्टि से देखते हैं और जा कन्याएं सत्य बालतो है उनका माता-पिता आदि बड़े भी विश्वास करते हैं, साथ ही सहेलियों में भी उनको सम्मान मिलता है, पास पड़ौस के सब लोग उनकी प्रशंसा करते हैं । और उनसे दूसरी छोटा लड़कियो का भी शक्षा मिलती है । तुमने झूठ बोलने वाले गड़रिये की कहानी तो सुनी ही होगी ? जब वह लड़का जंगल में भेड़ें चराने जाता तो लोगों को हँसी मजाक करने के लिए झूठ में ही चिल्ला उठता था - " लोगों दौड़ों-दौड़ा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : आदर्श कन्या भेड़िया आ गया । बचाओ ! बचाओ !" खेतों में काम करने वाले कृषक भागकर उसे आपत्ति से मुक्त करने की भावना से जाते और उससे पूछते कहाँ है भेड़िया? तो वह खिलखिला कर हंस पड़ता। इस प्रकार उसने अनेकों बार किसानों को परेशान किया। एक बार सचमुच ही भेडिया आ गया। वह चिल्लाया, पर सब लोगों ने इसके इस सत्य को भी झूठ समझा और कोई भी उस की सुरक्षा के लिए नहीं आया। फलत: वह अपनी जरा-सी झूठ बोलने की प्रवृति के कारण ही अपने जीवन से हाथ धो बैठा ! जिन्दगी खो बैठा । यह कहानी यह शिक्षा देती है कि, झूठ बोलकर अगर जरा-सी देर के लिए अपना काम बना भी लिया, मनोविनोद कर भी लिया तो क्या हुआ? कांठ की हंडिया एक बार ही चूल्हे पर चढ़ सकती है झठ बहुत कम ही जिन्दा रहता है अजर-अमर तो सत्य ही है। जिसके पास सत्य है, उसे भय ही विस बात का हो सकता है ? सत्य साक्षात् भगवान ही है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर अनुशासन के द्वारा नौकर से भी मन इच्छित कार्य नहीं कराया जा सकता । हृदय जीत लेने का एक ही उपाय है और वह उपाय है-विनय, विनय गुण जीवन के हर मोर्चे पर ढाल का काम कर आपको विजयी बनाये ! यह विश्वास . हृदय में स्थिर कर जग से यश की माला पहनिए । विनय का चमत्कार विनय का अर्थ बड़ों का आदर करना है। परन्तु विनय का संकुचित अर्थ न कर, जरा व्यापक अर्थ करें तो 'नम्रता' है । नम्रता मनुष्य का एक महान ऊँचा गुण है और नारी-जाति के लिए तो यह बहुत ही आवश्यक गुण है । वह जहाँ भी रहेगी, नरक जसे घर को स्वर्ग बना देगी। नम्रता का चमत्कार : नम्र व्यवहार और नम्र वचन किसे प्रिय नहीं ? नम्रता से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। पुराने इतिहासों से जाना गया है,कि नम्रता के द्वारा बड़े से बड़े क्रूर और झगड़ानू मनुष्य भी अनायास ही वश में कर लिए गए हैं। नम्र स्त्री घर भर में अपना शासना चलाती है, और सबको प्रसन्न रखती है। सब परिवार उसके कहने में चलता है । अतः नम्रता जादू का सा असर रखती है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : आदर्श कन्या प्रेम को चुम्बक शक्ति! __ अभिमान बड़ी भयंकर चीज है। अपने को धनी सुन्दर, चतुर और गुणी समझना अभिमान है, और यह सारे परिवार के सुखमय जीवन को चौपट कर देता है। कन्याओं का कर्तव्य है कि अपने आप को अभिमान के रोग से बचाएँ अभिमान करने वाली लड़कियाँ हमेशा तनी रहती हैं, मुंह फुलाए रहती हैं, किसी से सीधे मुंह बोल ती भी नहीं । अभिमानी लड़कियाँ किसी से भी अपना मधुर और स्नेह का सम्बन्ध नहीं रख सकती, यह समझना कि मैं अभिमान के दबाव से सबको दबा लूंगी, बिल्कुल भूल है। आजकल किसी पर किसी का घमण्ड नहीं चलता। और तो क्या, नौकरचाकर भी व्यर्थ का अभिमान सहन नहीं कर सकते। प्रेम के द्वारा नौकर से दस काम ज्यादा कराए जा सकते हैं। डाँट और अभिमान कोई भी सहन करने को तैयार नहीं है। इसलिए कहा जाता है"प्रेम चुम्बक शक्ति है । इसके द्वारा हर इन्सान को अपने संकेत पर चलाया जा सकता है।" __ बहुत से स्त्री-पुरुष समझते हैं कि - "घर के नौकर और नौकरानी पर तो कठोर शासन करना ही चाहिए, अन्यथा वे गम्भीरता से कार्य नहीं करेंगे। यह ठीक है, नौकरों के साथ जरा गम्भीरता से काम लेना चाहिए। परन्तु यह गम्भीरता और चीज है, और लड़ना-झगड़ना दूसरी चीज है। बुद्धिमति और तेजस्वी गृह-देवियाँ का उप शब्दों प्रयोग किये बिना ही जैसा अच्छा गृह-शासन कर सकती हैं, उतना बात-बात पर लड़ने-झगड़ने और विवाद करने वाली स्त्रियो से नहीं हो सकता। नम्रता और उग्रता नम्रता का उपदेश इसलिए नहीं है, कि तुम नम्रता करते-करते कायर और बुजदिल' बन जाओ। नम्रता और कायरता में बड़ा ___ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय का चमत्कार : १३० 1 भारी अन्तर है । कभी-कभी आपत्ति के समय स्त्रियों को उग्रभाव भी धारण करना पड़ता है। जब किसी दुराचारी और गुन्डे से वास्ता पड़े तो वहाँ आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए उग्रता से काम लेना चाहिए। जैन धर्म अहिंसा और दया का बहुत बड़ा पुजारी है । वह जीवन में नम्रता व कोमलता को बहुत महत्व देता है । परन्तु : वह यह कभी नहीं कहता, कि कोई भी स्त्री, दुराचारी और असभ्य गुण्डों के साथ भी नम्रता का व्यवहार करे, उनको बाजिजी करे ।" आक्रमणकारी नीच गुण्डो को उग्रता से दण्ड देना ही चाहिए, और ऐसा दण्ड देना चाहिए, कि वे सदा के लिए सावधान हो जायें, फिर कभी किसी स्त्री से अनुचित हरकत न करें । उपसंहार : anil भारत का गौरव, जाति पर अवलम्बित है । हमारे देश की कन्याएँ, जब एक साथ ही लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का रूप धारण करेंगी, तभी देश का कल्याण होगा । भारतीय कन्याएँ, नम्रता के क्षेत्र में इतनी नम्र हों, कि घर और बाहर सर्वत्र उनकी कोमलता की सुगन्ध फैल जाय और समय पर गुण्डों के सामने इतनी कठोर भो हों, कि अत्याचारी और दुराचारी थर-थर काँपने लगें । नम्रता और वीरता का यह मधुर मिश्रण ही भारतीय नारी का युग-युगः तक कल्याण करता रहेगा । D Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जो घटना, जो दृश्य, जो चित्र अतीत के पर्दे के पीछे एक बार ले जाते हैं, उन्हें लाख प्रयत्न करके भी मनुष्य इन चर्म-चक्षुओं के सम्मुख न ला सकेगा। अतः समय का मूल्य आंकने की कला इस लेख द्वारा आपको प्राप्त है, मूल्यांकन कीजिए। समय की परख समय अनमोल वस्तु है । संसार की अन्य सब वस्तुओं का मूल्य आंका जा सकता है, परन्तु आज तक समय का मूल्य न कभी हुआ है, और न कभी भविष्य में होगा ही। समय का मूल्य तब होता जब कि वह किसी दूसरे पदार्थ के बदले में मिल सकता होता। समय का प्रभाव: __समय वेगवान प्रवाह है, और वह अविराम गति से बह रहा है । वह एक क्षण के लिए भी नहीं रुक सकता। संसार में अनेक शक्तिशाली महापुरुष हो गये हैं परन्तु ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसने समय को स्थिर रखा हो, राके रखा हो, जाने न दिया हा । भगवान महावीर का जब पावापुरी में निर्वाण हो रहा था, तो स्वर्ग के इन्द्र ने आकर कहा था-"भगवान कुछ देर के लिए जीवन बढ़ा लीजिये। आपकी आयु के क्षण गुजर रहे हैं। इन्हें जरा-सा दर के लिए रोक लोजिए।" भगवान ने उत्तर दिया था-'देवराज, यह असम्भव है। समय की गति को राका नहीं जा सकता। जावन समाप्त होने को है, मैं उसे नहीं बढ़ा सकता, नहीं बचा सकता ! संसार का कोई भी शक्तिशालो पुरुष यह असम्भव काम नहीं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय की परख : १५ कर सकता।" वस्तुतः भगवान महावीर का कहना पूर्ण सत्य है । समय क्या है और वह कैसे जाता है, इसका पता मृत्यु के समय पर लगता है। उस समय ससार की सारी सामग्री और धन देने पर भो अधिक तो क्या एक क्षण भी नहीं बढ़ाया जा सकता, रोका नहीं जा सकता। हाँ, तो समय अनमोल वस्तु है इससे जितना भी लाभ उठाया जा सके, उठा लो समय रुक नहीं सकता है, वह चला जायेगा। जो लाभ उससे उठा लिया जायेगा, वही हाथ मे बव रहेगा। भगवान महावीर कहते हैं-''जो दिन-रात गुजरते जा रहे है। कभी वापस लौटकर नहीं आ सकते । परन्तु जा सत्काय करता है, धर्माराधन करता है, उसका वह समय सफल हो जाता है । इसक विपरीत जिसने अधर्म किया है, समय को यों ही व्यथ के कार्यों में खर्च किया है, उसका वह समय निष्फल हो गया है।" समय का सदुपयोग : तुम अभी लड़की हो। अतएव मन लगाकर विद्या पढ़ो। खेलकूद में समय नष्ट करना मूर्खता हागो। अब तुम पढ़ लागो, तो भविष्य में तुम्हारे काम आयगा। अन्यथा जीवन भर का पछतावा रहेगा। फिर यदि तुम चाहोगी, कि पढ़ ला । तो नहीं पढ़ा जाएगा। गया हुआ बचपन कहीं लौटकर आता है ? पढ़ने के लिए बचपन के समय से बढ़कर दूसरा कोई सुन्दर समय नहीं होता । तुम देख सकती हो-तुम्हें धर्म की अच्छी पुस्तके पढ़ते देखकर बहुत सी बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ किस प्रकार पछतावा करतो हैं,-'हम तो मूर्ख ही रह गईं, पढ़ो नहीं। अगर हम पढ़ी होती, तो आज बेकार न पड़ी रहतीं । अच्छे-अच्छे धर्मग्रन्थ पढ़ती। अब सुनने के लिए भी दूसरों का मुंह ताकना पड़ता है, फिर भी बहुत सी बातें अच्छी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ । आदर्श कन्या तरह समझ में नहीं आती।" पुत्रियो ! तुम इन वृद्धाओं की बातों से शिक्षा लो और अपने समय का क्षण भी व्यर्थ न जाने दो। घड़ी की सुई की तरह एक-एक मिनट के लिए भी नियमबद्ध होकर काम करो। बहुत सी लड़कियों और स्त्रियों समय की कदर नहीं जानतीं । वे व्यर्थ ही खाट तोड़ती रहती है, गपशप मारा करती हैं। समय बिताने के लिए मुहल्ले की स्त्रियों को बुला लेती हैं, या स्वयं उनके पास पहुंच जाती हैं । चार-पाँच इकट्ठी होकर आलोचना आरम्भ करती हैं, तो बस फिर क्या, समूचे गांव भर के स्त्री-पुरुषों की आलोचना कर डालती हैं। किसी में कुछ दोष निकालना, किसी में कुछ। एक तुफान खड़ा कर देती हैं। आपस की झूठी-सच्ची निन्दा बाई से मन और जिह्वा दोनों को व्यर्थ ही अपवित्र करने में पता नहीं, उन्हें क्या आनन्द आता है ? और जब इस महिला-महासभा की रिपोर्ट बाहर जाती है, तो गाँव के शान्त परिवारों में महाभारत का-सा युद्ध ठन' जाता है। जिनकी निन्दा बुराई की गई है। भला वे कब चुप बैठने वाली हैं। ना समझ स्त्रियाँ व्यर्थ ही मुहल्ले में कलह के बीज बो देती हैं। यह है, समय की कदर न करने का दुष्परिणाम । यह है, आपस की गपशप का भयंकर फल ! दुर्गुण नहीं आयेंगे : पुत्रियो ! तुम स्वयं चतुर हो अपना सब हिताहित समझ सकती हो । समय चिन्तामणि रत्न है, तुम इससे मन चाहा फल पा सकती हो । समय पर विद्या पढ़ो, समय पर धर्माराधन करो, समय पर दान करो, परोपकार करो समय पर घर में किसी बीमार की सेवा शुश्रूषा करो, समय पर छोटे बाल बच्चों को कहानी सुनाकर अच्छी शिक्षा दो, समय पर घर में बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों को कोई धार्मिक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय की परख १७ पुस्तकें सुनाओ। मतलब यह है, कि - " खाली न बैठो, कुछ न कुछ सत्कर्म करती रहो ।" जीवन में काम बहुत है, समय थोड़ा है । अतः दिन-रात बराबर प्रयत्नशील रहकर ही मनुष्य समय का सदुपयोग कर सकता है । एक पल भी व्यर्थ खोना, एक अमूल्य कोहेनूर हीरे के खोने से भी बढ़कर हानिकारक है। सीने-पिरोने आदि के छोटे-से-छोटे काम भी सदाचार के सूत्र हैं। बेकार समय में तो आलस्य, दुर्विचार आदि घेर लेते हैं । सतत् क्रियाशील जीवन के समय उन दुर्गुणों को आने का कभी साहस ही नहीं होता । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना जाने विना समझे ही कुछ लोगों ने धारणा बना ली है, कि जैन धर्म गन्दा रहना सिखाता है। यह लेख इसका सम्यक् स्पष्टीकरण कर यह कहता है-अस्वच्छता पाप है, और शारीरिक व मानसिक दोनों ही अस्वच्छता से बचना चाहिए । यह जैन-धर्म का मूल । स्वर है। अस्वच्छता पाप है 'अस्वच्छता' का अर्थ गन्दगी है । जो मनुष्य अस्वच्छ रहता है, गन्दा रहता है, वह भयंकर भूल करता है। अस्वच्छ रहने से मनुष्य के स्वास्थ्य का भी नाश होता है, और दूसरे साथियों के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है। जिस मनुष्य का स्वास्थ्य नष्ट हो गया, समझ लो, वह एक प्रकार से धर्म से भी भ्रष्ट हो गया। इसलिए जैन धर्म में अस्वच्छता को एक दुर्गुण व पाप माना गया है। बताइए, रोगी मनुष्य क्या धर्म कर सकता है ? अस्वच्छता से वचिए : अस्वच्छता दो प्रकार की होती है -मानसिक और शारीरिक अपने मन तथा आत्मा को विकारों से अशुद्ध रखना, मानसिक अस्वच्छता है और शरीर तथा आस-पास की वस्तुओं को गंदी रखना, शारीरिक अस्वच्छता है । मनुष्य को दोनों ही अस्वच्छताओं से बचकर रहना चाहिए । मानसिक अस्वच्छता को दूर करने के लिए निम्न बातों पर खास तौर से लक्ष्य रखना चाहिए Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वच्छता ५. क्रोध न करना ! २. लोभ न करना ! ३. छल न करना ! ४. घमण्ड न करना ! ५. चोरी न करना ! ६. झूठ न बोलना ! ७. कुविचार न करना ! ८. विश्वासघात न करना ! ६. किसी को निन्दा न करना ! १०. मोह न करना आदि, आदि ! दूसरा नम्बर शरीर की स्वच्छता का है। इस पर भी बहुत अधिक लक्ष्य रखना चाहिए । जन-धर्म जहाँ मानसिक स्वच्छता पर जोर देता है, वहाँ शारीरिक स्वच्छता पर भी जोर देता है। जो लोग कहते हैं कि जैन धर्म में गन्दा रहना बताया गया है, वे अभी तक जैन-धम को तनिक भो न पढ़ पाये हैं । जन-धर्म जैसा स्वच्छता और विवेक पर जोर देने वाला धर्म है, वैसा दूसरा कोई धर्म नहीं । शारीरिक अस्वच्छता को दूर करने के लिए नीचे लिखी बातों पर खासतौर से लक्ष्य रखना चाहिए। १. हाथ-मुंह शरीर ये गन्दे नहीं रखना ! २. सिर गन्दा नहीं रखना ! ३. वस्त्र, घर, आँगन गन्दा नहीं रखना । बिछौना गन्दा नहीं रखना ! पानी बिना छाना नहीं पीना ! छलना गन्दा, फटा हुआ नहीं रखना ! ७. आटा बहुत दिनों का नही रखना ! ८. शाक वगैरह बहुत दिनों के नहीं खाने ! Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : आदर्श कन्या ६. भोजन बासी नहीं खाना ! १०. बर्तन गन्दे और धूल से भरे हुए नहीं रखना ! ११. भोजन अधिक नहीं लेना, जूठन नहीं डालना आदि ! १२. पाखाना हमेशा साफ रखना ! स्वर्ग और नरक: तुम गृह-लक्ष्मी हो। तुम्हें घर में देवी के समान ही स्वच्छ और पवित्र रहना चाहिए । जो चतुर नारियां, शरीर तथा आस-पास के पदार्थों की स्वच्छता पर बराबर ध्यान देती हैं, वे अपना और परिवार आदि सबका मंगल करती हैं । इनके विपरीत जो अस्वच्छ रहती हैं, आस-पास की वस्तुओं को गन्दा रखती हैं, वे अपने को तथा परिवार को दुखी करती हैं । इतना ही नहीं, निर्दोष पड़ोसियों तक को भी तंग करती हैं। अस्वच्छता का बुरा परिणाम सब पड़ोसियों को, कभी-कभी तो सारे गाँव तक को भोगना पड़ता है। हैजा, प्लेग आदि के बहुत से छुत सम्बन्धी रोग अस्वच्छता के ही कुफल हैं । देखिए एक मनुष्य की जरा-सी असावधानी से व्यर्थ ही असंख्य जीवों की हिंसा हो जाती है। हाँ तो, अस्वच्छता नरक है और स्वच्छता स्वर्ग । स्वच्छता से प्रेम करने वाली कन्याएँ, देश के लिए मंगल कारिणी देवियाँ प्रमाणित हो सकती हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलह के कारण प्रेम की कड़ियाँ | टूट-टूटकर गिर रही हैं। बड़े घर व अच्छे घर की बेटियों को चाहिए उन कड़ियों को जोड़ दें! प्रेम के पौधे लगाकर उजड़ी फुलवारी की शोभा बढ़ा दें! शोभा वढ़ने का आसान तरीका इस लेख से आपको मिल जायेगा। कलह दूषण है आज के भारतीय परिवार, दिन-प्रतिदिन दुर्बल और दुर्बलतर होते जा रहे हैं । आज के परिवारों की प्रेम शृंखला मजबुत नहीं रही । प्रेम की कड़ियाँ टूट-टूट कर अनुदित गिर रही हैं। पारिवारिक भावनाएँ समाप्त प्रायः होती जा रही हैं, वे पहले जले हरे-भरे फलते-फूलते हँसमुख परिवार कहाँ ? वह पुराना स्वर्गीय जीवन आज केवल स्वप्न बनकर ही तो रह गया है। वह कौन-सा रोग है, जिसके कारण हम दिन-प्रतिदिन छोजते जा रहे हैं। भारतीय परिवारों की जड़ों में कोई भयानक कीड़ा अवश्य लगा हुआ है जो इस प्रेम को खोखला कर धराशायी बनाने का प्रयत्न कर रहा है । वह रोग, वह कोड़ा और कोई नहीं, एकमात्र आपस की कलह है, जो आज हमारे सर्वनाश का कारण बन रहा है। कलह मानव जाति का सबसे बड़ा दूषण है। शान्ति आवश्यक क्यों? मनुष्य के लिए शान्ति ही सबसे बड़ा गुण है । हाँ तो, तुम कैसे Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२ : आदर्श कन्या ही उत्तेजना के वातावरण में क्यों न हो, परन्तु अपनी शान्ति नष्ट न होने दो ! यदि तुमने जरा भी अपने आपको शान्ति से अलग किया, तो देख लेना, तुम्हारे परिवार में कलह आसन जमा लेगी और आपस में प्रेम रूपी कल्प वृक्ष को क्षण भर में जलाकर राख कर डालेगी । कब तक कोई आग को ढँककर रख सकता है ? आग को कितना ही छिपाओ, फिर भी उसकी चमक तो बाहर निकलेगी ही टीक इसी प्रकार हृदय की दुर्भावनाएँ भी कभी छिप नहीं सकती | आसपास के कारणों को लेकर हृदय में जो अनेक प्रकार की दुर्भावनाएँ इकट्ठी हो जाती हैं, वे ही बढ़कर कलह का रूप धारण करती हैं और एक हरे भरे तथा सुखी परिवार को नष्ट-भ्रष्ट कर डालती हैं । बस, अपने हृदय को साफ रखो, हृदय में किसी की ओर से मैल न जमने दो, फिर तुम्हें कलह नष्ट नहीं कर सकेगा । शुद्ध हृदय में कलह उत्पन्न ही नहीं हो पाता । हृदय को शुद्ध रखने के लिए शान्ति आवश्यक है । कलह के कारण सारा परिवार डाँवाडोल हो जाता है और प्रत्येक व्यक्ति के मुख पर उदासीनता और कठोरता छा जाती है घर में से प्रसन्नता और हँसी-खुशी एकदम गायब हो जाती है । जो स्त्री कलह करती है, उससे कोई भी प्रसन्न नहीं रहता । सब लोग उससे बच कर रहते हैं, और तो क्या उससे कोई बोलना तक भी नहीं चाहता । बच्चे भी उससे डरकर रहते हैं । वह जिधर भी चली जाती है, चण्डी का भयानक रूप धारण कर लेती हैं, और शेरनी की तरह बबकारती है, घर भर में एक तहलका मचा देती है । पुत्रियो ! तुम्हें आगे चलकर घर की रानी बनना है । इसलिए अभी से अपने आपको खूब अच्छी तरह संभाल कर रक्खो । आपस के कलह से सर्वथा दूर रहो। माता, पिता, भाई, बहिन जो आज्ञा दें, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलह दूषण है : २३ खुशी-खुशी झट-पट पालन करो। अगर कभी तुम्हारा कहना न माना जाए, तो लड़ो मत । प्रेमपूर्वक अपनी बात मनवाने का प्रयत्न करो। साथ ही सहेलियों से हमेशा मिलजुल कर रहो, कभी भी आपस में झगड़ा न करो । नारो घर की रानी है : बिना नारी के घर, घर नहीं कहलाता । वह भयंकर श्मसान है, जिसमें नारी का साम्राज्य नहीं ! बिना नारी के घर में रमणीयता, सरसता और प्रेम कहाँ मिल सकता है ? परन्तु नारी के लिए यह ऊँचा पद वहन करना ही बहुत कठिन है । बहुत-सी नारियाँ कलह के कारण स्वर्ग के से घर को नरक बना देती हैं। दिन भर उनके कलह का बाजार गर्म रहता है । किसी से लड़ती हैं, किसी की शिकायत करती हैं, जरा-जरा-सी बात पर मुंह चढ़ा लेती हैं, खाना-पीना छोड़ देती हैं, गालियाँ देती हैं, और ताना मारती हैं । प्रेम से प्रेम मिलता है : तुम अभी घर में पुत्री और बहन के रूप में हो। तुम्हारे भाई की पत्नी भाभी तुम्हें सहेली के रूप में मिली है भाभी के साथ बहुत प्रेम के साथ हिल-मिल कर रहो। ननद का पद, भाभी के साथ साथीपन का है, सहायता पहुँचाने का है, खुश रहने का है, और प्रेम से दो बात कहने का है तंग करने का नहीं । बहुत-सी लड़कियाँ अपनी मामी से बहुत झगड़ा करती हैं, गालियाँ देती हैं, बात-बात पर उसका तिरस्कार करती हैं, और घर में भाई आदि से शिकायत करती हैं। भाभी को भूखी और कंगाली बताना तथा परिहास में फूहड़ कहना, बिल्कुल अनुचित है। तुम समझती हो, भाभी ने तुम्हारे घर में जन्म नहीं लिया है । परन्तु देखो वह भी कहीं से बहन और पुत्री के रूप में रहकर ही तो तुम्हारे यहाँ बहू बनकर आई । नया घर है, नया परिवार है, नया वातावरण है, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : आदर्श कम्या अतः तुमसे उसको सहायता मिलनी चाहिए, या तिरस्कार ? समझलो, तुमको भी दूसरे घर में जाना है, किसी की भाभी बनना है ? तुम वहाँ क्या करोगी? जब तुम्हारी ननद के द्वारा तुम्हारा अपमान होगा, तब तुम्हें कितनी पीड़ा होगी ? जो जंसा करता है, वैसा पाता है । तुम्हें भी अपनी करनी का फल जरूर मिलेगा ! भाभी की बात पर लम्बा लिखने का यह अभिप्राय है- कि प्रायः लड़कियाँ लड़ने-झगड़ने की आदत भाभी से ही प्रारम्भ करती हैं, अतः प्रारम्भ से ही इस दुर्गुण से बचने का प्रयत्न करना चाहिए । संसार का यह नियम है- प्रेम से प्रेम मिलता है और द्व ेष की पहचान : स्त्रियाँ प्रायः कानों की कच्ची हुआ करती हैं। झूठी सच्ची कुछ भी किसी के सम्बन्ध में सुन लेती हैं और उसी पर विश्वास कर लेती हैं, फलतः घर में प्रेमी से प्रेमी व्यक्ति के साथ भी झगड़ा करने को तैयार हो जाता हैं । परन्तु याद रक्खा, जो लोग तुमसे किसी की शिकायत करते हैं और तुमसे चिकनी-चुपड़ी बात बनाते हैं, तो समझ लो वे तुम्हारे मित्र नहीं, शत्रु हैं । उनकी बातों में कभी मत आआ । झूठी शिकायत करने वाली स्त्रियों से सावधान होकर रहो । वे तुमको क्रोध मे पागल बनाकर तुम्हारे घर का तमाशा देखना चाहती हैं । कलह वर्जित ही है J : बहुत-सी स्त्रियों का यह स्वभाव होता है, कि वे अपने दोषों को छिपाने के लिए अथवा अपने आपको निर्दोष प्रमाणित करने के लिए भी झपड़ा करने पर उतारू हो जाती हैं, वे समझती हैं, कि झगड़ा करने से ही लोग हमको निर्दोष समझेंगे । उनका विश्वास शत्रु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलह दूषण है : २५ है, कि झगड़ा करके हो हम अपना गौरव और प्रतिष्ठा कायम रख सकेंगी, परन्तु यह उनकी भयंकर भूल' है । लोग बुद्धि-हीन नहीं हैं, जो वास्तविकता को न समझ सकें । यदि वस्तुतः तुमने कोई दोष किया ही नहीं है तो फिर क्यों झगड़ती हो ? सत्य अवश्य प्रकट होकर रहेगा, और यदि तुमने बास्तव में कोई दोष किया ही है, तब भी झगड़ने से क्या लाभ ? झगड़ने से तुम सच्ची कभी नहीं हो सकती, प्रत्युत कलह करने के कारण घर वालों की आँखों से और अधिक गिर जाओगी। कलह करने से किसी की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती । यह निश्चित समझो, को शान्ति से मनुष्य को जितनी प्रतिष्ठा होती है, उतनी और किसी से नहीं । यश फैलाओ: अधिक क्या कहा जाए। सत्य का धर्म थोड़े से शब्दों में ही सीख लेना चाहिए । भले ही थोड़ी बहुत हानि हो, उसको सहले परन्तु उसके लिए झगड़ा कभी भूल कर भो मत कर। । कलह से तुम्हारा प्रेम-पूण स्वर्गीय संसार नष्ट हा जाएगा । शान्ति से कलह पर विजय प्राप्त करो। शान्त और सुशील नारी ही ससार में सुयश प्राप्त करती है। नारा लक्ष्मी का अवतार कहलाती है। वह नहर में, ससुराल में, ननिहाल में और दूसरे रिश्तेदारों के यहाँ वहाँ-जहाँ कहीं भी जाएगी, वहाँ प्रेम और शान्ति की सुगन्ध महकाती रहेगी। प्रेम से तुम्हारा जीवन सुवासित हो जाएगा, तो यश की सुगन्ध अपने आप विकीर्ण होगी। प्रेम से यश बढ़ता है। ज्योंज्यों प्रेम बढ़ता है, यश के क्षेत्र में मनुष्य अधिकाधिक गहरा उतरता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य की इच्छाएं अनन्त हैं, उन सबकी पूर्ति असम्भव है । इच्छाएं पूर्ण न होने से मनुष्य दुखी हैंइच्जाएं चैन नहीं लेने देती हैं । दर्शन शास्त्र के मनस्वी विचारक मनिजी का कहना है- सुख इच्छा पूर्ति से नहीं, सन्तोष से ही सम्भव है । सुवोध शैली में उनके विचार पढ़िए, आपको मीठे दूध की-सी मिठास आएगी। अपरिग्रह आवश्यक क्यों ? अपरिग्रहवाद का सिद्धान्त, वैसे तो बहुत गम्भीर एवं व्यापक है । उसकी सब बारीकियां तो पुराने धर्म-ग्रंथों के अध्ययन से ही की जा सकती है। परन्तु तुम अभी बच्ची ही हो, अतः न तुम्हें इतनी गम्भीरता में उतरना है और न अभी इसकी इतनी आवश्यकता ही है। हां, इसकी रूपरेखा तुम्हें बतलाई जा रही है, आशा है, तुम इस पर ही चलने का प्रयत्न करोगी और अपने को सुखी बना सकोगी। ____मनुष्य सुख चाहता है, यह निर्विवाद है । अतः अब इस बात का पता लगाना है, कि सूख है क्या चीज? जब हम सुख की परिभाषा संसारी पदार्थों को लेकर करते हैं. तो यह ठीक नहीं रहती। क्योंकि हम देखते हैं, कि विभिन्न मनोवृत्ति के कारण किसी को कोई चीज सुखकर मालूम होती है, तो किसी को कोई दुखकर । परन्तु भगवान् महावीर ने सुख का वास्तविक लक्षण बताया है, कि-"सच्चा सुख अपनी इच्छाओं को कम करने में है ?' इच्छाओं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह आवश्यक क्यों ? : २७. का निरोध अपरिग्रह की मर्यादा से हो सकता है. अतः अपरिग्रह आवश्यक है। - अच्छा तुम संसार में जरा यह पता लगाओ, कि सब लोग क्या चाहते हैं ? तुम ध्यान लगाकर संसारी जीवों की गतिविधि का निरीक्षण-परीक्षण करोगी, तो तुम्हें पता लगेगा, कि संसार में सब लोग सुख चाहते हैं । क्या कोई जीव दु:ख चाहता है ? नहीं, कभी नहीं। लाभ और लोभ में दौड़ : जिस मनुष्य की जितनी ही इच्छा बढ़ी हुई होगी, वह उतना ही सुख-हीन होगा । धन-सम्पत्ति, मकान, कोठी, कार, घोड़ा, बाग, बगीचा आदि के मिल जाने पर हमें सुख मिल जायगा, जो लोग यह समझ बैठे हैं, वे भूल में हैं ? मनुष्य मर्यादा-हीन होकर जितने भी पैर फैलाता जाएगा, उतनी ही अपने लिए भी और दूपरों के लिए भी अशान्ति बढ़ाता जाएगा । तुमने देखा है, अग्नि में ज्यों-ज्यों घास-फूस और लकड़ी डालते जाते हैं, वह त्यों-त्यों अधिकाधिक बढ़ती जाती है । क्या कभी अधिक-से-अथिक लकड़ी पाकर आग की भूख बुझी है ? मन की भी यही दशा है । उसकी जितनी इच्छाएँ पूरी करो, वह उतनी ही और बढ़ती चली जाएँगी। मन बिना तट की झील है । किनारा हो तो एक दिन उसके भरने का स्वप्न भी पूरा हो जाए। जिसका कि नारा ही नहीं, भला, वह कब भरेगा? भगवान महावीर ने कहा है-“सोने चाँदी के लाखों पहाड़ भी लोभी मनुष्य के मन को संतुष्ट नहीं कर सकते । इच्छा आकाश के समान अनन्त हैं, न वह कभी भरी है और न कभी भर सकेगी।" अतः इस प्रकार ज्यों-ज्यों लाभ होगा त्यों त्यों लोभ बढ़ेगा । लाभ और लोभ की दौड़ में मनुष्य हारता है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : आदर्श कन्या सच्चा सुख कहाँ है ? सुख-शान्ति का सच्चा मार्ग अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को कम रखने में है । जिसको जितनी इच्छाएं कम होंगी, वह उतना ही अधिक सुखी और शान्त रह सकेगा । भगवान् महावीर का अपरिग्रहवाद यही कहता है । मनुष्य को चाहिए, कि वह अपना रहनसहन सोधा-साधा बनाए । सीधा-साधा रहन-सहन सुख-शान्ति का मुल है । सोधे-सादे रहन-सहन का अर्थ है--वे कम से कम आवश्यकताएँ, जो साधारण-से-साधारण अवस्था में भी भली-भाँति पूर्ण हो सके । आवश्यकताओं को कम करना ही सच्चा सुख है। सर्व-प्रथम भोजन को आवश्यकता पर नियन्त्रण करने की जरूरत है। बहुत से लोग चटपटे और मशालेदार भोजन करने के आदो हो जाते हैं। यदि उनके भोजन में खटाई, मिर्च और मशाले न पड़े हों, तो फिर उनसे भोजन हो नहीं दिया जाता। वे लाग पेट कलर भाजन नहीं करते, वरन् जीभ के लिए भाजन करते हैं । कभो-कभी तो भोजन के पाछे घर में लड़ाई भी हो जाया करती है। यह भी क्या जिन्दगी है कि मनुष्य कभी कड़ी तो, कभी नरम दो रोटियों के लिए लड़े और एक दूसरे को भलाबुरा कहें। भोजन के लिए जीवन : तुम्हें याद रखना चाहिए कि खटाई और मिर्च-मशालेदार भोजन नाना प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। दूषित भोजन से आखें कमजोर हो जाती हैं । मेदा बिगड़ जाता है। शरीर हर वक्त रोगी रहने लगता है । भोजन तो शरीर को स्वस्थ और सबल रखने के लिए है, ताकि स्वस्थ शरीर के द्वारा धर्म-साधना भली-भाँति विवेक पूर्वक की जा सके । बाजार को चाटें स्वास्थ्य को चट कर जातो Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह आवश्यक क्यों ? : २६ हैं, और मिठाइयों का चटोरपन तो बड़ा ही खराब है । लोग इस खाने-पीने की चीजों के फेर में पड़ जाते है, वे हर तरह से बर्वाद हो जाते हैं । उनका सारा जीवन खाने की धुन में ही समाप्त हो जाता है । मानव जीवन का कोई भी महत्वपूर्ण काम उनसे नहीं हो पाता । क्या न्योता खाने वाले मथुरा के पंडों को तुमने नहीं देखा ? वे सिवाय भोजन करने के और किसी काम के नहीं रहते अतः हमारा जीवन भोजन के लिए नहीं है, अपितु जीवन के लिए. प्रोजन है । -नारी के चिन्ह : तुम भारत की देवियाँ हो, आगे चलकर तुम्हें अपने घर में गृहलक्ष्मी बनना है । भोजन के चटपटेपन के फेर में पड़कर तुम सच्ची ह-लक्ष्मी नहीं बन सकती । भोजन में हमेशा सादगी का ध्यान खो। घर में जैसा भी रूखा-सूखा भोजन बना हो, प्रसन्नता के साथ उपयोग में लाओ । साधारण भोजन पाकर नाक-भौंह चढ़ाना अच्छी त नहीं है । इस प्रकार अन्न का अपमान होता है। किसी दूसरे के हाँ भोजन करने जाओ जो जैसा भी मिले आनन्द पूर्वक उपयोग में आओ याद रखो, जो कभी किसी के भोजन की निन्दा और नुक्ता नी करता है, वह कभी आध्यात्मिक दृष्टि से ऊँचा नहीं उठ कता । भगवान् महावीर ने 'भक्त कथा' करना पाप बतलाया है क-कथा का अर्थ है - "भोजन की अच्छाई और बुराई के निर्णय के ए स्वाद की दृष्टि से नुक्ता चीनी करना ।" भोजन में हर प्रकार सादगी का नियम रखना, सु-नारी का सर्व प्रथम चिन्ह है । | किस लिए हैं : दूसरा नम्बर वस्त्रों का है । वस्त्रों में जितनी सादगी रखोगे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : आदर्श कन्या उतनी ही तुम सुखी रहोगी। बहुत से घरों में सुन्दर ओर मूल्यवान वस्त्रों के लिए स्त्रियां कलह मचाया करती हैं। वे सदा अपने घर के लोगों की तड़क-भड़कदार रेशमा और चटकीले वस्त्र। को खरीदने के लिए मजबूर किया करती हैं। न स्वयं चैन से रहती हैं न दूसरों को ही चैन लेने देतो हैं तो फिर भला, कलह के सिवाय और क्या होना है ? ___ तुम पढ़ी-लिखो विदुषी हो तुम्हें बहुत कीमती और तड़क 'भड़कदार कपड़ो के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। क्या बनारसी साड़ी के बिना गुजारा नहीं हो सकता? क्या पापलीन ही तुम्हें सुन्दा बनाएगी? क्या नाइलोन और टेरालीन ही तुम्हारी सुन्दरता बढ़ा एगी। क्या रेशमी वस्त्रों के बिना तुम जनता की आँखों में ही समझी जाओगा? यह बहुत हत्का ख्याल है। इसे जितना भी शोघ्रत से त्याग सको, त्याग दो । मनुष्य का वास्तविक गौरव उसके अक गणों पर है । यदि गुण है, तो सादे खद्दर के वस्त्र पहन कर मनुष्य उचित आदर पा सकता है और यदि गुण नहीं है, तो रेशा वस्त्र पहनकर कपड़ों की गुड़ियाँ मात्र ही बन जाआगो, और क्या बल्कि कभी-कभी तो यह हँसा ओर मजाक का कारण बन जाती है वस्त्र तो केवल शरीर को सदों-गमों से बचाने के लिए तथा लज निवारण के लिए पहने जाते हैं, न कि दूसरों का अपनी तड़क-भड़ दिखाने के लिए। कर्मठ जोवन का चिन्ह : वस्त्र मोटे और खद्दर के ही क्यों न हों परन्तु वे होने चाहिए साफ और सुथरे । सौन्दर्य कोमती वस्त्रों में नहीं है वह है, वर की स्वच्छता और पवित्रता में । भारतीय स्वतन्त्रता के युद्ध हजारों ऊँचे घरों की देवियों ने साधारण खद्दर के वस्त्र पहन । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह मावश्यक क्यों : ३१ सत्याग्रह में भाग लिया था । तुम देखती हो-उनकी कितनी प्रतिष्ठा हुई है । जैन धर्म तो सोधे-सादे वस्त्रों के परिधान को ही कर्मठ जीवन का पवित्र चिन्ह समझता है । सुख त्याग में है : अपरिग्रह का सच्चा मादर्श तो जीवन की प्रत्येक सासारिक आवश्यकताओं में अपने को सामित करना है । क्या गहने, क्या धन, क्या मकान, क्या नौकर-चाकर, क्या ताँगा-मोटर, क्या वस्त्र, सर्वत्र बहुत कम इच्छाएं रखना । बिल्कुल सादगो के साथ जीवन बिताना ही अपरिग्रहवाद का उच्च आदर्श है । जैन धर्म का यह अपरिग्रहवाद हो तो संसार में स्थायी शान्ति का शिलान्यास करने वाला है। जितनो इच्छाएं कम होंगी, उतनी हा मांग कम होंगी। जितनी माँगें कम होंगी, उतनी ही उनकी पूर्ति के लिए चालबाजियाँ कम हांगो, आर जितको चालबाजियां कम हांगी, जोवन उतना ही सरस, सरल, एक-दूसरे का विश्वासी होगा और जहाँ ऐसा जीवन होगा, वहाँ मानव-एकता अपने आप विस्तृत रूप धारण कर लेगी। जैन-धर्म का यह नारा कभी असत्य नहीं हो सकता. कि "सुख त्याग में है।" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी के जीवन को आदर्श-जीवन बनाने वाले सद्गुणों का चित्रण पढ़िये ! - - - - आदर्श नारी कौन ? जो सौन्दर्य को नहीं, शील की उपासिका हो, जिसको साज शृगार से नहीं, स स्वच्छता से प्रेम हो, - वही आदर्श नारी है। त्याग की अखण्ड ज्वाल! और सेवा की भावना जिसके जोवन के, कण-कण में, ओत-प्रोत हो, -वही आदर्श नारी है - - मन पर, वचन पर, तन पर, जिसका कठोर नियन्त्रण हो, जिसके शरीर के कण-कण पर सदाचार का अखण्ड तेज झल'कता हो, -वही आदर्श नारी है। जिसके हृदय-कमल में, दया का अमृत हो, जिसके मुख कमल' में, मधुर सत्य का अमृत हो, जिसके कोमल कर कमल में दान का अमृत अखण्ड धारा से प्रवाहित हो; -वही आदर्श नारी है। जो प्रेम और स्नेह की जीवित मूर्ति, मधुरता की शीतल गंगा, | जो वज्र से भो कठोर | और कूल से भी कोमल हो. जो विपत्ति में बन बनकर और | सम्पत्ति में फूल बनकर, al ___ ww Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श नारी कौन ? ३३ दर्शन देती हो, धीरता और कोमलता का यह अभिनय संगम, जहाँ हो --वही आदर्श नारी है पाखंड के भ्रम में फंसकर, जो देवी-देवताओं के, नाम पर, जहाँ-तहाँ ईंट-पत्थर, पूजती न फिरतो हो, जिसके एकमात्र, श्री वीतराग अरिहन्त देव ही सत्य भगवान हो, आराध्य देव हो, जिसको अपने सत्कर्म, और सदाचार पर, अखण्ड विश्वास हो, -वही आदर्श नारी है ! जब बोले, बहुत थोड़ा बोले परन्तु उसी में, सरसअमृत बरसा दे ! जिसकी वाणी के, अक्षर-अमर में, प्रेम और स्नेह का सागर नमडे, क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या छोटे, क्या बड़े, क्या अपने, क्या पराये, जो सब पर, अपने मधुर परिचय को, अखण्ड अमिट, छाप डाल दे, -वही आदर्श नारी है। जीवन और मरण, जिसके लिए खेल हो, स्वप्न में भी जिसक, भय का स्पर्श न हो, स्वर्ग का इन्द्र भो, जिसको अपने धर्म से, विवलित न कर सके, तथा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : आदर्श कन्या जो देश, धर्म, और सतीत्व पर, हंस-हंस कर, बलिदान हो सके, -वही आदर्श नारी है ? मादर्श नारी की, प्रतिष्ठा तो, सरलता और, सादगी में ही है ! दीपक की, जगमगाती ज्योति ने, कौन-से, | वस्त्राभूषण पहने हैं ? जीवन में, तेज चाहिए, तेज! जिसका प्रत्येक शब्द, विवेक से अंकित हो ! | जिसका प्रत्येक कार्य, विवेक में परिलक्षित हो। घर की प्रत्येक वस्तु, जिसके विवेक की, चमक का, मूक परिचय दे रही हो, -वही आदर्श नारी है ! Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना प्रकार की अविद्याओं और संकल्प-विकल्पों के अन्धकार म पड़ा मनुष्य, अपने पथ से भूल-भटक जाता है। इस भूल-भुलैया से बचन के लिए मनुष्य को प्रकाश चाहिए। वह "विवेक के दीपक' में है। यह दीपक जीवन के अंधेरे में, घने अंधेरे में, और झुटपुटे में सब जगह काम देगा। विवेक का दीपक जैन-धर्म में विवेक को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है। विवेक धर्म का प्राण है । जहाँ विवेक है, वहाँ धर्म है । जहाँ विवेक नहीं, वहाँ धर्म नहीं । शास्त्रों में विवेक शून्य मनुष्य को पशु के समान बतलाया है । न वह अहिंसा पाल' सकता है, और न सत्य की ही आराधना कर सकता है, तभी तो भगवान् महावीर ने आचारांगसूत्र में कहा है-"धर्म विवेक में है।" पाप से बचने की कला : .. पुत्रियो ? तुम गृहस्थ जीवन में सक्रिय भाग लेने वाली नारी हो। तुम्हें अधिक से अधिक विवेक और विचार से काम लेना चाहिए। घर का प्रत्येक काम विवेक और विचार से करो । विवेक, पाप से बचने की एक महान् कला है। किसी भी काम में प्रमोद और मसावधानी रखना अविवेक का सूचक है। विवेक रखने वालो नारी महस्थी के धन्धों में भी विशेष हिंसा से बच सकती है और कभीकमो तो हिंसा के स्थान में अहिंसा का मार्ग भी खाज निकालती Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : आदर्श कन्या है। भगवान् महावीर ने ऐसे ही विवेक-शील जीवन के सम्बन्ध में कहा है-"विवेकी साधक पाप के साधनों को भी धर्म के साधन बना सकता है, और अविवेकी साधक धर्म के साधनों को भी पाप के साधन बना लेता है।" विवेक का व्यावहारिक रूप : विवेक के लिए सर्ब-प्रथम जल-घर (परेंडा) पर लक्ष्य रखने की मावश्यकता है। पानी के घड़े या कलश बहुत साफ और पवित्र रहने चाहिए । पानी के कलश यदि बराबर न धोये जाएं और यों ही गन्दे पड़े रहे, तो जोवोत्पत्ति होने की सम्भावना है। घढ़ों में पानी बिना छना कभी नहीं भरना चाहिए। बिना छना पानी जन-धर्म की दृष्टि से निषिद्ध है। पानी में अनेक सूक्ष्म जन्तु होते हैं । बिना छाने पानी के उपयोग करने से सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा का पाप होता है। पानी छानते समय यदि कोई जीव निकले तो उनको यों ही नहीं डाल देना चाहिए, प्रत्युत जलाशय आदि के स्थान में ही डालने का विवेक रखना चाहिए। जल-घर का स्थान बिल्कुल साफ रखना चाहिए। जल-घर के पास कूड़ा कचरा और धल रहने से काई हो जाती है। जल घर के ऊपर मकड़ियों के जाले न लगने पाएं, इसके लिए पहले से ही निरन्तर सावधान रहना चाहिए । घड़ों से पानी निकालने का और पानी पोने का पात्र, अलग-अलग होना चाहिए । पानी पीने का पात्र ही घड़े में डाल देना, अविवेक का सूचक है। __ पानी छानने का वस्त्र साफ और जरा मोटा होना चाहिए। बहत से घरों में देखा गया है कि छलना बड़ा गन्दा, फटा हुआ और बहत बारीक होता है । वह छलना केवल नाम मात्र का ही छलना होता है। छलना नित्य प्रति धोकर साफ रक्खो, और उसे यों ही Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक का दीपक : ३७ इधर-उधर न पड़ा रहने दो, एक निश्चित स्थान में रख छोड़ो। पानी छानने के सम्बन्ध में छलने का परिणाम बताते हुए एक धार्मिक आचार्य कहते हैं "कम-से-कम तीस अंगुल लम्बा और तीस अंगुल चौड़ा वस्त्र छानने के लिए उपयुक्त होता है।" पानी ही जीवन है : पानी, प्रकृति की अनमोल वस्तु है। पानी, ससार का जीवन है। गर्मी के दिनों में तुम्हें जब कभी नल से, अव्यवस्था के कारण पानी प्राप्त नहीं होता है, तो कितनो बेचैनी होती है। प्रति वर्ष हजारों जीवन तो, पानी के अभाव में नष्ट हो जाते हैं । अतएव पानी के उपयोग में लापरवाही मत रक्खो पानी को व्यर्थ ही नालो में मत डालो, और न इधर-उधर फर्श पर ही फेंको। ऐसा करने से पानी के जीवों की हिंसा तो होती ही है, और उधर घर में सील बढ़ जाने से अस्वच्छता भी बढ़ जाता है। विवेक का प्रथम चरण : घर के दरवाजे के आगे, गन्दा मत रखो । बहुत से घर ऐसे देखे हैं जिनके दरवाजे पर कुरडी-की-सी गन्दगी होतो है - जूठन, मल-मूत्र, कूड़ा-करकट-सब दरवाजे पर जमा कर दिया जाता है। यह कितना भद्दा और अविवेक का काम है ! इससे घर के आगे दुर्गन्ध रहती है, आने-जाने वाले लाग घृणा करते है और जीवोत्पत्ति होने के कारण जीवों की जो व्यर्थ हिंसा होती है; वह अलग । अस्तु, किसी एकान्त स्थान में ही कूड़ा वगैरह यतना से डालने का ध्यान रखना चाहिए। विवेक का द्वितीय चरण : भोजन बनाते समय भी विवेक की बड़ी आवश्यकता है । आटा बहुत दिनों का नहीं होना चाहिए । आटा बहुत दिन रखने से सड़ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : आदर्श कन्या जाता है, और उसमें जीव पड़ जाते हैं। इस प्रकार वह जीव हिंसा का भी कारण होता है और स्वास्थ्य का नाश भी करता है । सागभाजी भी देखकर काम में लानी चाहिए। सड़ी हुई साग-भाजी में भी जीव पड़ जाते हैं । चूल्हे में पड़ी हुई आग के लिए बड़ी यतना की आवश्यकता है । भूल से यदि कभी यतना नही की जाती है, तो कभी-कभी बड़ा अनर्थ हो जाता है, घर-का-घर भस्म हो जाता है। कितनी भयंकर हिंसा होती है, उस अवस्था में ? जलाने के लिए लकड़ियाँ अच्छी तरह देख भाल कर लेनी चाहिए। जो लकड़ियाँ सड़ी हुई गोली होती हैं, उनमें घुन पड़ जाते हैं। और बिना विचारे लकड़ी जलाने से उन जीवों के लिए तो होली दी हो जाती है । लकड़ियाँ झाड कर ! तथा उलट-पलट कर देखो। कहीं ऐसा न हो, कि कोई जीव-जन्तु लकड़ियों के साथ आग में भस्म हो जाय । लकड़ियाँ आवश्यकता से अधिक नहीं जलानी चाहिए। यह भी विवेक ही है: घर में घी, तेल, पानी आदि के पात्र कभी खुले मत रक्खो। घी आदि के पात्र खुले रहने से जीवों के गिर जाने की सम्भावना हैं । अतएव भूलकर भी उघाड़े बर्तन न रखने चाहिए । अन्न के संसर्ग वाले जूठन के पानी को भी मोरी में डालने से जीवोत्पत्ति होती है, दुर्गन्ध बढ़ती है और इससे जनता के स्वास्थ्य को भी बहुत हानि पहुँचती है। __ बासी भोजन करने की इच्छा कभी मत करो । बासी अन्न खाने से अनेक रोग हो जाते हैं, और बुद्धि मन्द पड़ जाती है । यदि बासी अन्न अधिक काल का हुआ तो जीव-हिंसा का पाप भी लगता हैं । बहुत सी बहिनें इधर-उधर से आई हुई मिठाई जमा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विबेक का दीपक : ३६ करती जाती हैं । यह आदत ठीक नहीं है । अधिक दिनों तक मिठाई खाने से त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा होती है-इससे पाप लगता है और रोग भी हो जाते हैं । एक जैनाचार्य का उपदेश है.-"सर्दी में एक महीना, गर्मी में बीस दिन और चोमासा में पन्द्रह दिन से अधिक दिनों की मिठाई नहीं खानी चाहिए।" अतएव जब भोजन वगैरह बच जाय, तो उसे ठीक समय पर खुद काम में ले लेना चाहिए, अथवा किसी गरीब अनाथ को दे देना चाहिए। बासी भोजन करने के विचार से उसे व्यर्थ ही घर में नहीं सड़ाना चाहिए। इस छोटे काम में भी विवेक है : घर में झाड़ देने के लिए झाड़-बुहारी बहत कोमल सन आदि की रखनी चाहिए । क्योंकि कोमल-हृदया नारी को तो प्रत्येक कार्य कोमल भाव तन्तुओं को जोडकर ही करना चाहिए, यों ही बेगार टालने के लिए अगर झाड लगाई जाती है, तो यह स्पष्ट है, कि तुम्हारे हृदय में प्रत्येक प्राणी से अनुराग नहीं है तथा जीव दया के प्रति लापरवाही है, जबकि प्राणी मात्र पर अनुकम्पा होना मनुष्य का पहला धर्म है । यह छोटा कार्य भी विवेक के अन्तर्गत है। __अधिक क्या, घर का प्रत्येक कार्य विवेक और विचार से हो होना चाहिए । नहाना धोना, झाड़ना-पोंछना आदि सब काम यदि विवेक से किए जाएँ, तो सहज ही जीव-हिंसा से बचाव हो सकता है। जैन-धर्म विवेक में है। जिसमें जितना अधिक विवेक होगा वह उतना ही जैनत्व के अधिक निकट होगा। नारी-जीवन में कद पः कदम पर विवेक की आवश्यकता है। विवेकवतो नारी घर को स्वर्ग बना देती है और अपने लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है । भगवान महावीर का उच्च आदर्श विवेकी जीवन ही प्राप्त कर सकता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख का कोई भी सामान जुटाना हो, पैसा देने को हाथ पहले बढ़ाना पड़ेगा । कुछ न कुछ व्यय होता हैं । अपना जाता है तब कुछ सामने आता है । व्यय हो जाने में विवशता जाहिर है। व्यय किया जाए-पर विचार पूर्वक इसमें वृद्धि का योग होना चाहिए। वस्तु-व्यय पद्धति यदि देखा जाय तो घर को वास्तविक स्वामिनी स्त्री है। गृहस्थी चलाने का भार अधिकतर स्त्रियों पर ही रहता है । इसलिए प्रत्येक स्त्री का कर्तव्य है, कि वह घर के हर एक खर्च में पैसा बचाने का प्रयत्न करे। स्त्री चाहे तो घर को उजाड दे, और चाहे तो घर को भरा-पूरा भी बना दे, यह उसके हाथ को साधारण सी बात है। यदि स्त्री समझदार होगी, यदि वह निरर्थक खर्च न कर बहुत सोच-समझकर काम करेगी, तो उसका घर थोड़ी-सी आमदनी में भी पूरा रहेगा। वह किसी भी चीज को व्यर्थ नष्ट न करेगी। अन्न का एक-एक दाना और वस्त्र का एक-एक धागा भी वह सावधानी से बचाकर काम में लाएगी। जैन-धर्म में इसे यतना कहा है। जैन-धर्म पानी तक के अनावश्यक खर्च का दोष मानता है । जैन-धर्म में गृहस्थी का आदर्श है, कि "आवश्यकता होने पर अति लोभ न करो, और आवश्यकता न होने पर अति उदार होकर वस्तू का अपव्यय भी न करो।" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु व्यय पद्धति : ४.१ बारी गृह लक्ष्मी है : मितव्ययी और परिश्रमी चतुर स्त्रियों को कभी दरिद्रता का सामना नहीं करना पड़ता है । वे निर्धन अवस्था में भी सुखी और भरी-पूरी दिखाई देती हैं। उन्हें धन सम्बन्धी प्राय: कोई भी आपत्ति नहीं सताती । कभी-कभी तो वे अपनी बचाई हुई सम्पत्ति से संकट काल में पति के व्यापार तक में सहायता पहुँचा देती हैं । इसी भावना को लक्ष्य में रखकर भारत के कवियों ने स्त्री को गृह-लक्ष्मी कहा है । 1 बर्च और गृह व्यवस्था : बहुत-सी लड़कियाँ बड़ी खर्चीली प्रकृति की होती हैं । वे कम खर्च करना तो जानती ही नहीं। क्या भोजन, क्या वस्त्र - सभी में खर्च का तूफान खड़ा कर देती हैं । प्रायः देखा जाता है, कि लड़कियाँ किसी भी सुन्दर वस्तु को देखते ही उसको खरीद लेना चाहती हैं । वे इस बात का ध्यान नहीं रखतीं, कि इस वक्तु की जरूरत भी है या नहीं है ? किसी चीज को खरीदने का कारण उसकी सुन्दरता नहीं है, किन्तु उसकी उपयोगिता और विशेषकर अपनी आवश्यकता है । अस्तु जिस वस्तु की जरूरत नहीं है, उसे कदापि मत खरीदो । यह फिजूल खर्च की जो आदत है, वह आगे चलकर तंग करती है । I भगवान् महावीर के समय में जैन श्रावक और श्राविकाओं की गृह-व्यवस्था की पद्धति बड़ी सुन्दर था । वे लोग खर्चीलो आदत के गुलाम नहीं थे । बहुत विचार पूर्वक गृहस्थ-जोवन चलाते थे । वे अपने धन के वार भाग करते थे, इसमें से एक भाग कोष में जमा करके रखा जाता था, ताकि किसी समय पर काम आ सके । तुम भा आमदनी का चोया भाग अलग जमा रक्खा, उस अपन नित्यत्रति के खच में मत लाओ, क्योकि कभी-कभी घर में अचानक हा ऐसा काम आ जाता है, जिससे पैसा खर्च करने का अत्यधिक आवश्यकता हाता Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : आदः कन्या है। उसके लिए यदि तुम पहले से तैयार न होगी, तो समय पड़ने पर बड़ी हानि उठानी पड़ेगी। सास से बढ़कर बहू : . बहुत-सी लड़कियों में सुघड़पन नहीं होता वे लापरवाही से उपयोगी वस्तुओं को जल्दी खराब करके फेंक देती हैं । खाने-पीने आदि की सामग्री में भी किफायत से काम नहीं लेती । एक सेठ के यहाँ की बात है, कि सास फहड़पन से भोजन में अधिक खर्च करती थी। और तो क्या, नमक भी प्रतिदिन यों ही इधर-उधर बेपरवाही से ज्यादा डाल दिया करती, अतः व्यर्थ ही नष्ट हो जाता था। घर में बहू आई । परन्तु वह थी चतुर, गृह कार्य में सास से बढ़कर, तो उसने मितव्ययिता की दृष्टि से नमक का ही संग्रह करना शुरू किया। साल भर में उस बचाए हए नमक की कीमत पांच रुपये हुए । घर वाले अपने अपव्यय को जानकर आश्चर्य चरित हो गये। पुत्रियो ! तुम्हें घर गृहस्थी चलाने के लिए उस बहू जैसा आदर्श पकड़ना चाहिए । किसी भी चीज को लापरवाही से खर्च मत करो, और व्यर्थ ही इधर-उधर चीजें डालकर नष्ट भी न करो। प्रकृति का भंडार नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए नहीं है, उपयोग करने के लिए है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 प्रत्येक नारी में सीता, द्रोपदी तथा लक्ष्मी और दुर्गा का प्रतिबिम्ब है, अपने आत्म गौरव को समझने के लिए यह निबन्ध पढ़िए........! आत्म-गौरव का भाव मनुष्य मात्र में आत्म-गौरव का भाव होना अतीव आवश्यक है। जिस मनुष्य में आत्म-गौरव नहीं, वह मनुष्य, मनुष्य नहीं पशु है। मात्म-गौरव का अर्थ है-"अपने प्रति अपना आदर ।" विशेष व्याख्या में उतरा जाय, तो कहा जा सकता है कि अपने को तुच्छ मौर हीन न समझना, आत्म-गौरव है।" पुत्रियो ! तुम स्वप्न में भी अपना आत्म-गौरव मत भूलो, तुम कभी भी अपने को तुच्छ न समझो । तम आत्मा हो, तुम में अनन्त शक्ति छुपी हुई है । तुम भूमण्डल पर किस बात में कम हो? तुम्हारे अन्दर अपना और दूसरों का कल्याण करने वाली महती शक्ति निवास करती है। प्रत्येक नारी सीता है : - तुम सीता और द्रौपदी की बहिन हो । पता है, आज संसार में सीता और द्रौपदी का क्यों महत्व है ? हजारों लोग प्रतिदिन इनके माम की माला जपते हैं । सीता की महत्ता तो इतनी बढ़-चढ़ कर है कि, राम से पहले सीता का नाम लिया जाता है । तुमने सुना होगा, लोग 'सीता-राम' कहते हैं, न कि "राम-सीता' । सीता को इतना महत्व क्यों प्राप्त हुआ? इसलिए कि वह अपना आत्म गौरव नहीं भूली थी । वन में जाते समय उसे कितना डराया गया? परन्तु वह संकट सहने के लिए प्रसन्न मन से तैयार हो गई। उसने कहा-"जब पतिदेव संकट सहन कर सकेंगे, तो मैं क्यों न सहन कर सकेंगी ? मैं क्या मोम की पुतली हूं, जो धूप लगते ही Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : आदर्श कन्या पिघल जाऊगी ।” पुत्रियों ! तुम भी किसी से कम नहीं हो । "भी संकटों से जूझ कर उन पर विजय प्राप्त कर सकती हो। जि जाति में लक्ष्मी और दुर्गा जैसी नारियाँ हुई हैं, वह जाति हीन कि प्रकार हो सकती है ?" अतः प्रत्येक नारी में सीता का बीज है, अंकुरित करने की आवश्यकता है । हीन भावना पाप है : खेद है, कि नारी जाति ने अपना आत्म गौरव भुला दिया है। सदियों से उसे यह सिखाया गया है, कि "नारी तो कुछ कर ही नह सकती ।' तुम्हें यह गलत संस्कार अपने मन से निकाल देना चाहिए जैन-धर्म नारी जाति के महत्व को बहुत ऊँचा मानता है। वह कहत है कि - " पुरुष के बराबर ही स्त्री जाति की भी प्रतिष्ठा है। गृहस्थ धर्म की गाड़ी के दोनों पहियों में किसका महत्व कम है, औ किसका अधिक है ? स्त्री भी पुरुष के समान ही केवल ज्ञान पाक सर्वज्ञ पद पा सकती है । मोक्ष में पहुँचकर परमात्मा भी हो सकती है ? " तुम जैन हो । बस, तुम्हें तो अपने आपको हीन समझना ह न चाहिए। वह जैन ही क्या, जो उत्साह के साथ विजय पथ प अग्रसर न हो अपने मन में हीनभाव लाना पाप है । हीनता नहीं वीरता धर्म है । जिस मनुष्य ने अपने आपको गिरा लिया है, जिसने यह सम लिया है कि -- मैं तुच्छ हूँ, मेरा क्या हो सकता है ? उसने स्व ही अपने अनन्त आत्म बल की जानबूझ कर हत्या करली है । या संसार का अटल नियम है, कि जिस मनुष्य का मन सब ओर दीन-हीन बन चुका है, वह धन, जन, विद्या आदि में चाहे कितना क्यों न बढ़ा-चढ़ा हो, कभी कोई साहसपूर्ण व कल्याणकारी का नहीं कर सकता ! जो चाहो सो बनो : जब तक तुम अपने दोनों पैरों को स्थिर रखती हो, तभी व Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-गौरव का भाव : ४५ बड़ा रह सकती हो । यदि पैरों को थर थरा दो, तो शीघ्र ही गिर कर जमीन पर आ जाओगी। इसी तरह, जिसने अपने आपको हल्का समझ लिया है, उसकी सब क्रियायें हल्की ही होती हैं। और जो यह समझती हैं, कि हम सब कुछ हैं हम बहुत कुछ कर सकती है. उसकी सब क्रियाएं पूर्णतया सफल होती हैं । अपने को हीन समझने वाला हीन हो जाता है और अपने आपको महान समझने वाला महान् । मनुष्य का निर्माण उसके अपने विचारों के अनुसार ही होता है, अतः वह जो चाहे जैसा चाहे बन सकता है। हम सब कुछ हैं : इसका यह अभिप्राय नहीं है, कि तुम अहंकार करने लगो, अपने को रानी महारानी मान बैठो । बल्कि इसका अर्थ यह है, कि तुम अपने को कठिन से कठिन कार्य को कर डालने की शक्ति रखने वाली आत्मा समझो। तुम्हारा हृदय उपजाऊ भूमि की तरह है, उस पर सदा गौरव और उत्साह के फलप्रद बीज बोओ। विद्या लाभ करने में अपनी बहुत ऊंची तथा अग्रशील दृष्टि रक्खो । अच्छा काम चाहे कितना ही कठिन क्यों न हो, उसको पूरा करने का अपने मन में अदम्य साहस रक्खो। तुम छोटी हो तो क्या है ? तुम्हारा लक्ष्य और तदनुकूल साहस, छोटा नहीं होना चाहिए । इस संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे पहले हम तुम जैसे साधारण मनुष्य ही तो थे । परन्तु आत्म बल को बढ़ाने के कारण ही वे संसार में अजर अमर पद प्राप्त कर महान् हो गए हैं। तुम सब कुछ हो। पारी पुत्रियो ! तुम भी सब कुछ हो, जरा अपने आत्म-बलः Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : आदर्श कन्या से काम लो। अपने को हीन न समझो, अपने गौरव में विश्वास रखो। संसार में कौन-सा ऐसा कठिन काम है, जिसे तुम नहीं कर सकती हो। इसके लिए और कुछ नहीं, बस अपने करने योग्य कामों को खूब लगन और परिश्रम से करना सीखो। बचपन में गुड़िया से खेलने, और बड़ी होने पर थोड़े-बहुत घर के धन्धे कर लेने में ही अपने उच्च नारी जीवन के गौरव को नष्ट मत करो। तुम अपने को बड़े-बड़े धार्मिक और लौकिक कार्य करने के योग्य बनाओ हिम्मत मत हारो । सब कुछ अच्छे काम करने के योग्य बन जाओगी। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक विचारक को यह स्वी कार है कि व्यवस्थित कार्य, व्यवस्थित बुद्धि का प्रतोक है। तुम अपने आपको बुद्धिमति सावित करना चाहती हो, तो उसका आसान तरीका इस निबन्ध में मिल जाएगा। व्यवस्था की बुद्धि मानव जीवन में संयत और व्यवस्थित जीवन का बहुत अधिक महत्व है जो भी काम करना हो, वह पूर्ण रूप से व्यवस्थित होना चाहिए । उच्छृखल और अमर्यादित अवस्था में किसी भी काम की कोई भी अच्छी व्यवस्था हो ही नहीं सकती। अवस्था कौशल : नारी का जीवन घर-गृथस्थी की रंग-बिरंगी दुनिया का जीवन है । घर तथा बाहर के बहुत से काम स्त्री को करने होते हैं । घर में छोटी-मोटी सैकड़ों चीजें होती हैं । उन सबकी देख-भाल रखने का भार स्त्री पर होता है । स्त्री यदि चतुर है, तो घर की छोटी से छोटी चीजों को भी आवश्यकतानुसार सम्भाल कर रखती है । और यदि वह मूर्ख होती है, तो फिर घर का कुछ पता नहीं रहता। चन्द दिनों में स्वर्ग-सा समृद्ध घर अव्यवस्थित और उजाड़ हो जाता है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : आदर्श कन्या .. चतुर कौन : .. पुत्रियो ! तुम्हें इस ओर बहुत बारीक लक्ष्य दखना चाहिए। तुम्हारा प्रत्येक कार्य व्यवस्थित और सुरुचिपूर्ण होना चाहिए। घर की प्रत्येक चीज यथास्थान रखनी चाहिए, ताकि जब भी, जिस भी चीज की आवश्यकता हो वह उसी समय मिल जाए । सब वस्तुओं को ठीक ठीक स्थान पर सजाकर रखने से काम में बड़ी सुविधा होती है। जिस घर में इस बात का ध्यान नहीं, वहाँ घर वालों को बड़ा कष्ट होता है। ___कौन सी चीज कहाँ रखने से कार्य में सुविधा होगी, जिस चीज की बहुत जरूरत रहती है, कौन चीज कब काम में आती है, इत्यादि बातों पर ध्यान रखकर जो स्त्री घर की चीजों को यथास्थान रखने का प्रयत्न करती है, वह चतुर स्त्री कहलाती है। व्यवस्थित बुद्धि : - कौन चीज कहाँ रखी हुई है, इस बात का स्मरण रखना अति आवश्यक है । एक चीज यहाँ पड़ी है, तो दूसरी वहाँ। एक ही चीज कल एक स्थान पर पड़ी थी, तो आज वह दूसरी ही जगह पड़ी है, और कल या परसों वहाँ भी नहीं है, इस तरह की अव्यवस्था से बड़ी हानि होती है । इसके अतिरिक्त वश्नु खोजने में एक तो श्रम बहुत अधिक करना पड़ता है, और साथ ही आवश्यक काम भी बिगड़ जाता है । यदि आवश्यकतानुसार समय पर चीज न मिले तो बताइए फिर उस चीज के संग्रह करने से लाभ ही क्या है ? अव्यवस्थित बुद्धि से कभी कार्य नहीं करना चाहिए। झंझट क्यों बढ़ती है : __ एक घर में एक बार किसी छोटे लड़के को बरं ने डंक मार दिया। उस समय घाव पर दियासलाई रगड़ने की जरूरत पड़ी। ढूढ़ते ढूढ़ते सारा घर हैरान हैं, पर दियासलाई का कहीं पता नहीं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था की बुद्धि : ४६ इधर लड़का चिल्ला रहा है, उधर घर की सब स्त्रियाँ दियासलाई ढूंढने में लगी हैं। चिल्लाते हुए लड़के के पास कोई यह भी कहने को नहीं है कि बेटे ! चुप रहो, अभी अच्छे हो जाओगे।" स्त्रियां आपस में झगड़ती हैं, एक-दूसरे पर गजंती हैं चिल्लाती हैं, परन्तु इससे लाभ कुछ भी नहीं। एक छोटी-सी बात के लिए लोग इतने हैरान हैं, कि कुछ कहा नहीं जा सकता । कोई पूछे तो उत्तर भो क्या दें, कि दियासलाई नहीं मिलती। यदि पहले से ही सावधानी के साथ दियासलाई रक्खी गई होती, यदि दियासलाई रखने के लिए कोई स्थान नियत होता, तो इतनो झंझट क्यों बढ़ती? स्थान निश्चित कीजिए? जिस घर में सब चीजों को रखने के लिए अलग-अलग स्थान नियत है, वहाँ झट-पट यह मालूम हो जाता है, कि कौन-सी चीज घर में है, और कौन-सी चीज नहीं है ? कौन चोज बाजार से मंगानी है और क्या नहीं। जहाँ यह व्यवस्था नहीं होतो, वहाँ बहुत बुरा परिणाम होता है । कितनी ही चीजें बार-बार मंगाकर अधिक से अधिक संख्या में भरलो जाती हैं और कितनो ही जरूरी काम की चोजें एक भी आने नहीं पाती। घर क्या, कंजड़ी का गल्ला हो जाता है। इस प्रकार के निपट अँधेरे में धन का कितना अधिक अपव्यय होता है ? जरा विचार खो कीजिए ? इसलिए मैं कहता हूँ. कि तुम चीजों के रख रखाने में बहत अधिक बुद्धि और स्फति रक्छो । सब चीजों को ठीक-ठीक स्थान पर रखने का प्रयत्न करो। अपने कपड़े-लते, गहने आदि की बातों में भी यही व्यवस्था रखनी चाहिए। अधिक क्या, खाने-पीने, सोने, बोलने, उठने-बैठने, अादि सभी कामों में संगम और व्यवस्थित होने की आवश्यकता है। मन को हमेशा सुलझा हुआ एकाग्र रखना चाहिए। मन कहीं है, चीज कहीं रख रही है, यह अपवस्या पैदा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : आदर्श कन्या करने वाली आदत है। जो काम मनोयोग पूर्वक किया जाएगा, वहाँ यह झंझट कदापि पैदा नहीं होगा। उद्बोधन : अव्यवस्था हटाओ। प्रत्येक कार्य में व्यवस्था और सुरुचि का परिचय दो। ये बातें ऊपर से साधारण-सी दीखती हैं, परन्तु भविष्य में ये ही जीवन निर्माण किया करती हैं। देखना, तुम्हारी अव्यवस्थित बुद्धि पर किसी को यह कहने का अवसर न मिले कि-"थाली खो जाने पर घड़े में ढूंढ़ी जाती है ।" कम-से-कम अपने घर की चोजों के लिए तो तुम्हें सर्वज्ञ होना चाहिए। तुम सरस्वती हो अतः इतनी भुलक्कड़ और अव्यवस्थित मत बनो ! Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील-स्वभाव, यह वह मन्त्र है, जिसके द्वारा इतिहास में अनेकों व्यक्तियों ने दूसरों को अपना बना लिया। इस मन्त्र को ऐतिहासिक महापुरुषों तक सीमित क्यों रहने दिया जाय ? जीवन में इसका प्रयोग करके देखिए। शील-स्वभाव शील-स्व माव, कोमल और शान्त प्रकृति को कहते हैं। इससे बढ़कर मनुष्य का कोई दूसरा सुन्दर भूषण नहीं हैं । कहा है- 'शील विरं भूषणम् ।' कोमल और शान्त प्रकृति दूसरे लोगों पर तुरन्त ही अपना प्रभाव डालती है। घमण्डी आदमी भी शील स्वभाव के सामने अपना मस्तक झुका देता है। शील-स्वभाव मनुष्य की उदारता और उच्च भावनाओं को सूचित करने वाला एक उज्ज्वल प्रतीक है। वशीकरण मंत्र : - शील-स्वभाव बड़ा अच्छा वशीकरण मंत्र है। शीलवान राह चलते भोगों को अपना मित्र बना लेता है। वह घर और बाहर भर्वत्र प्रेम एवं आदर पाता है। श्री रामचन्द्र जी को वनवास में अज्ञान वानर जाति ने क्यों सहायता दो ? वानर जाति के लाखों बोर, क्यों अपने आप रावण के विरूद्ध युद्ध में मरने को तैयार हो गए ? उiका स्वयं का क्या स्वार्थ था? रामचन्द्र जी के एकमात्र शील-स्वभाव ने ही तो उन्हें मोह लिया था। युधिष्ठर आदि पाँचों पांडवों में क्या विशेषता थी, जो भीष्म ने अपने मरने का उपाय भो उन्हें महाभारत के युद्ध में बता दिया ? श्रीकृष्ण अर्जुन का Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : आदर्श कन्या' रथ हाँकने को क्यों तैयार हुए। यह सब पांडवों के शील स्वभा का प्रभाव था । शीलवती कन्यायें : प्यारी पत्रियो ! तुम्हें शील-स्वभाव का सच्चे हृदय मे आद करना चाहिए। शीलवती कन्याओं पर माता, पिता, भाई, बह आदि का बहुत अधिक प्रेम होता है । जो कन्याएँ शीलवती हैं, क्रो और घमण्ड से दूर रहती हैं, कोमल हैं, मृदुल हैं, नम्र हैं, मिलनसा - उनका क्या घर और क्या बाहर सर्वत्र आदर होता है, साथ क सहेलियों में भी प्रतिष्ठा होती हैं। पाठशाला में तुम देख सकती कि- यदि धनी घर की लड़की घमंडी है, अकड़कर बोलती है, साथ की लडकियाँ उसका कुछ भी सम्मान नहीं रखतीं । इस विपरीत साधारण घर की लडकी भी अपने कोमल और नम्र स्वभा के कारण सबका प्रेम और आदर प्राप्त कर लेती हैं । सब लड़कि उसके कहने में चलने लगती हैं। संसार में धन का आदर नहीं, शी का आदर है । तुम्हारे पास अच्छे गहने और कपडे हों तो उन्हें पहन इठलाओ नहीं । यथावसर बढिया कपड़े पहन कर भी गम्भीर ब और गरीब लडकियों की कभी हॅमी मत करो । यदि कभी ग लडकियाँ तुमसे मिलें और कुछ पूछें, तो बड़े प्रेम से मिलो, आदर साथ-साथ ठीक-ठीक उत्तर दो। गरीब लड़कियों के साथ तुम जि ही अधिक सहानुभूति रक्खोगी, तुम्हारा उतना ही अधिक आहे सन्मान होगा । क्या न करो जब कोई गरीब घर की लड़की तुम्हारे घर पर आये। उसका सब प्रकार से आदर करो, खाने-पीने के लिए अवश्य पूर्व Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील स्वभाव : ५३ उससे इस प्रकार का प्रश्न कभी मत पूछा कि-"तुम्हारे पास क्या या वस्त्र और गहने हैं ?" तथा अपने वस्त्र और गहनों का भी जिक्र न करो-- "मेरे पास अमुक-अमुक सुन्दर वस्त्र और मूल्यवान पहने हैं ? मैं अब और नये गहने बनवाऊँगी?' इस प्रकार अपने ड़प्पन का प्रदर्शन करने से गरीब लड़कियों के मन में बड़ी पीड़ा होती है। तना बड़ा लाभ है : जब कभी किसी बड़ी-बूढ़ो-स्त्री से मिले, तो हमेशा कोई न कोई दी, ताई, बुआ आदि उचित शब्द प्रयोग किया करो : साथ ही नी' शब्द अवश्य लगाया करा । यदि तुम ननिहाल में हो, ता वहाँ ने अपने से छोटी या बराबर की कन्याओं को बहनजी, तुम्हारा पता की वय बाली हों, तो मौसीजा, नानो की उम्र वाली हा ता नीजी, कहा करो ! वहाँ की छाटी वहू हो ता भाभीजी, और दि बड़ी हो, तो मामीजी आदि आदर सूचक शब्दां से बोला ! भार क्या धोबिन, नाइन और कहारिन आदि स भी इसी प्रकार कोई कोई उचित रिश्ता लगाकर बाला । पुरुषों ने साय भा आने यहा बाजी, चाचाजी, ताऊखी, भाईजी आदि आर ननिहाल में नानाजी, माजी, भाईजी आदि यथायाग्य दर सूचक शब्दों का प्रयोग रो। कोमल और आदर सूचक शब्दों से तुम्हारा कुछ खर्च नहीं ता, और उन लोगों का चित्त प्रपन्न हो जाता है--कितना बड़ा के बनो, नेक बनो। बहुत-सी लड़कियों को बात-बात पर ताने देने और दूसरों को सिने की आदत होती है। यह बहुत खराब आदत है। चाहे कैती क्षिाभ की प्रवस्था हों, मुह से कमो मो गानी नहीं निकालनी हिए और न किसी को कोसना चाहिए। यदि कभी दूसरो लड़को ज्ञानता से तुम्हें या किसी और को गाली दे तो प्रेम से समझाने का Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : आदर्श कन्या प्रयत्न करो । प्रेम से समझाया हुआ व्यक्ति जल्दी ही शान्त होता और अपनी बुरी आदत को छोड़ देता है। कुछ कन्याएँ ऊपर से बड़ी सीधी-सादी मालूम होती हैं, पर अन्दर बड़ा क्रोध करती हैं। अपने को जबान से तो प्रकट नहीं कर परन्त मुंह फुला लेती हैं और उदास होकर चुप हो जाती हैं । यी कोई उनको समझाता है, या बात-चीत करता है, तो उपका उत्त ही नहीं देती। यह आदत बड़ी खराब है, और यह बड़ी होने पर । तंग करेगी। अतः सुशील कन्याओं को इस अवगुण से हमेशात रहना चाहिए। __तुमने देखा होगा, कि बहुत-सी लड़कियों में ताना देने की आद पड़ जाती हैं । लड़के तो क्रोध को मारपीट आदि के रूप में निका डालते हैं, परन्तु लड़कियाँ अपने क्रोध को कटु वचनों और तानों द्वारा प्रकट करती हैं । परन्तु याद रखना चाहिए-कटु व वनों अं तानों का परिणाम वहुत बुरा होता है । बाणों का घाव तो रि जाता है, परन्तु तानों का घाव जन्म भर नहीं मिटता । महाभा के युद्ध का मूल कारण आपस के ताने ही तो थे। अतः तुम्हें चा तुम अच्छी बातों को ग्रहण करो तथा जोवन को, और नेक बनाई सबके साथ प्रेम भाव रखना एक बनना है । और जो मन में हो। वाणी पर भी हो-यह नेक बनना हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 आलस्य मानव जाति का भयंकर शत्रु है। इसने मनुष्य पर हमला कर दिया है । इस शत्रु पर विजय प्राप्त करने की कला इस लेख में सहसा ही मिल जाएगी ! मनुष्य का शत्र : आलस्य आलस्य मानव जाति का सबसे बड़ा भयंकर शत्रु है । आलसी आदमी किसी काम का नहीं रहता । वह न घर का हो काम कर सकता है, और न बाहर का ही । आलसो मनुष्यों की संसार में बड़ी दुर्दशा होती है । आलसियों का हृदय नाना प्रकार की चिन्ताओं का घर बन जाता है । उनके हृदय में अनेक प्रकार को दुर्भावनाओं का विशाक्त प्रवाह निरन्तर बहता रहता है । 1 शरीर काम चाहता है। बिना काम के किये भजबूत से मजबूत शरीर भी दुर्बल हो जाता है और अनेक प्रकार के रोगों का घर बन जाता है । दिन-रात इधर-उधर खाट पर पड़े रहना, काम से जी चराते फिरना, कहाँ की मनुष्यता है ? जो मनुष्य काम नहीं करता है, और खाने के लिए तैयार रहता है, उससे बढ़कर दूसरा और कौन पापी होगा ? एक आचार्य कहते हैं-बिना परिश्रम किये, बिना लोकोपकार का काम किए, जो व्यक्ति व्यर्थ ही परिवार की छाती का भार बनकर खाता है, वह अगले जन्म में अजगर बनता है ।" मालती न बनो : पुत्रियों ! तुम कभी भी आलस्य मत करो - काम से जी न Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : आदर्श कन्या चुराओ । अगर अभी से तुम में यह बुरी आदत पैदा हो गई, तो इसका आगे चलकर बड़ा भयंकर परिणाम होगा । आलस्य के कारण न तुम माता के यहाँ पीहर में आदर पा सकोगी; और न सास के यहाँ ससुराल में । जब भी कभी काम पड़ेगा, तुम बड़बड़ाती झीकती झुंझलाती रहोगी और यह एक नारी के लिए बड़ी घातक बात है । सौभान्य से तुम्हें अगर अच्छे घर में जन्म मिल गया है, मातापिता के पास धन-सम्पत्ति खूब है, काम करने के लिए नौकरनौकरानियां हैं, परन्तु तुम गर्व में आकर अपने हाथ से काम करता फिर भी न छोड़ो । भविष्य का कुछ पता नहीं है, क्या हो ! आज धन है, कल न हो । सम्भव है, ससुराल में जहां जाओ वहां स्थिति ठीक न हो, नौकरों से काम करा कर जी चुराने की आदत डाल लैना, भविष्य में बुरे दिनों में बहुत दुःखदायक हो जाती है । बहुतसी बड़े घरों की स्त्रियाँ रात दिन पलंगों, झूलों और मसन व गद्दों पर ही पड़ी रहा करती हैं । उनका पेट बढ़ जाता है, हाजमा खराब हो जाता है, शरीर दुबल और पीला पड़ जाता है । फिर वे किसी भी परिश्रम के योग्य नहीं रहती. अतः तुम्हें च हिए तुम अलसी न बनो ! प्रेम का भोजन : नारी अन्नपूर्णा कहलाती है। भोजन का सुचार प्रबन्ध करना उसके हाथ की बात है । बहुत-सो धनी घर की लड़कियां भोजन बनाने से जी चुराती हैं। और वे सोचती हैं--जब नोकर या नौकरानी भोजन बनाने वाले हैं, तब हम क्या चूल्हे में जलें - यह मनोवृत्ति बड़ी खराब है। भोजन बनाकर खिलाना, यह प्रत्येक नारी का कर्तव्य है । भला फिर उसमें लज्जा या आलस्य का क्य काम ? भारतीय दृष्टि से वह घर, घर ही नहीं, जिसमें भोजन, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य का शत्रु आलस्य : ५७ गृह दवियाँ न बनाती हों । न स्वयं भोजन बनाना और न परोसना, इससे पारिवारिक प्रेम का अभाव सूचित होता है । यदि गृह-देवियाँ भोजन बनाती हैं, तो उसमें क्या लाभ है - ( १ ) भोजन स्वादिष्ट बनेगा। क्योंकि नारी अपने हाथों से भोजन बनाएगी, तो उसमे अपनत्व होगा ! अपनत्व अपनों को ही हो सकता है, नौकरों को नहीं । (२) भोजन पवित्र होगा - शुद्ध होगा । (३) नारी प्रेम के साथ भोजन परोसेगी, तो उसमें नेसर्गिक रूप से मिठास उत्पन्न हो जाएगी । ( ४ ) नारी स्वयं भोजन बनाएगी, तो गुरुजनो के आ जाने पर उन्हें विधि-पूर्वक गुरु-भक्ति से भाजन दे सकती है । इन सब बातों की अपेक्षा नौकर से नहीं की जा सकती है। नारी भाजन बनाएगी, तो उसके प्रतिफल में पसे की अपेक्षा नहीं करेगी । नारी के द्वारा बनाया गया भोजन, प्रेम का भोजन है । आलाय त्यागो : बहुत-सी लड़कियाँ काम से जी चुराया करती हैं। माता या ओर कोई जब किसी काम के लिए कह देते हैं, तो बड़बड़ाने लगती हैं । कितनी ही बार तो कामा को इसलिए लड़कियाँ बिगाड़ भी देती हैं, कि फिर हमसे कोई काम करने के लिए न कहें, अच्छी लड़कियों का काम तो यही है, कि वे जो भी काम करे, रस लेकर करें, घर के छोटे-मोटे काम को स्वयं कर लेना कुछ बुरा नहीं। इससे बढ़कर और सुख क्या हो सकता है, कि तुम्हें घर की सेवा करने का लाभ मिलता है। काम करना कोई निन्दा की बात नहीं है । सीता और द्रापदी जंसी महारानियाँ भी घर का काम खुद किया करती थीं। तुम्हें भी उन्हीं के कदमों पर चलना चाहिए । घर का कोई भी बड़ा व्यक्ति तुमसे काम करने की कहे, तो सहर्ष उसका कार्य कर दो ! मनुष्यता न खोओ : अन्त में मैं फिर कह देना चाहता हूँ, कि - आलस्य, मानब जाति Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : आदर्श कन्या का सबसे बड़ा भयंकर शत्रु है । आजकल हमारे भारनीय परिवारों में जो अनेक प्रकार के कष्ट तथा रोग दीख पड़ते हैं, उन सबका मूल कारण एक प्रकार से आलस्य ही है। आज घरों में माता और पुत्रियो लड़ती हैं, भाभी और ननद लड़ती हैं, सास और बहू लड़ती हैं । यह लडाई का बाजार क्यों गर्म है ? इसका कारण मेरे विचार में तो आलस्य ही है । क्योंकि जो मनुष्य कोई काम नहीं करता, जो चुपचाप निठल्ला बैठा अपना समय व्यतीत करता है, उसका स्वभाव दुर्बल हो जाता है, वह दूसरों को देख कर कुढ़ा करता है. और दूसरे उसको देखकर कढ़ते है। बस, झगड़ने के लिए और किस बात की जरूरत है ? यह कुढन ही मनुष्य मे मनुष्यता छीन लेती है । द्विभुजा परमेश्वर : इसके विपरीत जिस घर में सब स्त्रियां अपने-अपने काम में लगा रहती हैं, काम करने से जी नहीं चराती हैं, एक काम करने को दृसरी तैयारी रहती है, और प्रत्येक काम में परस्पर प्रेम तथा स्ने की धाराएँ वहती हैं, उस घर में किसी प्रकार का दुःख नहीं होता उस घर का कलह एक बार ही दूर हो जाता है। और परिवा बिल्कुल हरा-भरा, सुखी एवं समृद्ध हो जाता है। एक आचार्य व कहना है-"दो हाथ वाला मनुष्य परमेश्वर होता है" द्विभुजा पर श्वरः ।" हाँ तो जिस घर में तुम जैसी दो हाथों वाली अनेक भगव हो, वहाँ क्या कमी रह सकती है ? जरूरत है हाथों से काम लेने के Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 भारतीय नारी का गौरव लज्जा में सुरक्षित है यह एक स्वर में सबको स्वीकार है। परन्तु निरी लज्जा मूर्खता में परिणित न हो जाए ! इसकी विवेचना इस लेख में है। नारी का गौरव लज्जा नारी जाति का प्रधान गुण लज्जा है : लज्जा के समान स्त्रियों का दूसरा कोई आवश्यक व सुन्दर भूषण नहीं है-'लज्जा पर भूषणम् ।' लज्जा ही स्त्री के शील और संयम की रक्षा करती है । स्त्री में चाहे और सभी गुण हों, परन्तु यदि लज्जा न रहे, तो वे सब व्यर्थ हो जाते हैं। आजकल बीसवीं शताब्दी चल रही है सब ओर फैशन का बोल-वाला है । कालिज आदि की शिक्षा का प्रभाव, फैशन की वृद्धि पर बहुत अधिक पड़ रहा है भारत की संयमशील देवियाँ भी इससे नहीं बच सकी हैं । उसमें भी फैशन आदि विलासता का प्रभाव बढ़ रहा है । इस कारण आज के युग में लज्जा का महत्व बहुत कम हो गया है। बस्त्रों का उपयोग : आजकल' बड़े-बड़े नगरों में कपड़े बहुत बारीक पहने जाते हैं, इतने वारीक कि जिनमें से सारा शरीर साफ-साफ दिखाई देता रहता है । इस प्रकार जालीदार और रेशमी वस्त्र पहनकर शृगार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६० : आदर्श कन्या करना, भारत की सभ्यता के सर्वथा प्रतिकूल है । वस्त्र का अर्थ तन ढाँपना है, वह स्वच्छ तो होना चाहिए, परन्तु इतना बारीक नहीं होना चाहिए, कि जिससे अपनी लज्जा भी न बचाई जा सके । लज्जा साधक या बाधक ? हर किसी के साथ बात-चीत करने में थोड़ा संकोच रखना चाहिए। अधिक बोलने से और इधर-उधर की गप-शप करने से कुछ शोभा नहीं होती है । स्त्री के लिए तो कम बोलना और समय पर आवश्यकता पड़ने पर ही बोलना अच्छा माना गया है । जो कन्याएँ प्रारम्भ से ही इस गुण को अपनाती हैं वे वे भविष्य में योग्य गृहइ-लक्ष्मी प्रमाणित होती हैं । जो नारी एक अक्षर भी नहीं जानती और लज्जावती हैं. उनका 'जितना आदर समाज म होता है, उतना उन विदुषी, परन्तु लज्जा" हीन स्त्रियों का नहीं होता । अस्तु, प्रत्येक लड़की और स्त्री को चाहिए कि बह लज्जा को अपना भूषण बनाए । परन्तु ध्यान रहे कि लज्जा में अति न होने पाए। सब जगह अति करने से हानि होती है। बहुत सी लड़कियाँ लज्जाशील इतनी अधिक होती हैं, कि वे लज्जा के कारण कुछ काम भी नहीं कर सकतीं । हर समय सिकुड़े - सिमटे रहना और घर के कोने में दुबके रहना, कोई अच्छी बात नहीं है । बहुत-सी लड़कियाँ तो लज्जा के कारण किसी बड़ीबूढ़ी स्त्री से, तथा किसी परिचित भले आदमी से बात-चीत भी नहीं कर सकती, यह लज्जा की पद्धति, नारी जाति की उन्नति में बाधक है । कुछ सलाह : हसना बुरा नहीं है । वह मानव प्रकृति का एक विशिष्ट गुण Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी का गौरव : लख्जा : ६१ है । परन्तु लड़कियों को ठहाका लगाकर तथा कहकहा मारकार हँसना उचित नहीं हैं । जोर से हँसना, लज्जा का अभाव सूचित करता है। लड़कियों को बहुत धीरे, मन्द हास्य से हँसना चाहिए । मन्दहास्य नारी के सौन्दर्य को बढ़ाता है। विवाह आदि प्रसंगों पर बहुत संयम से काम लेना चाहिए । बहत-सी लड़कियाँ और वयस्क स्त्रियाँ ऐसे प्रसंगों पर अपनी मयांदा से सर्वथा बाहर हो जाती हैं। बगतियों से छेड़छाड़ करना, गन्देगन्दे गाने गाना, गालियाँ देना, अच्छी बात नहीं है । इससे भारतीय स्त्रियों को मूर्ख और फूहड़ आदि शब्दों से सम्बोधित किया जाने लगा है। अतः अपनी प्रतिष्ठा अपने हाथ से है। लज्जाशील रहने में ही भारतीय स्त्री की प्रतिष्ठा है । चूंघट क्या है : बहुत से देशों में लज्जा का सबसे बड़ा प्रतीक चूंघट समझा जाता है। परन्तु ऊपर से लेकर नीचे तक सारे शरीर को कपड़ों से छुपाकर और हाथ भर का लम्बा घु घट निकाल कर बाहर आना. जाना भारत की अपनी सभ्यता नहीं है। यह परम्परा मुगलकाल से भारत में आई है। भारतीय स्त्री के लिए तो लज्जा ही घूघट है । आँखों में लज्जा है, तो सब कुछ है और यदि यह नहीं है, तो घंघट करने से क्या लाभ ? लम्बा घंघट मजाक की चीज है। बहुत-सी स्त्रियां अपने घर वालों से तो लम्बा चूंबट डाल कर पर्दा करती हैं, उनसे बोलती भी नहीं हैं, परन्तु बिल्क ल अपरिचित लोगों के सामने धड़ल्ले से बात कर लेती हैं, पता नहीं, पर्दे को यह कैसी व्यवस्था है ? आजकल कुछ पढ़ी लिखी स्त्रियाँ लज्जालुता को दब्बूपन कहकर मनाक किया करती है ! वस्तुतः लज्जा और दब्बूपा में फर्क है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६२ । आदर्श कन्या दब्बूपन मन की हीन भावना, असंस्कारिता एवं अज्ञान का सूचक है जब कि लज्जा नारी की कुलीनता, सभ्यता, शिष्टता और सुशिक्षा को व्यक्त करती है। लज्जा का अर्थ ही हर बात में सभ्यता और शिष्टता का ध्यान रखना है। अधिक क्या, पुत्रियों ! तुम लज्जा का सदैव ख्याल रखो। कोई भी काम ऐसा न करो जिससे तुम्हारी निर्लज्जता प्रकट हो । जैनधर्म में लज्जा को ही पर्दा माना है, चूंघटों को नहीं । यदि चूंघट का सही अर्थ समझकर जीवन में इस रहस्य को साकार कर सको, तो नारी जाति का गौरव तुम अवश्य बढ़ा सकोगी। al Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 I सरलता और सरसता विश्वासी मनुष्य का संसार में बड़ा आदर होता है। जिस पर समाज का विश्वास होता है, वह अपने कामों में लोगों से बड़ी सहायता प्राप्त करता है । तुम जानती हो, यह विश्वास कैसे पैदा किया जा सकता है ? उत्तर- " सरलता से, सरसता से ।" तो जो मनुष्य सबका विश्वास पात्र बनना चाहता हो, उसको सबसे पहले जीवन में सरसता तथा सरलता लानी होगी और कपट - कुटिलता का परित्याग करना पड़ेगा । | नारी सरल हृदय हैं, तो वह देत्री है। सरल हृदय है, तो वह मातृत्व से भूषित है । जिनमें दोनों गुण हैं वह भगवती है अब आपकी पसन्द है आपका चुनाव है । सरलता का गुण प्राणि-मात के लिए उपयोगी है । क्या स्त्री, क्या पुरष, क्या बूढ़े, क्या नौजवान सभी उससे लाभ उठा सकते हैं और प्रतिष्ठा बढ़ा सकते हैं । परन्तु स्त्रियों के लिए तो यह अतीव मावश्यक गुण है। बिना परस्पर विश्वास के गृहस्थी एक क्षण भी नहीं चल सकती । आपस का विश्वास ही गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाता है । और यह विश्वास बिना सरलता के हो ही नहीं सकता । दर्पण बनो पुत्रियों ! तुम्हें सरल और निश्छल रहना चाहिए मन में तरह : Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : आदर्श कभ्या तरह की उधेड़-बुन करना, कांट-छाँट करना, बड़ा खराब काम है । मन को तुम जितना ही कुटिल और बहमी बनाओगी, उतन ही घर में क्लेश और द्वेष बढ़ेगा। तुम्हारा मन दर्पण के समान समतल हो, खोजने पर भी उसमें कहीं ऊबड़-खाबड़पन एवं बाँकी टेढ़ी रेखा न मिले । माया मन का अन्धकार है : अपने अपराधों को छिपाना या छिपाने के लिए झूठ बोलना महा पाप है है । इसका ही दूसरा नाम कुटिलता है, माया है । यह दुर्बल हृदय का चिन्ह है । जिसका हृदय दुर्बल हो जाता है, वह अपने लिए ही भार हो जाता है । भगवान् महावीर ने जैन-धर्म में ईसीलिए प्रतिक्रमण करने को बहुत महत्व दिया है। प्रतिक्रमण में अपनी भूलों को स्वीकार किया जाता है और इस प्रकार मन का दंभ निकालकर उसे सरल एवं सूदृढ़ बनाया जाता है । माया मन का अन्धकार है इसे दूर करने के लिए प्रकिक्रमण का प्रकाशमान सूर्य अवश्य है । कल्पनाओं का केन्द्र : मन । बहुत-सी लड़कियां, अपने दोष छिपाने के लिए अपने बड़ों से यहाँ तक कि माता-पिता से भी झूठा बहाना बनाती हैं। बार-बार पूछने पर भी सत्य बात नहीं बताती । परन्तु क्या यह उचित है ? छिपाने वाली कभो भो दोषों से अपना पिंड नहीं छोड़ा सकती । दोष दूर तभी होंगे जबकि वे अपने बड़ों के सामने साफ-साफ प्रकट कर दिये जाएँगे । अपराध, छिपाकर मन को शान्ति नहीं मिलती है । मन में सदा भय बना रहता है, कि कहीं मेरी बातें प्रकट न हो जाएं ? अपराध छिपाने वाले का मन, भयंकर कल्पनाओं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरलता और सरसता : ६५ का केन्द्र बन जाता है । और उसके मन की उपल-पुथल कभी भी शाश्त नहीं होती। काम से पहले सोचिए : प्यारी पुत्रियो ! तुम कभी भी कोई अपराध छिपाकर मत रक्खा करो । इन्सान है, भूल' हो जाती है। भूल हो जाना, कोई बड़ी बात नहीं है, 'संसार के बड़े-बड़े आदमी भी भूल कर गए हैं । परन्तु पाप है भूल को पाना, मना करना, तुम्हारा समस्त व्यवहार सरल हो, तुम्हारा बचन और मन सरल हो, तुम अन्दर और बाहर एक बनकर रहो । मन के अन्दार तरह-तरह के पर्दे अच्छे नहीं लगते । जब तुम किसी तरह का काम करने लगो, किसी से मिलो, किसी से बालचीत करो, तो उसके पहले अपने हृदय में इस बात का अवश्यं विचार करलो कि "इस बात अथवा काम के प्रकाशित होने में हमें कोई भय तो.नहीं। समय आने पर हमें इस बात या काम को बिना किसी संकोच के सबके सामने प्रकाशित तो करा सकते हैं " यदि इस प्रकार प्रत्येक कार्य करने से पहले, अपने हृदय में विचार कर लिया. करो, तो तुम्हें इसका मधुर फल शीघ्र ही मालूम हो मे लगेगा । उस समय तुम जान सकोगी, कि हम कोई भूल नहीं कर रही हैं, माया नहीं रच रही हैं, अपराध नहीं छिपा रही है । उस समय तुनको मालूम होगा, तुम पर लोगों का कितना अधिक विश्वास बढ़ा है और तुम्हारा हृदय कितना अधिक पवित्र हुआ है वह सब तुम तभी प्राप्त कर सकोगी, जब तुम्हारा मन दर्पण के समान साफ होगा। सरलता और चतुरता: परलता का यह अर्थ नहीं है, कि तुम बिल्कुल बुद्ध बनकर रहो। सरलता का विरोध छल-कपट से है चतुरता से नहीं, कपटी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : आदर्श कन्या होन। एक बात है, और चतुर होना दूसरी बात । तुम चतुर रहो झट-पट किसी की बातों में न आओ, अपने काम को हर तरह से सफल बनाने का प्रयत्न करा । इसमें कोई प.प नहीं है। पाप हैदेश में मायाचार में । बस माया से बचो। गोपनीयता क्या है : ___ अपनी बात प्रकट करने का यह अर्थ नहीं है, कि गृहस्थो की जो भी गोपनीय बात हो, सब प्रकट कर दो। घर की बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं, जो छिपाने की ही होती हैं । हर जगह घर का भेद खोल देने से भारी अनर्थ हो जाने की सम्भावना है । तुम स्वयं बुद्धिः मती हो, समय और असमय का ख्याल रखो । कोई समय छिपाने का होता है, और कोई समय छिपाने का नहीं भो होता है। __ यहाँ हमारे कहने का अभिप्राय इतना ही है, माता-पिता के सामने तथा आगे चलकर सास, ससुर या पति के सामने हरदम छिपाकर काम करना, और पूछने पर सही-सही न बताना यह गृहजीवन के लिए नितान्त पतन का मार्ग है । अतएव इससे बचने का प्रयत्न करना प्रत्येक नारी का विशुद्ध कर्तव्य है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम एक विराट शक्ति है, इस शक्ति का संचय हृदय की विशालता पर निर्भर करता है। वह विशालता आप में है, तो सारा विश्व आपकी मुट्ठी में है। और मुट्ठी खोलकर दिखा दीजिए कि प्रेम में कितनी शक्ति है। म को विराट शक्तिः यह दो अक्षरों का शब्द 'प्रेम' कैसा मधुर है ? मुख से प्रेम शब्द कलते हो कहने वाले की जीभ और सुनन वाले के कान मधुर हा ठे हैं । और सबसे मधुर हो जाता है-हृदय, जा कभा इस मधुरता भूलता ही नहीं। प्रेम का सुखप्रद अंकुर, पशु पक्षियां तक मे पाया जाता है। हिंसक हमादि पशु भो अफ्ना सन्तान से प्रेम करते हैं। तुमने देखा है ? बार शेरनो भी अपने बच्चों को किस प्रेम के साथ दूध पिलाती । तुमने कमो कुतिया का अपने बच्चों को दूध पिलाते हुए देखा है। ध पिलाते समय कुतिया लेट जाती है, सब पिल्ले इकट्ठे होकर सकी जोर दोड़ते है, कोई इधर से दूध पाता है तो, कोई उधर से, ई-कोई तो पेट पर भी चढ़ बैठते है । परन्तु कुतिया आनन्द से खें बन्द किए लेटी रहती है और दूध पिलाती है। इसी प्रकार य का अपने बच्चे के प्रति कितना प्रेम है ? वह अपने बच्चे को म से चाटती जाती है और साथ ही दूध पिलाती जाती है। कतना मधुर और महान है-प्रेम का राज्य ? ___ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : आदर्श कन्या प्रेम का मूल्यांकन : पुत्रियो ! पशुओं की बात छोड़ो। तुम अपने घर में ही देखो तुम्हारी माता तुम से कितना प्रेम रखती है ? जब तुम बहुत छो बच्ची थी, चारपाई पर लेटी रहती थी, मालूम है तब तुम क करती थी तब तुम्हा करती थी ? कपड़ों को गन्दा कर दिया माता ही वह सब गन्दगी साफ करती थी । माता, कितने प्रेम अपने बच्चे को पालती है ? तुमसे यदि प्रेम न होता, तो क्या ? आज इतनी बड़ी होती ? नहीं, कभी नहीं । 1 अब तुम इतनी सयानी हो गयी हो और अपना भला बुरा समझने लग गई हो, तब भी वह तुमको कितना प्यार करती है ? तुम घर पर नहीं होती, तब भी वह तुम्हारे लिए खाने पीने अ पहनने आदि की चीजें किस प्रकार बचाकर रख छोड़ती है । यह प्रेम की महिमा है। पशुओं का प्रेम अज्ञान- मूलक होता है, ब मानव जाति का ज्ञान-मूलक । मनुष्यों में भी बहुत प्रेम करने वाले है । परन्तु यदि विवेक और ज्ञान का सहय लिया जाय, तो प्रेम, संसार के लिए एक अनमोल देन हो जा हां, तो प्रेम की इतनी आवश्यकता है, अतः प्रेम का मूल्यांकन करे सीखो । *** से अज्ञान म x $ 1 प्रेम से तरंगित रहो : प्रेम मानव जाति के लिए एक महान् विशिष्ट गुण है । वि पूर्वक प्रेम की उपासना करने वाला व्यक्ति कभी किसी प्रकार दुःख नहीं पा सकता । जो लड़कियाँ दूसरों को दुःखी देखकर स दुःख का अनुभव करती हैं, उनके दुःख को दूर करने के लिए झ तैयार हो जाती हैं, समाज में उनका गौरव कितना बड़ा बड़ा हो यह कुछ लिखकर बतलाने की बात नहीं है। प्रेम का प्र । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम को विराट शक्ति : ६६ आप विश्व पर प्रकाशित हो जाता है। आवश्यकता है, प्रेम से गत रहने की। करो प्रेम मिलेगा: यह संसार एक प्रकार का दर्पण है । तुम जानती हो, दर्पण या होता है । दर्पण के आगे यदि तुम हाथ जोड़ोगी, ता वहाँ प्रतिबिम्ब भी तुम्हें हाथ जोड़ेगा। और यदि तुम दर्पण को चाँटा ओगी, तो वह अपने प्रतिबिम्ब के द्वारा तुम्हें चाँटा दिखा।। वह तो गुम्वद को आवाज है, जैसा कहे वैसा सुने । यदि सबके साथ प्रेम का व्यवहार करागी, तो वे सब भी तुमसे प्रेम ही व्यवहार करेंगे। और यदि तुम घमण्ड में आकर किसी प्रकार दुर्व्यवहार करोगी, ता बदले में तुम्हें भी वही अभद्र व्यवहार गा। तुम देखती हो प्रेम के बदले में वे भी तुमसे हादिक प्रेम जी हैं । और जिनसे तुम घृणा करती हो बदले में वे भी तुम से 'प्रकार घृणा करती हैं । बुराई और भलाई बाहर नहीं, तुम्हारे के ही भीतर है। भगवान् महावीर का यह दिव्य सन्देश सदा रक्खो कि-"अपने अन्दर देखो।" जब तुम किसी गरीब लड़की को देखकर उससे प्रेम करती तो वह तुम्हारा आदर करती हुई तुम पर दुगुना स्नेह प्रकट रती है। और जब उसे गरीब जानकर घृणा की दृष्टि से खती हो, तब वह भी तम्हारी बुराई करती हुई तुमसे नफरत करती है। यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि जब भी तुम किसी के प्रति अपने मन में वैर और डाह करोगी, तब उसके मन में भी उसी प्रकार का वैर और डाह तुम्हारे लिए उत्पन्न हो जाएगा । याद रक्खो-संसार एक दर्पण है। यहाँ जो प्रेम करता है, उसी को प्रेम मिलता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : आदर्श कन्या स्वर्ग का निर्माण करो : ध प्यारी पुत्रियो ? अब तुम प्रेम की महिमा समझ गई होगी पाठशाला की जितनी भी लड़कियाँ हों, उन सबके साथ प्रेम-पूर्व व्यवहार करो, तथा सबको अपनी बहन के समान समझो, पर माता पिता भाई, बहन सबके साथ प्रेम पूर्वक बर्ताव क यहाँ तक कि घर के नौकर चाकरों के सुख-दुख का भी ख्या रक्खो | मुहल्ले की लड़कियों के साथ भी खूब हिल-मिलकर रहे मुहल्ले की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों का भी यथायोग्य आदर-सम्मान करो सब ओर अपने प्रेम की सुगन्ध फैला दो । नारी प्रेम की साक्षात मु है घृणा और द्वेष नरक है, प्रेम और सद्व्यवहार स्वर्ग है । अपने प्रेम के बल पर घर को, मुहल्ले को, गाँव को और देश स्वर्ग बना दो, स्वर्ग ! साक्षात स्वर्ग !! Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 हास्य की मधुरिमा नारी के सोन्दर्य व स्वास्थ्य की अभिवृद्धि करती है । सभी ने यह स्वीकार किया है, किन्तु उनका कहना हैं, हास्य की सीमारेखा अवश्य होनी चाहिए | हँसी - दिल्लगी हँसना कोई बुरा काम नहीं है । मनुष्य की जिन्दगी में हँसना, एक बड़ा गुण है । इतने बड़े विराट् संसार में हँसना एक मनुष्य को ही आता है, और किसी पशु-पक्षी को नहीं। क्या तुमने कभी किसी गाय-भैंस आदि पशु को हँसते देखा है ? नहीं देखा होगा । पशु-पक्षी हँसना जानते ही नहीं। प्रकृति की ओर से यह अनुपम भेंट एक मात्र मनुष्य को ही मिली है । वह मनुष्य ही क्या जिसका मुँह हमेशा उदास रहता है । जो बात-बात पर मुंह चढ़ा लेता है - बड़बड़ाने लगता है, वह मनुष्य नहीं राक्षस है । जिसके मुख पर सदा मन्द- हास्य अठखेलियाँ करता रहता है, वही मनुष्य सच्चा मनुष्य है । वह जहाँ भी रहेगा, वहां निरन्तर आनन्द-मंगल की वर्षा करता रहेगा । हँसी की सीमा : हँसने की भी सीमा है । हँसने के साथ कुछ विवेक और विचार, की भी आवश्यकता है । जिस हँसने में विवेक न हो, विचार न हो वह कभी-कभी महान् अनर्थ का कारण बन जाता है । संसार के इतिहास में बहुत-सी घटनाएं इसी विवेक रहित हंसी के कारण हुई - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : आदर्श कन्या हैं। महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि में यदि सूक्ष्म निरीक्षण से देखा जाए, तो भीमसेन और द्रौपदी की अनुचित हँसा ही छिपी मिलेगी। अन्धे घृतराष्ट्र के पुत्र, दुर्योधन की द्रौपदी ने हंसो में यही कहा था, कि अन्धे के अन्ध ही पैदा हुए । बस, उसी से महाभारत + खून को नदियाँ बह गई ! अतः हँसी मनुष्य के लिए आवश्यक है, यह सही है। परन्तु इस की भी एक सीमा होनी चाहिए। हाँ, तो पुत्रियो ! किसी की हंसी-दिल्लगी करते समय समझ-बूझ से काम लो । तुम्हारो हँसी-दिल्लगो शुद्ध हो । उसमें गन्दापन न हो, उससे किसी को हानि न हा । हँसी-दिल्लगी स्वयं कोई खराब चीज नहीं है । यह जीवन के लिए लाभदायक गुण है । परन्तु हँसी-दिल्लगी सीमा के अन्दर रहकर ही करनी चाहिए । सीमा से बाहर कोई भी काम क्यों न हो, उससे हानि ही होती है। हँसी का समय : हंसी-दिल्लगी आनन्द के लिए की जाती है । अतः हँसी के लिए समय, और असमय का ध्यान रखना आवश्यक है। कभी ऐसा होता है कि सबके सामने हँसी करने से मनुष्य लज्जित हो जाता है और अपने मन में गांठ बांधकर रख लेता है। आगे चलकर उसका भयंकर परिणाम निकलता है। सम्मुख साथी प्रसन्न हों अच्छी स्थिति में हो, तभी हँसी-दिल्लगी आनन्द पैदा करती है । यदि वह किसी खराब स्थिति में हो, तो उस असमय की हँसी-दिल्लगी के आनन्द के बदले क्रोध ही उत्पन्न होगा। बहुत-सी लड़कियां अधिक चुलबुली होती हैं । वे अपनी साथिन लड़कियों की हमेशा हँसी उड़ाया करती हैं। किसी के रंग-रूप की हँसी करती हैं, तो किसी के चाल-ढाल की हँसी करती हैं। किसी की चपटी नाक पर हँसती हैं, तो किसी की ऊँची नाक की आलो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हँसी-दिल्लगी : ७३ बना करती हैं। यह आदत अच्छी नहीं है। किसी के काले रूप की तो किसी की चपटी नाक आदि की हँसी करना बहुत असभ्यता का लक्षण है । तुम नहीं जानती तुम्हारी हँसी से उसके दिल को कितनी अधिक चोट लगती होगी ? किसी का दिल दुखाना बहुत बुरा है । हंसी में क्या वजित है : हंसी में भी किसी के गुप्त दोषों को मत प्रकाशित करो, अगर किसी से कोई भूल हो गई है, अपराध हो गया है, तो तुम्हें क्या अधिकार है, कि उसे नोचा दिखाने के लिए हँसी करो। ऐसी हंसी ममृत के बजाय जहर बन जाती है, हँसी-दिल्लगी में किसी से कभी कोई कड़वी बात मत कहो। तुम्हारी हंसी मधुर हो, उस में प्रम की खुशबू हो । देखना, उसमें कहीं द्वष और घृणा की दुर्गन्ध न छुपी ____ अधिक हँसना भी अच्छा नहीं है। बहुत सी लड़कियाँ हमेशा हर किसी के सामने हंसी-दिल्लगी कि या करती हैं । न वे समय का ध्यान रखती हैं, और न व्यक्ति का । परन्तु नारी जीवन में इस प्रकाश अमर्यादित हँसना शोभा नहीं देता। इस तरह हमेशा हर किसी के साथ हंसी करने से गम्भीरता जाती रहती है। अधिक हँसोड़ लड़की सभ्य समाज में आदर नहीं पाती। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा मानव का मूल्यवान गूण है। और फिर दरिद्रनारायण की सेवा तो सर्वाधिक मूल्यवान है। जिस नारी को यह अवसर प्राप्त हो गया-समझ लो, वह योगियों की समाधि से भी बढ़कर है। दरिद्रनारायण की सेवा मेवा परम धर्म है । सेवा के बराबर न कोई धर्म हुआ, और न कभी होगा । जो मनुष्य रोगी की सेवा करता है, वह एक प्रकार से भगवान् की सेवा करता है। भगवान महावीर से एक बार गौतम स्वामी ने पूछा कि --- "भगवान एक भक्त आपकी सेवा करता है और दूसरा दीन-दुखी रोगी की सेवा करता है, दोनों में कौन धन्य है।" भगवान महावीर ने उत्तर दिया- 'गौतम । जो दीन-दुखी, रोगी की सेवा करता है, वह धन्य है। जितेन्द्र भगवान् की सेवा उनकी माज्ञाओं के पालन में है । और उनकी आज्ञा दुःखित जनता की सेवा करता है।" सेवा प्रभु की या रोगी को ? भगवान महावीर के उक्त कथन से सिद्ध हो जाता है, कि रोगी की सेवा, भगवाव की सेवा से भी बढ़कर है। दया मनुष्य का Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्रनारायण की सेवा : ७५ चिन्ह है । जिसके हृदय में दया नहीं, वह मनुष्य नहीं, पशु है। और फिर घर के बीमारों की सेवा करना, तो दया ही नहीं; कर्तव्य है । जिस मनुष्य ने समय पर अपने आवश्यक कर्तव्य को पूरा नहीं किया वह जीवन में और भला क्या काम करेगा ? बहत-सी लड़कियां रोगी की सेवा से 'जी चराती हैं । जब कभी कोई घर में बीमार पड़ जाता है, तब दूर-दूर रहती हैं पास तक नहीं आती हैं। यह आदत बड़ी खराब है, जैन-धर्म में इस प्रकार सेवा करने से जी चुराने को पाप बताया है । जैन-धर्म का भादर्श ही सेवा करना है । वह तो अपने पड़ौसी और साधारण पशु-पक्षी तक की सेवा और रक्षा के लिए पदेश देता है। भला जो मनुष्य की, और वह भी अपने घर वालों की सेवा नहीं कर सकती, वह पडौसी और पशु-पक्षियों की क्या रक्षा करेगी ? उनकी दया कैसे पालेगी ? रोगों की सेवा तो प्रभू की सेवा से भी बढ़कर है। सेवा की विधि जब भी समय मिले रोगी के पास बैठो । समय क्या मिले, समय निकालो। यदि रोगी घबराता हो, तो उसे मीठे वचनों से तसल्ली दो। जब देखो, कि रोगी बहुत घबरा रहा है. तो कोई अच्छा-सा धार्मिक विषय छेड़ दो, कोई अच्छी-सी धार्मिक कथा सुनाओ । धार्मिक बातें सुनने से आत्मा में शान्ति और बल बढ़ता है, तथा रोगी का मन भी अपनी व्याधि पर से हटकर अच्छे विचारों में लग जाता है। रोगी के लिए स्वच्छता का बहुत ध्यान रक्खो ! रोगी के आस-. पास जरा भी गन्दगी नहीं रहनी चाहिए। कपड़े गन्दे और मैले हों, आस-पास गन्दगी हो, तो रोग दूर होने के बजाय अधिक बढ़ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : आदर्श कन्या जाता है, और पास में आने-जाने वाले व्यक्ति व डाक्टर आदि सज्जनों को भी घृणा होती है । औषधि का प्रबन्ध : औषधि का बराबर ध्यान रखना चाहिये । औषधि को खूब यत्न से स्वच्छ स्थान में रखने का और नियमित समय पर देने का ध्यान रखो। कौन औषधि कैसी है, किस समय पर देनी है, किस पद्धति से देनी है ?- इत्यादि सब जानकारी लिखकर अपने पास रखो। औषधि की शीशी पर औषधि का नाम लिख लो, और खुराकों की संख्या चिन्हित कर दो। बहुत-सी बार औषधियों की उलट-पलट से बड़ा अनर्थ हो जाता है। एक गाँव की घटना है, कि एक लड़का बीमार पड़ा, गले पर गिल्टी निकली और ज्वर भी हो आया । डाक्टर ने दोनों रोगों के लिए दो अलग-अलग औषधियाँ दे दी । अनपढ़ माता भूल गई। उसके गिल्टी पर लगाने वाले तेल को पिला दिया और पीने का अर्क गिल्टी पर चुपड़ दिया। तेल' में विष था, एक ही घन्टे में लड़का परलोकवासी हो गया। जरा-सी भूल ने कितना अनर्थ कर दिया। सेवा के पथ पर चलिए : _रोगी की सेवा करते-करते यदि बहुत दिन हो जाएँ, तो भो घबराना उचित नहीं है। रोगी की सेवा ही मनुष्य के धैर्य की परीक्षा का अंवसर है । यदि लम्बी बीमारी के समय तुम धीरज खो बैठी और रोगी की सेवा से जी चुराने लगी तो फिर तुम सेवा का मूल्यवान कार्य न कर सकोगी । तुम्हारा हृदय प्रेम के अभाव में सूख जायगा। फिर वह किसी काम का न रहेगा। तब तुम प्रैम किसी भरे पूरे परिवार में गृह-लक्ष्मी बनकर न रह सकोगी। सेवा ही नारो जीवन की सफलता का मूल मंत्र है । अतः नारी को कम से कम सेवा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्रनारायण की सेवा : ७७. के क्षेत्र में तो असीम धैर्य और लगन से लग कर रोगी की सेवा करनी चाहिए । गंगा कितनी शान्त गति से बहती है। उसमें धैर्य का गम्भीरता का, कहीं अभाव दृष्टिगत होता है ? नहीं ! तो फिर तुम्हें भी.,गंगा को तरह शान्त मन से धीरे-धीरे सेवा पर अविरामः गति से बहते रहना चाहिए, चलते ही रहना चाहिए। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कोयल के मीठे बोल' बहुत संभव है, तुम्हें भी कोयल जैसा मीठा बोलने की प्रेरणा दे जाएँ, तुम्हारी वाणी की वीणा से सम्भव है, हमेशा के लिए मीठे ही स्वर निकलने लगे। कोयल के मोठे बोल संसार की सब कलाओं में बोलने की कला सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण है । आज तक का इतिहास हमें यही कहता है, जिसके पास बोलने की कला थी, उसने संसार में आदर पाया और संसार को अपने कदमों पर चलाया। यहां बोलने की कला का मतलब सभा में भाषण देने से नहीं है, अपितु मीठा बोलने से है, एक व्यक्ति ऐसा बोलता है, कि सामने वाले व्यक्ति का हृदय जीत लेता है, और एक ऐसा बोलता है, कि अपना भी गैर हो जाता है, यहाँ तक कि उसके द्वारा कही गई हित की बात भी बुरी लगती है। __ कोयल ही सबको प्यारी क्यों लगती है । क्या वह तुम्हें कुछ दे देती है ? और कौआ बुरा क्यों लगता है । क्या वह तुमसे कुछ छीन लेता है ? उत्तर स्पष्ट है-न कौमा छीनता है और न कोयल कुछ दे ही देतो है । एक कवि ने इस बात को यों रखा है -- कागा किसका धन हरे ? कोयल किसको देय? मधुर वचन के कारणे, जग अपना कर लेय ? ___ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोयल के मीठे बोल : ७६ मधुर भाषण : 1 उपर्युक्त कोयल और कौवे के उदाहरण से यह सिद्ध हुआ, कि तुम भारत माता को सन्तान हा देश की सुपुत्रियों में सुम्हारी गणना है | अतः तुम्हारे लिए मधुर भाषण को बड़ी आवश्यकता है । मनुष्य के हृदय की अनमोल वस्तु प्रेम है और इस प्रेम को दूसरे पर प्रकट करने का साधन है - मधुर भाषण ! शिष्ट भाषा मनुष्य, जो कार्य बातों से निकाल लेते हैं, वह दूसरे पैसा खर्च करके भी नहीं निकाल सकते । इसकी तुलना में संसार को कोई भी कला नहीं ठहर सकती । प्रेम का विस्तृत क्षेत्र : मधुर भाषण करने वाली लड़की से, उसके सब सम्बन्धों, तथा मिलने वाले पड़ौसी आदि सभी प्रसन्न रहते हैं । बास-पास के घरों की बालिकाएँ बार-बार उसके पास आती हैं ओर उसके सुख-दुख में सहानुभूति दिखलाता है। एक बार जो व्यक्ति उससे मिल लेता है, फिर जीवन भर उसे नहीं भूलता। ऐसी लड़की जहाँ जाती है, सम्मान पाती है। क्या स्त्री और क्या पुरुष, सबके सब उससे प्यार करते हैं, उसकी प्रशंसा करते हैं और उन्नति की कामना करते हैं । वह बराबर अपने प्रेम और स्नेह क्षेत्र को 'विस्तृत करती चली जाती है । मधुर वाणी की वीणा : जिस नारी के कण्ठ में माधुर्य होता है, उसके घर में सदा शान्ति का राज्य रहता है । और यदि कभी किसी कारण अशान्ति होती भी है, तो ज्योंही नारी की मधुर वाणी की वीणा बजनी प्रारम्भ होती है, त्यों ही वह अशान्ति लुप्त हो जाती है, और उसके स्थान में सुख शान्ति का समुद्र हिलोरें मारने लगता है । भगवान् Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : आदर्श कन्या महावीर की माता कितना मधुर बोलती थी ? भगवान महावीर की शिष्या चन्दनवाला की वाणी में किननी अधिक मिठास थी ? उसने छत्तीस हजार साध्वियों के संघ पर शासन किया था, उसकी मधुर वाणी विरोधियों के हृदय को भी मधुर बना देती थी। वाणी मिश्री की डली हो: कर्कश और कठोर भाषण करने वाली स्त्रियाँ, ठीक इसके विपरीत होती हैं-वे .सदा. मुंह चढ़ाए भूखी शेरनी की तरह झुंझलाती फिरा करती हैं, और क्या बच्चों से और क्या. बड़ों से, सब लोगों से दुर्वचन बोलती हैं, फलतः अपने निकट के प्रेमियों को शत्र बना लेती हैं। उनसे कोई बोलना नहीं चाहता। उनके पास कोई जाना नहीं चाहता। उसकी कर्कश वाणी के कारण प्रायः घर और बाहर बाले, उसकी अमंगल की कामना किया करते हैं। और उसके सम्बन्ध में निश्चित, धारणा बना लेते हैं, कि कठोर बोलने वाली अमुक स्त्री. सूर्पनखा ही है। अधिक क्या कहा जाय? संक्षेप में मिष्ड भाषी और कठोर भाषी लड़की में इतना ही अन्त र है, कि जहाँ एक अपने घर को नन्दन-वन बनाकर उसमें मधुर मनोरम तान भरतो हैं, तो दूसरी घर को उजार बनाकर उसे लड़ाई-झगड़े का अखाड़ा बना देती है। कहो पुत्रियो। तम किस प्रकार की होना चाहती हो ? तुम्हारी आत्मा नन्दन-बन में रहना चाहती है, या उजाड़ में नन्दन-वन को चाहता हो तो मधुर बोलो ! एक दम सदा मधुर ! जो बात हो सही हो, अच्छी हो अरु भली हो ।' कड़वी न हो, न मूठो, मिसरी की-सी डली हो।। भूमण्डल पर तीन रत्न हैं, जल, - अन्न, सुभाषित कणो। . पत्थर के टकड़ों में करते, रत्न कल्पना फाम प्रापी 4k. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ही भारतीय-संस्कृति का आदि, अन्त और मध्य है । जिसका जीवन इस अलौकिक तेज से दीप्त है, वह इन्सान से भगवान् की ओर ही बढ़ता जाता है । पूज्य मुनिजी के आत्म-विश्वास भरे शब्दों में पढ़िए " ....! ब्रह्मचर्य का तेज तुम्हारे सामने एक बहुत बड़ा गहन और गम्भीर विषय उपस्थित है । जीवन का सच्चा आदर्श एक प्रकार से इसी विषय में है । यदि तुम ठोक-ठीक इस विषय को समझ सकी और आवरण में ला सकी, तो तुम नारी जीवन की उच्चतम पवित्रता को भली-भांति सुरक्षित रख सकोगी और भविष्य में एक महान् आदर्श गृह-लक्ष्मी बन सकोगी। ___ मनुष्य का जीवन अपूर्व पुण्य के उदय से प्राप्त हुआ है । स्वर्ग और मोक्ष का सच्चा द्वार यही मानद जीवन है । जो मनुष्य, मानव जीवन को सफल बनाता है, वही विश्व के रंग-मंच पर सफल अभिनेता माना जाता है । मानव जीवन का लक्ष्य है-आध्यात्मिक जीवन, सदाचार का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन । अभी तुम विद्या पढ़ती हो, अतएव ब्रह्मचारिणी हो । विद्या ला करने के लिए ब्रह्म पर्य-ब्रत का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है । ब्रह्मचारिणी के पवित्र कण्ठ पर सरस्वती देवी बड़े प्रेम से आकर मासन जमाती है, और ज्ञान के प्रकाश से सारा जीवन आलोकित Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : आदर्श कन्या कर देती है । ब्रह्मचर्य का व्रत, सब रोगों को कोसों दूर भगाकर शरीर में बल बुद्धि का विकास करता है, और मुख मण्डल पर अपूर्व सौन्दर्य एवं तेज का प्रकाश डालता है । ब्रह्मचर्य का महत्व : भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य का महत्व बहुत ऊँचे शब्द में वर्णन किया है । " ब्रह्मचर्य का पालन अतीव कठिन काम है । जो साधक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसके चरण कमलों में देव, राक्षस, मानव और दानव आदि सभी नमस्कार करते हैं । जैन धर्म में ब्रह्मचयं की गणना मुनियों के पाँच महाव्रतों में चौथे नम्बर पर है । और गृहस्थ के पाँच अवगुणों और बारह व्रतों में भी चौथा नम्बर है । ब्रह्मचर्य के प्रभाव से विष भी अमृत हो जाता है, धधकती हुई अग्नि शीतल बन जाती है । महारानी सीता ने अपने सतीत्व से जलते हुए अग्निकुण्ड को जल कुण्ड बना दिया था, याद है न आख्यान ! ब्रह्मचर्य पालन का प्रकार : ब्रह्मचर्य दो प्रकार से पालन किया जाता है - एक पूर्ण रूप से और दूसरे देश रूप से । पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य पालन का अर्थ हैनियम धारण करने के बाद जीवन भर के लिए मन, वचन और कर्म से विषय वासना से अलग रहना। जैन मुनि और जैन साध्वियों यही प्रथम नम्बर के पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करती है । जैन साधु-स्त्री को, चाहे वह एक दिन की बच्ची ही क्यों न हो, उसका भी स्पर्श नहीं करता । जैन - साध्वी भी पुरुष को चाहे वह दूध पीने वाला बच्चा ही क्यों न हो, स्पर्श नहीं करती । ब्रह्मचर्य का इस प्रकार अखण्ड पालन ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है । देश रूप से ब्रह्मचर्य पालन का अर्थ है- देश से यानी खण्ड से Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का तेज : ८३ ब्रह्मचर्य पालन | यह गृहस्थ के लिए है । गृहस्थ अवस्था में ब्रह्मचर्यं का पालन पूर्ण रूप से जरा अशक्य है, अतः देश ब्रह्मचर्य का विधान किया है। जब तक गृहस्थ दशा में स्त्री-पुरुष विवाह नहीं करते हैं । तब तक उन्हें ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करना चाहिए। और जब विवाह बन्धन में बंध जाए, तब स्त्री अपने पति के सिवाय और पुरुष अपनी पत्नी के सिवाय, ब्रह्मचर्य का पालन करता है । जैन-धर्म का यह ब्रह्मचर्य विभाजन, मनोविज्ञान की निश्चित शैली पर आधारित है । जैन-धर्म में सभी व्रतों का मनोवैज्ञानिक विधान किया गया है । ब्रह्मचर्य-साधना के नियम : हाँ तो प्यारी पुत्रियो ! तुम्हारे हाथ बड़ा अमूल्य अवसर है । जब तक तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा विधिवत विवाह संस्कार न करदें, तब तक ब्रह्मचर्य व्रत का पूरा पालन करो । संसार के जितने भी पुरुष हैं सबका पिता व भाई के समान समझो । बड़ों को पिता और बराबर की आयु वालों को भाई । अपने हृदय को सदैव निर्मल रक्खो । बुरी बातों को तथा वासनाओं को कभी पास न आने दो, और पूर्ण ब्रह्मचारिणो रह कर विद्या पढ़ो | ब्रह्मचर्य व्रत को दृढ़ रखने के लिए नीचे लिखी बातों को त्याग देने की आवश्यकता है - १. गन्दे सिनेमा देखना | २. गन्दो किताबें पढ़ना । ३. भांड़ चेष्टाएँ आदि करना । ४. पुरुषों के बीच में व्यथ घूमना । ५. गन्दे गजल आदि के गाने गाना | ६. रूप-रंग के बनाव शृंगार में रहना । ७. किसी पुरुष की ओर बार-बार देखना | Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : आदर्श कन्या स्त्री का आभूषण लज्जा है । यह याद रक्खो-जो लड़को बचपन में निर्लज्ज हो जाती है, उस पर फिर सदाचार का रंग चढ़ना कठिन है। मोती की आब एक बार उतर जाने के बाद फिर कभो वापिस नहीं आती ! ब्रह्मचर्य का दूसरा नम्बर विवाह संस्कार होने के पश्चात् आता है । माता-पिता जिसके साथ विधिवत् विवाह कर दें, वह पति है। सदैव पति की आज्ञा में रहना, पति की स्नेह भक्ति करना, प्रत्येक सुशील लड़की का कर्तव्य है । यदि भाग्यवश पति में कुछ त्रुटि हो, तो हताश और उदास नहीं होना चाहिए, बड़ी गम्भीरता और चतुरता से त्रुटियों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । एक पति के अतिरिक्त संसार के जितने भी पुरुष हैं, सबको पिता, भाई और पुत्र के समान समझना चाहिए। विवाहित होने के बाद सीता, द्रौपदी और अंजना आदि महासतियों के आदर्श अपने सम्मुख रखने चाहिए। पत्नी के गुण : विवाहित जोवन में स्त्री को किस प्रकार रहना चाहिए, इस सम्बन्ध में कुछ सुभाषितों पर चिन्तन-मनन करना लाभप्रद होगा। वै सुभाषित जीवन पर गहरी छाप डालते हैं, और जीवन भर आदर्श सूत्रों का काम देते हैं। पत्नी और दासी का कितना सुन्दर विभाजन है। १. जो पति की सहायक हो, वह पत्नी ! २. जो पति की सहचारिणी हो, वह पत्नी ! ३. जो पति के जीवन को सुखी करे, वह पत्नी ! ४. जो पति के जीवन को उच्च बनाए, वह पत्नी । ५. जो पति के दोषों को नम्रता से सुधारे, वह पत्नी! ६. जो पति के सुख-दुःख में बराबर भाग ले ? Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का तेज : ५५ कुछ और भी: १. अलंकार और ठाट-बाट की जो इच्छा करे, वह दासी ! २. शरीर के भोंगों की जो इच्छा करे, वह वेश्या ! ३. पति के सुख की जो कामना करे, वह पत्नी ! ४. पति की उन्नति के लिए जो आत्म-भोग दे, वह देवो Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय का भूत, धुन की तरह मनुष्य के विश्वास को खाता रहता है । जिस नारी में विश्वास नहीं बोलता, वह कर ही क्या सकती है? भय विश्वास को खत्म कर देता है। भय, मन का घन है जो व्यक्ति बात-बात पर भय करता है, डरता है, समझ लो, उसने अपने जीवन में कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। भय तो मनुष्य के मन का घन है । यह घन अन्दर ही अन्दर मनुष्य के उत्साह शरीर और सेवा आदि अच्छे गुणों को चबा डालता है । फिर वह मनुष्य संसार में किसी भी काम का नहीं रहता। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में भय की भावना अधिक है। जरा. जरा सी बात पर स्त्रियाँ भय से कांपने लगती हैं। और धीरज खो बैठती हैं। जब कोई लड़का डरता है; तो कहा करते हैं. किअरे यह लड़का है या लडकी ? इतना डरता है ? तूने तो लड़कियों को भी मात कर दिया।" इसका मतलब यह हुआ, कि-लड़कियां डरा करती हैं, डरना उनका स्वभाव हो गया है। अस्तु, पूत्रियो ! तम्हें नारी जाति पर से इस कलंक को दूर करना होगा, निर्भय बनना होगा। जब तक भारत माता की लाड़की पुत्रियाँ निर्भय नहीं बनेंगी, तब तक भारत माता का गौरव किसी भी प्रकार नहीं बढ़ सकेगा। अन्धकार तुम्हें नहीं डराता : बहुत सी लड़कियां बड़ी डरपोक होती हैं। रात्रि के समय Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय मन का घुन है : ८७ घर में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने से डरती हैं, अकेली सोने से भी डरती हैं, दीपक बुझ जाने पर डरती हैं, कुत्ता मौंके तो भी डरती हैं, और तो क्या, चुहिया के बच्चे से भी डरती हैं भला ऐसी डरपोक लड़कियां, अपने जीवन में क्या कभी कोई साहस का काम करेंगी? बात-बात पर डरना और रोना जिनका स्वभाव बनता जा रहा है, वे संकट काल में अपने परिवार की और अपनी रक्षा कर सकेंगी? यह सर्वथा असम्भव है। ____ मैं डरपोक लड़कियों से कह देना चाहता हूं, कि 'तुम जल्दी से जल्दी डरपोकपन की आदत छोड़ दो। अगर तुमने डरना नहीं छोडा और निडर न बनी तो याद रक्खो आज की दुनिया में तुम किसी काम की न रहोगी। घर में भीगी-बिल्ली बन कर दुवके रहना क्या कोई अच्छी जिन्दगी है ?" मैं नहीं समझा-"आखिर डरने की क्या बात है? चूहिया बड़ी है या तुम बडी हो ? कोडे मकोड़े में अधिक बल हैं या तुम में ? कुत्ते बिल्ली में अधिक बुद्धि है या तुम में ? किसी समय दीपक बुझ गया तो इससे क्या हुआ ? अंधेरा तुम्हें खा तो नहीं जाता? फिर तुम इतनी डरपोक क्यों हो। अंधेरा तुम्हें नहीं डराता; अपितु तुम्हारा डरपोक मन ही तम्हें डराता है । किनसे डरा जाए : भारतवर्ष की देवियाँ बड़ी निडर और बहादुर हुई हैं। रानी दुर्गा ने आक्रमणकारी यवन-राक्षसों को मार भगाया था। झाँपी की रानी ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये थे । सीताजी और द्रौपदी को अपने पति के साथ कैसे भयानक सूने वनों में रहीं। सीताजी को जब राक्षस रावण चुराकर ले गया, तब वह कितनी निडर रही थीं? रावण ने बहत डराया धमकाया फिर भी सीताजी उसे खुले दिल से फटकार बताती रहीं। भारत की पुत्रियों धर्म पर Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : आदर्श कन्या अपने प्राण निछावर करती रही हैं। चित्तौड़ की वीर नारियों ने आग में जिन्दा जल कर मर जाना अच्छा समझा, परन्तु मुसलमान गुण्डों के द्वारा अपना धर्म नष्ट नहीं होने दिया । तुम जानती हो, जेन-धम में भय करना, कितना बुरा बताया गया है ? जा नादमी बात-बात पर डरता है, भय खाता है, वह जैन कहलाने का अधिकारी नहीं है। भगवान महावीर ने कहा है-"न तुम भूत-प्रेत से डरो, जब तक तुम्हारा जीवन है, तब तक तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" जैन का अर्थ ही जीतने वाला है, वह डरेगा किससे ? सच्चा जैन और किसी चीज से नहीं डरता । वह डरता है, केवल पाप से बुराई से । तुम हमेशा लड़की ही तो न रहोगी, बड़ी बनोगी न ! जब तुम बड़ी बनोगी, तब तुम पर बहुत जवाबदारियाँ आएँगी ! कभी घर पर अकेली भी रहना होगा, क भी बाहर दूर देश की यात्रा भी करनी पड़ेगी। कभी किसी संकट का भो सामना करना होगा। अगर तुम निर्भय और बहादुर रहागी, तो संकटों और झंझटों को पार कर जाओगी । भयभीत हो-हो कर व रो-रो कर आंसू बहाने की आदत तुम्हें कुछ भी काम, समय पर न करने देगी। तुम क्या बनोगी: जो लड़कियाँ दब्बू और डरपोक होती है, गुण्डे लड़के उन्हें छेड़ते हैं । जो लड़की निडर, बेधड़क और वीर होती हैं, उन से गुण्डे भी डर जाते हैं, और दूर रहते हैं। यदि कभी कोई गुण्डा अभद्र व्यवहार करता है, तो बहादुर लड़कियाँ उसकी वह मरम्मत करती हैं, कि गुण्डे को अकल ठिकाने आ जाती है। फिर वह कभी, किसी भली लड़की को छेड़ने का साहस नहीं करता। तुम वार बनो। दुर्गा और झाँसी की रानी बनो ! सीता और द्रोपदी बनो ! तुम जहाँ भी रहो वहीं बड़ों के आगे भोली-माली बनो और विरोधी गुण्डों के आगे भयंकर शेरनी बनकर रहो।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 | हृदय का अन्धकार निन्दा किसी भी व्यक्ति की अनुपस्थिति में उसकी निन्दा करना, एक भयंकर पाप है । शास्त्रीय शब्दों में कहा जाय तो "किसी भी व्यक्ति की निन्दा करना एक प्रकार से उसकी पीठ का मांस ही नोंच-नोच कर खाता है ।" संसार में जितने भी पाप हैं, सबमें बड़ा पाप निन्दा है । निन्दक मनुष्य व्यर्थ ही दूसरों की निन्दा करता है, और इसमें अपना अमूल्य समय गंवाता है, और वह इस तरह जपने हृदय का कलुषित करता है । भगवान महावीर ने कहा कि - " निन्दा बहुत खराब चीज है । निन्दा करने वाला, मनुष्य की पीठ का माँस खाता है । अर्थात् किसी की पीठ पीछे निन्दा करना, एक प्रकार से उसकी पीठ का माँस ही नोच-नोच कर खाना है ।" पुत्रियों, कितना जघन्य पाप है वह । एक जैनाचार्य ने निन्दा की अतीव कठोर शब्दों में भर्त्सना की है। उनका कहना है कि - "निन्दा करने वाला सूअर का साथी हाता है । जिस प्रकार सूअर उत्तम मिष्ठान को छोड़कर विष्ठा खाकर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार निन्दा करने वाला मनुष्य भी हजार गुणों को छोड़कर केवल दुर्गुणों को ही अपनी जिह्वा पर लेता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : आदर्श कम्या यह एक प्रकार से दूसरे की अन्य महापुरुषों के बचनों से गहनतम अन्धकार है । विष्ठा का ही खाना हुआ ।" इस तरह ही यह सिद्ध है, कि निन्दा हृदय का हुआ आजकल नारी जाति में यह दुर्गुण विशेष रूप से फैला | क्या शहर, क्या गाँव, क्या घर, क्या धर्म स्थान आदि स्थानों पर स्त्रियाँ जब कभी एक साथ मिलकर बैठती हैं, तो वे किसो अच्छी बात पर विचार चर्चा नहीं करतीं । क्या शुभ कार्य करना चाहिए, किसकी क्या सहायता करनी चाहिए, किसका सद्गुण अपनाना चाहिए, कौन-सा काम करने से भलाई होगी - इन बातों को वे भूल कर भी नहीं सोचती । भाजकल नारी की दृष्टि, दूसरों के गुणों पर नहीं, दुर्गुणों पर है । वह खरे सोने में भी खोट हो खोजा करती हैं। गुण-कीर्तन के स्थान में दोषोद्घाटन करना ही, उनकी विशेषता है । अमुक स्त्री फड, झगडालू है । उसका चालचलन ठीक नहीं है, उसकी नाक बैठी हुई है । देखो न वह अमुक स्त्री बन-ठन कर रहती है । उसे कोई सलीका नहीं है, वह तो रोटी भी नहीं बना सकती । इस तरह बिना मतलब की बातें घन्टों बैठकर किया करती हैं। मालूम नहीं, इन बिना सिर पैर की बातों से क्या लाभ होता है ? निन्दा कलह की शृंखला है : स्त्रियों का हृदय छोटा होता जा रहा है । प्रायः वे किसी सुनी हुई बात को अपने हृदय में नहीं रख सकतीं। जब कोई स्त्री किसी की आलोचना करती है, तो सुनने वाली स्त्री उससे जाकर कह देती है - " वह तुम्हारे सम्बन्ध में अमुक स्त्री यों कह रही थी ।" बस फिर क्या है, कलह का सूत्रपात हो जाता है। इससे आपस में वह जमकर लड़ाई होती है, कि सारा मुहल्ला उनके सद्गुणों से परिचित Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय का भन्धकार : निन्दा ६१ हो जाता है । आपस में मर्म खुलते हैं, पीढ़ियों की कीचड़ उछाली जाती है, और इस प्रकार कलह को एक मजबूत शृंखला कायम हो जाती हैं। निन्दा की माग : पुत्रियो ! तुम अभी जीवन-क्षेत्र में प्रवेश ही कर रही हो । तुम अभी से इन दुगुणों की बुराई को समझ लो और इनसे बचकर रहो। अपने हृदय को इस छोटे स्तर से ऊंचा उठाने का प्रयत्न करो। जो लडकियां इस प्रकार निन्दा-बुराई के फेर में पड़ जाती हैं, उनके हृदय की उन्नति नहीं हो सकती। वे कभी कोई अच्छी बात सोच ही नहीं सकतीं। अपने प्रेमी से प्रेमी व्यक्ति में भी वे दोष ही हुँदा करती हैं। माता हो, पिता हो, भाई हो, बहन हो, भाभी हो, सहेली हो, कोई भी क्यों न हो, वे सब दोष खोजती हैं और निन्दा करती है। आगे चलकर ससुराल में उनका यह दुर्गुण और बढ़ जाता है । रात-दिन सास, ससर, ननद, देवरानी, जेठानी आदि के दोष देखना और उनकी शिकायत करना ही उनका काम हो जाता है । ऐसी लड़कियों से सारा परिवार तंग आ जाता है । अतः किसी की निंदा मत करो, किसी मे घणा और द्वेष भी मत करो ! निन्दा हृदय को जलाने वाला दुगुण है । यह दोनों ओर आग लगाती है । इस आग में आज भारतीय परिवार जल रहे हैं। आलोचना का सिद्धान्त : अगर कभी तुम्हें पता लगे, कि अमुक स्त्री में या अमुक व्यक्ति में कोई दोष है, तो उसकी सहण निन्दा मत करो। यदि तुम अपने को इस योग्य समझो, तो उसके पास जाकर या उसे अपने पास बुलाकर, एकान्त में उसे समझा दो । दोष दूर करने का प्रयत्न हो, न कि किसी को बदनाम करने का । ऐसा करने से तुम्हारा हृदय Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : आदर्श कन्या उन्नत होगा, समाज में तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। अतः सबकी कल्याण कामना करनी चाहिए। आलोचना करने के सम्बन्ध में एक सिद्धान्त है, कि यदि कभी किसी से कोई भूल हो गई हो, तो उसकी तो निन्दा मत करो, अपितु सम्बन्धित व्यक्ति से कह दो--"तुमने ऐसा काम किया है, यह ऐसा नहीं होना चाहिए।" जिसमें आत्म-शोधन की बुद्धि होगी। तो वह तुम्हारी बातों पर अवश्य विचार करेगा, और अपनी भूल को स्वीकार करेगा, तथा मागे न करने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञा भी करेगा। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 | विलास विनाश है : विलासिता से मानवता का बलपूर्वक अपहरण किया है, अतीत की ओर झाँक कर देखें, तो वह स्पष्ट हो जाता है । अत: विलास हमारा बिनाशक न बन जाए, इसका विचार करना आवश्यक है । समय के साथ-साथ भारत की गतिविधि में परिवर्तन आ रहे हैं । आज वह तप और त्याग का जीवन कहाँ, जो भारत के लिए सदैव से गर्व का विषय रहा है । आज न वह पहले सोनिका है और न वह सीधा-सादा सरल जीवन ही । लिपिस्टिक की मुस्कान : आज देश में विलासिता का बड़ा भयंकर जोर है । जिवर भो दृष्टि डालिए, उधर ही विलासिता का नंगा नाच दिखाई पड़ता है । क्या बालक, क्या युवा, क्या बूढ़े सब विलासिता के प्रभाव में बहे जा रहे हैं । विलासिता का सबसे अधिक प्रभाव भारती की नारी जाति पर पड़ा है । वह सीता और द्रौपदी जैसा कर्म जीवन आज कहाँ है ? 5 आज भारत के चतुर्दिक में लिपिस्टिक को मुस्कान दिखाई दे रही है, नारी का नैसर्गिक सौन्दर्य इससे नष्ट हो रहा है, परन्तु नारी फिर भी कृत्रिमता का हो पल्ला पकड़े हुए हैं । वह इस देश Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : आदर्श कन्या की देवी बनना नहीं चाहती है। प्रकृति के स्वयं सिद्ध सौन्दर्य पर उसे विश्वास नहीं रहा। बड़े-बड़े शहरों में आज का नारी जोवन "देखकर कौन कह सकता है, कि यहां की नारी गृह देवी है, प्रत्युत ऐसा भान होता है, कि आज की भारतीय नारी का आदशं बाजारू बन गया? पुत्रियो ! तुम्हें नारी जीवन के इस विनाशकारी प्रवाह का शीघ्र ही रुख मोड़ना पड़गा। तुम अपने सीधे-सादे कर्मठ जोवन से विलासिता का परित्याग कर सादगी का सुन्दर आदर्श उपस्थित कर सकती हो । जैन-धर्म का आदर्श शरीर नहीं है, शरीर का कालागोरापन नहा है, रग-बिरंगे वस्त्र नहीं है और न सोने-चांदी के जड़ाऊ गहने ही हैं । जैन धर्म का आदर्श तप और त्याग है । सेवामय सीदा-सादा कमठ जीवन ही नारी का आदर्श है। जो नारी स्वच्छता, सुन्दरता, शुद्धता से प्रेम करेगी, वह वासना बढ़ाने वाले फशन को कदापि महत्व नही देगी। काम प्यारा है चाम नहीं : क्या तुम समझती हो, कि भड़कीले कपड़े पहनकर दूसरी साधारण स्थिति की स्त्रियों को नीचा दिखा सकोगी ? यदि तुम ऐसा समझती हो तो कहना पड़ेगा कि तुम मूर्ख हो। इस प्रकार अमर्यादित शृंगार करना कभी नारी के महत्व का कारण नहीं हो सकता । यह निश्चित समझो, कि किसी का गौरव इस कारण नहीं होता, कि उसके पास अच्छे-अच्छे कपड़े हैं और वह अच्छा सुगन्धित तेल लगाती है । गौरव के लिए अच्छे गुणों का होना आवश्यक है । संसार में सदा से सदाचार और सरल जीवन का हो आदर तथा गौरव होता आया है, क्योंकि मनुष्य को काम प्यारा है चाम नहीं। विलासिता स्वयं एक महान् दुर्गुण है। यह मन में वासनाओं को बढ़ाता है । ब्रह्मचर्य और सतीत्व की भावनाओं को क्षीण कर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलास विनाश है : ६५ देता है । विलासिता के साथ दूसरे अनेक दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं । विलासी स्त्रियाँ प्रायः अकर्मण्य हा जाती हैं । कपड़े मैले न हो जाएँ, बनाया हुमा श्रृंगार न बिगड़ जाय, इसी की चिन्ता उन्हें सदा बनी रहती है । अतः कोई भी अच्छा सेवा का कार्य वे नहीं कर सकतीं । जो अपने सौन्दर्य के बहम में सदैव बनाव शृंगार करने में हो लगी रही हैं, वे दूसरी भोली-भाली स्त्रियों के जीवन में भी डाह और ईर्ष्या पैदा कर देती हैं । एक जगह की आग दूसरी जगह फैला देती हैं । विलासी स्त्रियों के स्वभाव में अहंकार घर कर ही जाता है । तुम्हारा सौन्दर्य और बढ़ेगा : मानव जीवन में अभ्यास का बड़ा महत्व है । मनुष्य जैसा अभ्यास करता है, वैसा ही बन जाता है । यदि तुम जीवन में कर्मउता का तप और त्याग का अभ्यास करोगी, तो तुम उसी रूप में ढल जाओगी । अगर तुम नाजुक मिजाजो में पड़कर विलासी जोवन अपना लोगी, उसी रूप में नाजुक बनकर रह जाओगी । परन्तु यह याद रखो, विलासिता जीवन का स्थायी अंग नहीं है । यदि कभी तुम्हें किसी विपत्ति का सामना करना पड़े तो उस समय क्या तुम अपने कर्तव्य का पालन कर सकोगी ? विलासी जीवन विपत्ति की चोट को जरा भी सहन नहीं कर सकता । मन मे आवश्यकता से अधिक भोग, बुद्धि रखना, अपनी स्थिति से बढ़कर बाह्य प्रदर्शन करना, अनावश्यक भोग-साधनों की ओर झुकाव रखना, यह सब विलासिता ही है । यदि तुम हृदय से अपनी, अपने देश की, अपने समाज की और अपने परिवार की भलाई चाहती हो, तो शीघ्र ही इस विलासिता राक्षसी को अपने मन से निकाल कर बाहर करदो | मन को पवित्रता तन पर अवश्य झलकेगी, और इससे तुम्हारा सौन्दर्य बढ़ेगा । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 नारी को सच्चा सुख, सबको खिला कर खाने में है । आज यह आदर्श धूमिल पड़ रहा है । अतः हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा, इस धूमिलता में नारी का मातृत्व भी धूमिल हो रहा है । नारी का पद : अन्नपूर्णा इतिहास, गवाही दे रहा है- एक स्वर से, एक राग से, प्रतिपल प्रतिक्षण कि नारी का पद अन्नपूर्णा है । नारी साक्षात् स्नेह और प्रेम की जीवित मृर्ति है । नारी का प्रेम रस से सराबोर हृदय, अपने घर के सदस्यों को प्रेम पूर्वक भोजन परोस चुकने पर, उन सबके खा चुकने पर जो सुखानुभूति करता है, उसका व्याख्यान नारी का हृदय ही कर सकता है । उस समय जो प्रसन्नता उसे अनुभव होती है, उसका यथातथ्य वर्णन उसकी वाणी स्वयं भी नहीं कर सकती। उस अपूर्व प्रसन्नता की अनुभूति तो अनुभूतशील मनुष्य का हृदय ही कर सकता है । अकेले खाना पाप है : अगर तुम्हें अच्छी नारी बनना है और इज्जत की जिन्दगी से जीना है, तो पहले छोटे-बड़े भाई-बहिनों को बाँटकर पीछे से बचा हुआ खुद खाओ । भगवान् महावीर ने कहा है, कि जो अकेले खाता है, साथ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वहमत होता है। रहने वाले लो श्रीकृष्ण जी नारो का पद अन्नपूर्णा : ६७ वालों को बौटकर नहीं खिलाता है, वह कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।" __भारतवर्ष के प्रसिद्ध कर्मयोगी श्रीकृष्ण जी ने भी कहा है जो भोजन, आस-पास में रहने वाले लोगों को बाँटकर खाया जाता है, वह अमृत होता है । जो आदमी बाँटकर नहीं खाता है, अकेला खाता है, वह पाप खाता है । बाँटकर खाने वाले के सब एप नष्ट हो जाते हैं, और वह परमात्मा के पद को पा लेता है।' ____जानती हो, तुमको शास्त्रों में घर की लक्ष्मी कहा है । लक्ष्मी का मन उदार होना चाहिए। अगर लक्ष्मी का मन छोटा हो जाए, तो कितना अनर्थ हो जाएगा? स्त्री को चौके की मालकिन बनना है, अन्नपूर्णा बनना है, अपने हाथों भोजन बन ना है और सबको बिना किसी भेदभाव के एक जैसा परोसना है । भोजन परोसने वाली नारी को यह ख्याल नहीं रखना चाहिए, कि मेरे लिए भो कुछ बचता है या नहीं ? वह तो एक दाना भी रहेगा, तब तक चौके में भोजन करने वालों को प्रसन्नभाव से-गद्गद् हृदय से परोसती ही रहेगो। वह सच्ची गृहलक्ष्मी कहलाती है । इसलिए तुम प्रारम्भ से ही मन को उदार रखने को आदत डालो, जो मिले उसे बाँट कर खाओ। कभी भी छुपाकर या चोरी से अकेले खाने का विचार मन में मत लाओ। नारी का स्नेह इससे विकसित तथा विस्तृत होता है, कि वह सबको भोजन अपने हाथों से परोस कर खिलाए। लक्ष्मी के लिए द्वार खोलो : किसी घर में धन-वैभव का भण्डार और लक्ष्मी का निवास तभी होता है, जब उस घर की लड़कियाँ और बहुएँ दिल की उदार होती हैं । जब घर की नारियों का दिल छोटा हो जाता है, तो हाथ बाँटते समय कांपने लगता है, और इससे छुपा-चुराकर खाने का भाव बढ़ जाता है, उस अवस्था में घर की लक्ष्मी का नाश होकर गरीबी और Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : आदर्श कन्या भुखमरा का राज्य हो जाता है। हाथ खुला रहने से ही लक्ष्मी का द्वार खुल जाता है । और मुटठी बन्द से,लक्ष्मी का द्वार बन्द हो जाता है अतः हाथ मुला रहने की आदत डालो। ___ बहुत-सी लड़कियाँ बड़ी भुक्कड़ होती हैं । जब कभी पिता, भाई या कोई रिश्तेदार घर में खाने-पीने की चीज लाता है, तो भुक्कड़ लड़कियाँ पीछे पड़ जाती हैं। सबसे पहले दौड़कर माँगना, अपने हिरसे से ज्यादा माँगा, न मिलने पर रोना, चिल्लाना, लड़ना, झगडना, गाली देना आदि बहत खराब बात हैं। मन में सन्तोष रखना चाहिए । जब सब भाई बहिनों का चीज बाँटी जाए, तभी लेनी चाहिए और अपना हिम्सा लेकर भी सबको बाँटकर या लेने के लिए कह कर हो खाना चाहिए। जब कभी पाठशाला में अथवा घर में कोई खाने की चीज खरीदो तो सबके सामने अकेली मत खाओ। खाने से पहले साथ की लड़कियों को खाने के लिए आग्रह करो । बहुत-सी लड़कियाँ सोचा करती हैं, कि-"जब दूसरी लड़कियाँ हमें नहीं देती हैं तो हम ही उन्हें क्यों द?'' यह सोचना ठीक नहीं। तुम अपना फर्ज अदा करो। उनकी वे जाने । तुम क्यों ऐसी छोटी बात ख्याल में लाती हो? जो चीज खरीदो, या खाओ, बड़े आदर के साथ और नम्र शब्दों में साथ की लड़की को भी खाने के लिए आग्रह करो । बहुत-सी लड़कियाँ, गरीब लड़कियों का चिढ़ाने के लिए दिखा दिखाकर खाया करती हैं-यह आदत बड़ी खराब है। ऐसा करने से उसके दिल को कितना दु:ख होगा, जरा विचार करो। तुम्हारे पास धन है, तो दूसरों को मदद करने के लिए है, न कि उन्हें चिढ़ाने के लिए। तुम्हें तो भारत की सन्नारी अन्नपूर्णा देवी बनना चाहिए। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण-कण से सागर बन जाता है। मानवता के इन अमुत कणों का संचय कीजिए, मानवता का महान सागर छलछला उठेगा। 26 मानवता के ये अमृत कण"! जीवन में जो हृदय और बुद्धि का विकास करे, वही देव है ! जीवन में जो इच्छाओं का गुलाम हाता है, वही नारको है ! जीवन में जो विवेक का आचरण नहीं रखता, वही पशु है ! जीवन में जो दुःखो के प्रति सहानुभूति रखता है, वही मनुष्य है. x जो अपना स्वाभिमान नहीं रखता, वह मनुष्य नहीं। जो अपनी बुद्धि पर विश्वास नहीं रखता, वह मनुष्य नहीं ! जो हितषियों का परामर्श नहीं मानता, वह मनुष्य नहीं ! माहार के बढ़ने से बीमारी होती है ! निद्रा के बढ़ने से बुद्धि का नाश होता है ! भय के बढ़ने से बल को हानि हाती है ! काम-वासना के बढ़ने से मनुष्यत्व का नाश होता है। आहार, निद्रा, भय और काम-वासना बढ़ाने से बढ़ती है ? + + मान की चाह से मान दूर भागता है ! मान देने से मान मिलता है । प्रामाणिक बातों से मान मिलता है ! नम्र स्वभाव से मान मिलता है ! Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : आदर्श कन्या टेक बनाए रखने से मान मिलता है ! बुद्धि-बल से मान मिलता है! तीन बातें कुटुम्ब जागरण की हैं : कुटुम्बी मनुष्यों के सुख-दुःख का विचार करना ! कुटुम्ब-सुधार के उचित उपायों का विचार करना ! कुटुम्ब के प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता का विचार करना ! धर्म-सम्बन्धी विचार करना, धर्म जागरण है। आत्म-सम्बन्धी विचार करना, आत्म-जागरण है। अपने कार्यों और विचारों की जांच करना, अन्तर्जागरण है। वैभव पर मोहित होना, अकर्मण्यता है । उच्च कुल पर मोहित होना, अन्धापन है। अच्छे गुणों पर मोहित होना, मनुष्यत्व है । xx दुनियाँ अनुभव की पाठशाला है। अपना घर भी विद्यालय है। भले-बुरे प्रसंग तुम्हारे शिक्षक हैं। तीन बातों से यश बढ़ता है : १. अपनी प्रशंसा न करने से । २. शत्रु की निन्दा न करने से । ३. दूसरों का दुःख दूर करने से । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन आँसू पवित्र हैं : १. प्रेम के । २. करुणा के । तीन से सदा बचो : मानवता के ये अमृत कण : १०१ ३. सहानुभूति के । १. अपनी प्रशंसा से । २. दूसरों की निन्दा से । ३. दूसरों के दोष देखने से । तीन आँसू अपवित्र हैं : १. शोक के । २. क्रोध के । तीन प्रकार के वचन वोलो ! ३. दम्भ के । १. सत्य वचन । २. हित वचन । ३. मधुर वचन | चार प्रकृतियाँ सत्यवादी की हैं : १. अधिक बातें न करना । २. सोच-विचार कर बोलना । ३. अपना बचन पूरा करना । ४. अपना देना - लेना साफ रखना । चार प्रकृतियाँ मिथ्यावादी हैं : १. झूठी गवाही देना । २. झूठी सौगन्ध खाना । ३. भरोसा देकर काम न करना । ४. आप्त-पुरुषों पर श्रद्धा न रखना । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : आदर्श कन्या चार प्रकतियाँ पशुओं की हैं : १. नीचा शब्द बोलना । २. बिना कारण झगड़ना । ३. अधिक भोजन करना । ४. बड़ों का आदर न करना । चार प्रकृतियाँ बहुत अच्छी हैं : १. निर्लज्ज । होना । २. उदार हृदय रखना । ३. किसी मे कभी कुछ न माँगना । ४. अपने हिस्से का भी बाँटकर खाना । X X चार प्रकृतियाँ विनयी की हैं : १. दीनों पर दया करना । ६. सज्जनों का आदर करना । ३. मनुष्य मात्र से प्रेम करना । ४. विद्वानों का सत्संग करना । O Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप अग्नि है, आत्मा का स्वर्ण तप के द्वारा निखरता है। तप हो जीवन में त्याग की ज्योति प्रज्ज्वलित करता है । यहाँ पढ़िए तप की परिभाषाएँ। चे लप को परिभाषाएँ : जहाँ अहिंसा, संयम और ता है, वहाँ धर्म है। मन, वचन, शरीर से किसी को दुःख न देना, अहिंसा है। भोग की लालसाओं को वश में रखना, संयम है। मन की वासनाओं को भस्म करने का उद्योग, तप है। लालसाओं को भस्म करने वाली आध्यात्मिक अग्नि, यह तप है। पूर्व कमों को जलाने वाली आध्यात्मिक अग्नि, यह तप है। उपहास, मिताहार, परिश्रम करके आहार करना, यह तप है। शरीर को माराम तलब न बनाकर सादगी से रहना, यह तप है। गुरु-जनों की विनय-भक्ति करना, सेवा करना, यह तप है। X X X थोड़ा बोलने का अभ्यास करना, यह भी तप है । विचार कर बोलने का अभ्याप करना, यह भी तप है। दीन-दुखी की सेवा, परोपकार करना, यह भी तप है। अपनी भूलों को स्वीकार करना, यह भी तप है। सदैव ज्ञानाभ्यास करना, ज्ञान की वृद्धि करना, यह भी ता है। भगवत्स्वरूप का ध्यान चिन्तन करना, यह भी तप है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : आदर्य कन्या अपनी शक्ति और सामर्थ्य से बाहर उपवास नहीं करना चाहिए । दूध पोते बालक को माता को उपवास नहीं करना चाहिए। दुर्बल क्षीण-काय रोगी को उपवास नहीं करना चाहिए। गर्भवती स्त्री को उपवास नहीं करना चाहिए। लड़-झगड़ कर कलह में उपवास नहीं करना चाहिए। उपवास में क्रोध नहीं करना । उपवास में अहंकार वहीं करना । उपनास में निन्दा बुराई नहीं करना । xxx उपवास में ब्रह्मचर्य अवश्य पालना चाहिए। उपवास में स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए । उपवास में आत्म स्वरूप का विचार करना चाहिए। उपवास में पापों की आलोचना करनी चाहिए । उपवास के दिन अनाव-श्रृंगार नहीं करने चाहिए। उपवास के दिन सिनेमा आदि नहीं देखने चाहिए। उपवास के दिन गन्दे उपन्यास नहीं पढ़ने चाहिए। xxx उपवास करने से पहले गरिष्ठ भोजन नहीं करना। उपवास करने से पहले अधिक भोजन नहीं करना । उपवास करने से पहले चटपटा सुस्वाद भोजन नहीं करना । ___ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये तप को परिभाषाएँ । १०५ ब्रत खोलने के दिन हलका और थोड़ा भोजन करना। व्रत खोलने के दिन एक प्रकार से अर्ध-उपवासी रहना। स्वर्ग आदि के लालच में उपवास नहीं करना। देवी-देवताओं की मनौती के लिए उपवास नहीं करना। यश-कीर्ति पाने के लिए भी उपबास नहीं करना। जीवन-शोधन के लिए ही तप करना चाहिए। आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिए ही तप करना चाहिए। तप आत्मा का पौष्टिक भोजन है। तप से तन और मन दोनों की शुद्धि होती है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । आदर्श कन्या आदशं सभ्यता जिस व्यक्ति से जिस काम के लिए जितने पैसे ठहरा लिए हों, उसे उतने ही पैसे दो, उससे कुछ भी कम देने की इच्छा न करो। किसी के मकान में प्रवेश करने से पहले उसकी अनुमति अवश्य ले लेनी चाहिए । रेल, तारघर, डाकघर, सभा, पुस्तकालय, कारखाने आदि किसी भी, सार्वजनिक स्थान की लिखी हुई सूचनाओं का उल्लंघन कदापि न करो। xxx यदि इधर-उधर आते जाते या उठते-बैठते किसी पुरुष अथवा स्त्री से तुम्हारा पैर छु जाए तो उससे हाथ जोड़कर झट-पट विनम्रतापूर्वक क्षमा मांगनी चाहिए। X X X नाक का मल, कफ या थूक आदि दीवारों पर, घर के कोनों में, किवाड़ों के पीछे या अन्य किसी सार्वजनिक स्थान पर नहीं डालना चाहिए। xxx किसी की खोई हुई या गिरी हुई वस्तु आदि - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श सभ्यता : १०७ आदर्श सभ्यता कभी आपको मिल जाए, तो आप उसके मालिक को लौटा दो । यदि मालिक का पता न लगे, तो उसे अपने पास न रखकर पुलिस ऑफिस में या किसी प्रामाणिक संस्था में जमा करा दो, ताकि वे उसे उसके मालिक के पास पहुँचा दें। यदि मांगी हुई पुस्रक या अन्य कोई वस्र खो जाए अथवा खराब हो जाय, तो उसके मालिक को बदले में नयी मंगवाकर दो । यदि मंगाकर देने की स्थिति न हो, तो इसके लिए सच्चे हृदय से क्षमा माँगो। + + + मार्ग में चलते हुए यदि कोई ठोकर खा जाए और गिर पड़े, तो तुम उसकी दुर्दशा पर हँसो मत । बल्कि सहृदयता से उसके प्रति संवेदना प्रकट करो, और उसको सँभलने में सहायता पहुँचाओ। + + + यदि कभी किसी दूसरे की पुस्तक पढ़ने को मांगकर ली जाए, तो उस पर अपना नाम पता आदि कुछ न लिखो, याद रखो कि पृष्ठों के कोने न मुड़ जाएँ और वह पुस्तक जैसी ली है वैसी ही पहुँचे । + + + Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : आदर्श कभ्या आदर्श सभ्यता (] केले के छिलके या औरभी कोई ऐसी ही चीज सड़क पर चाहे जहाँ मत डालो । केले के छिलके पर पैर फिसल जाता है, और कभीकभी पथिक सदा के लिए घातक चोट खा बैठता है । + + + भाषण सुनने के लिए किसी सभा में पहुँचो; तो एक दम बीच में उठकर न चली जाओ । याद रखो, वक्ता के लिए यह अपमानजनक व्यवहार है । यदि आवश्यक कार्यवश जाना ही हो, तो चालू भाषण पूरा होने पर और दूसरा भाषण प्रारम्भ होने से पहले ही चुपचाप धीरे से चली जाओ । + + + अन्धा, लूला, लंगड़ा, कहना अथवा और भी कोई किसी प्रकार का अंग-हीन या पागल मिले तो उसकी हँसी न उड़ाओ, मजाक न करो, जहाँ तक हो सके उसके साथ अधिक से अधिक आत्मीयता का व्यवहार करो। + + + किसी से बात-चीत करते समय 'हो' या 'न' के स्थान पर 'जी' हाँ, जी नहीं आदि बहुत मधुर और शिष्ट शब्दों का प्रयोग करो । + + + Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श सभ्यता : १०६ आदर्श सभ्यता - जब कभी गुरुदेव या कोई अपने से बड़ा पूज्य पुरुष तथा साध्वी आदि आपके यहाँ आएँ तो उसको झटपट खड़े होकर सम्मान दो और यथा-योग्य विधि से वन्दन या नमस्कार करो। + + + कपड़े हमेशा साफ-सुथरे पहनो । कम कीमत के और मोटे भले ही हों, किन्तु साफ हों। अधिक तड़क-भड़क से रेशमी या मखमली कपड़े उचित नहीं हैं। + + + किसी से कोई वस्तु लेकर मजाक में भी उसे लौटाते समय फेंकना नहीं चाहिए। जिस प्रेम और सद्भावना से वस्तु ली गई थी, उसी प्रेम और सद्भावना से लौटाओ भी। + + + लिखते समय कलम, हाथ और कपड़ों को स्याही से लथपथ न होने दो। कलम को साफ करने के लिए अपने हाथ पैरों से और सिर के बालों से मत पोंछो । कलम में स्याही अधिक भर जाए, तो इधर-उधर मत छोटो। इन सब कामों के लिए एक अलग वस्त्र का टुकड़ा रखो। + + + Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०: आदर्श कन्या आदर्श सभ्यता दो आदमियों की बातों में बोलना, अनाधिकार चेष्टा है। ये सब भयंकर दुर्गुल हैं। इनसे ध्यानपूर्वक छुटकारा पाने का प्रयत्न करो। + + + सोते हुए मनुष्य के पास इतने जोर से पैर पटक कर न चलो, फिरो, जिससे उसको नींद उचट जाए। सोने वाले के पास बैठक र ऊँची आवाज से हँसना या बोलना भी नहीं चाहिए। + + + जिस किसी आदमी से जो चीज मांगकर लाओ ठीक समय पर उसे वापस लौटा दो। चीज, उसके बार-बार मांगने पर यदि वापिस लौटाई, तो तुम्हारी सच्चाई कहाँ रही? Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मति आगरा