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हृदय का अन्धकार निन्दा
किसी भी व्यक्ति की अनुपस्थिति में उसकी निन्दा करना, एक भयंकर पाप है । शास्त्रीय शब्दों में कहा जाय तो "किसी भी व्यक्ति की निन्दा करना एक प्रकार से उसकी पीठ का मांस ही नोंच-नोच कर खाता है ।"
संसार में जितने भी पाप हैं, सबमें बड़ा पाप निन्दा है । निन्दक मनुष्य व्यर्थ ही दूसरों की निन्दा करता है, और इसमें अपना अमूल्य समय गंवाता है, और वह इस तरह जपने हृदय का कलुषित करता है ।
भगवान महावीर ने कहा कि - " निन्दा बहुत खराब चीज है । निन्दा करने वाला, मनुष्य की पीठ का माँस खाता है । अर्थात् किसी की पीठ पीछे निन्दा करना, एक प्रकार से उसकी पीठ का माँस ही नोच-नोच कर खाना है ।" पुत्रियों, कितना जघन्य पाप है वह ।
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एक जैनाचार्य ने निन्दा की अतीव कठोर शब्दों में भर्त्सना की है। उनका कहना है कि - "निन्दा करने वाला सूअर का साथी हाता है । जिस प्रकार सूअर उत्तम मिष्ठान को छोड़कर विष्ठा खाकर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार निन्दा करने वाला मनुष्य भी हजार गुणों को छोड़कर केवल दुर्गुणों को ही अपनी जिह्वा पर लेता है।
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