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________________ दरिद्रनारायण की सेवा : ७५ चिन्ह है । जिसके हृदय में दया नहीं, वह मनुष्य नहीं, पशु है। और फिर घर के बीमारों की सेवा करना, तो दया ही नहीं; कर्तव्य है । जिस मनुष्य ने समय पर अपने आवश्यक कर्तव्य को पूरा नहीं किया वह जीवन में और भला क्या काम करेगा ? बहत-सी लड़कियां रोगी की सेवा से 'जी चराती हैं । जब कभी कोई घर में बीमार पड़ जाता है, तब दूर-दूर रहती हैं पास तक नहीं आती हैं। यह आदत बड़ी खराब है, जैन-धर्म में इस प्रकार सेवा करने से जी चुराने को पाप बताया है । जैन-धर्म का भादर्श ही सेवा करना है । वह तो अपने पड़ौसी और साधारण पशु-पक्षी तक की सेवा और रक्षा के लिए पदेश देता है। भला जो मनुष्य की, और वह भी अपने घर वालों की सेवा नहीं कर सकती, वह पडौसी और पशु-पक्षियों की क्या रक्षा करेगी ? उनकी दया कैसे पालेगी ? रोगों की सेवा तो प्रभू की सेवा से भी बढ़कर है। सेवा की विधि जब भी समय मिले रोगी के पास बैठो । समय क्या मिले, समय निकालो। यदि रोगी घबराता हो, तो उसे मीठे वचनों से तसल्ली दो। जब देखो, कि रोगी बहुत घबरा रहा है. तो कोई अच्छा-सा धार्मिक विषय छेड़ दो, कोई अच्छी-सी धार्मिक कथा सुनाओ । धार्मिक बातें सुनने से आत्मा में शान्ति और बल बढ़ता है, तथा रोगी का मन भी अपनी व्याधि पर से हटकर अच्छे विचारों में लग जाता है। रोगी के लिए स्वच्छता का बहुत ध्यान रक्खो ! रोगी के आस-. पास जरा भी गन्दगी नहीं रहनी चाहिए। कपड़े गन्दे और मैले हों, आस-पास गन्दगी हो, तो रोग दूर होने के बजाय अधिक बढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003413
Book TitleAdarsh Kanya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Conduct
File Size4 MB
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