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सुख का कोई भी सामान जुटाना हो, पैसा देने को हाथ पहले बढ़ाना पड़ेगा । कुछ न कुछ व्यय होता हैं । अपना जाता है तब कुछ सामने आता है । व्यय हो जाने में विवशता जाहिर है। व्यय किया जाए-पर विचार पूर्वक इसमें वृद्धि का योग होना चाहिए।
वस्तु-व्यय पद्धति
यदि देखा जाय तो घर को वास्तविक स्वामिनी स्त्री है। गृहस्थी चलाने का भार अधिकतर स्त्रियों पर ही रहता है । इसलिए प्रत्येक स्त्री का कर्तव्य है, कि वह घर के हर एक खर्च में पैसा बचाने का प्रयत्न करे। स्त्री चाहे तो घर को उजाड दे, और चाहे तो घर को भरा-पूरा भी बना दे, यह उसके हाथ को साधारण सी बात है।
यदि स्त्री समझदार होगी, यदि वह निरर्थक खर्च न कर बहुत सोच-समझकर काम करेगी, तो उसका घर थोड़ी-सी आमदनी में भी पूरा रहेगा। वह किसी भी चीज को व्यर्थ नष्ट न करेगी। अन्न का एक-एक दाना और वस्त्र का एक-एक धागा भी वह सावधानी से बचाकर काम में लाएगी। जैन-धर्म में इसे यतना कहा है। जैन-धर्म पानी तक के अनावश्यक खर्च का दोष मानता है । जैन-धर्म में गृहस्थी का आदर्श है, कि "आवश्यकता होने पर अति लोभ न करो, और आवश्यकता न होने पर अति उदार होकर वस्तू का अपव्यय भी न करो।"
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