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'६० : आदर्श कन्या
करना, भारत की सभ्यता के सर्वथा प्रतिकूल है । वस्त्र का अर्थ तन ढाँपना है, वह स्वच्छ तो होना चाहिए, परन्तु इतना बारीक नहीं होना चाहिए, कि जिससे अपनी लज्जा भी न बचाई जा सके ।
लज्जा साधक या बाधक ?
हर किसी के साथ बात-चीत करने में थोड़ा संकोच रखना चाहिए। अधिक बोलने से और इधर-उधर की गप-शप करने से कुछ शोभा नहीं होती है । स्त्री के लिए तो कम बोलना और समय पर आवश्यकता पड़ने पर ही बोलना अच्छा माना गया है । जो कन्याएँ प्रारम्भ से ही इस गुण को अपनाती हैं वे वे भविष्य में योग्य गृहइ-लक्ष्मी प्रमाणित होती हैं ।
जो नारी एक अक्षर भी नहीं जानती और लज्जावती हैं. उनका 'जितना आदर समाज म होता है, उतना उन विदुषी, परन्तु लज्जा" हीन स्त्रियों का नहीं होता । अस्तु, प्रत्येक लड़की और स्त्री को चाहिए कि बह लज्जा को अपना भूषण बनाए । परन्तु ध्यान रहे कि लज्जा में अति न होने पाए। सब जगह अति करने से हानि होती है। बहुत सी लड़कियाँ लज्जाशील इतनी अधिक होती हैं, कि वे लज्जा के कारण कुछ काम भी नहीं कर सकतीं । हर समय सिकुड़े - सिमटे रहना और घर के कोने में दुबके रहना, कोई अच्छी बात नहीं है । बहुत-सी लड़कियाँ तो लज्जा के कारण किसी बड़ीबूढ़ी स्त्री से, तथा किसी परिचित भले आदमी से बात-चीत भी नहीं कर सकती, यह लज्जा की पद्धति, नारी जाति की उन्नति में बाधक है ।
कुछ सलाह :
हसना बुरा नहीं है । वह मानव प्रकृति का एक विशिष्ट गुण
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