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आत्मा के इसी मूल एवं पूर्ण स्वरूप को प्रकट करने का सशक्त साधन है आत्म समीक्षण। समीक्षण का अर्थ है समतामयी दृष्टि से देखना। यह इस रूप में देखने का काम करती है साधक की आत्मा, और वह देखती है उस दृष्टि से संसार की सभी आत्माओं को। इस दर्शिता से विकसित होती है उसकी अभेद दृष्टि कि उसकी अपनी आत्मा और संसार की अन्य सभी आत्माओं में एक प्रकार से भेद नहीं है, एक प्रकार की समानता है। आत्म समीक्षण इस प्रकार एक ओर समता भावना को परिपुष्ट बनाता है तो दूसरी ओर आत्मा के ज्ञाता, दृष्टा एवं ध्याता भावों को क्रमशः विकास की ओर ले जाता है।
आत्म समीक्षण ही आत्मा के समतामय विकास का मूल मंत्र है। आत्म-समीक्षण के ध्यान एवं अनुष्ठान के बल पर आत्मा स्वयं ही स्वयं को ऊर्ध्वगामी बनाती है। यह समीक्षण केवल दृष्टा भाव का ही परिचायक नहीं होता, अपितु दृष्टा एवं ध्याता भाव के सामंजस्य से जो एक समता दृष्टि विकसित होती है—यह समीक्षण उसी अवस्था का प्रतीक माना जाना चाहिये।
आत्म समीक्षण चिन्तन एवं आचरण की वह प्रक्रिया है जो आत्मा में उन्नति की आकांक्षा पैदा करती है, उसे विकास के पहले सोपान पर स्थापित करके विभाव के भटकाव को हटाकर स्वभाव में प्रत्यावर्तित होने की प्रेरणा देती है और तब उसे ज्ञाता, दृष्टा एवं ध्याता भावों का परिपक्व अभ्यास कराती है ताकि वह आत्मा समता के धरातल से उसके सर्वोच्च शिखर तक प्रगति करती ही रहे। अन्य को अपने समता क्षेत्र में समाहित करके वह अनन्य बने और अनन्य आनन्द की अनुभूति लेते हुए अन्य आत्माओं को भी उस आनन्द से आप्लावित बनावे।
वर्तमान परिस्थितियों में, जब कि लोगों का अधिक रूझान भौतिक एवं पौद्गलिक सुखों की तरफ बढ़ रहा है, इस आत्म समीक्षण का महत्त्व अधिक प्रासंगिक एवं उपयोगी हो जाता है। अपनी वैभाविक परिणति के कारण अधिकांश आत्माएँ भौतिक सुखसाधनों से परिपूर्ण बाह्य परिवेश में ही अपने आपको अनुरंजित मानने लगी हैं या कि उसी विपरीत दिशा में गति कर रही हैं। एक प्रकार से आज का मन-मानस ऐसी विभावपूर्ण बाहर की जिन्दगी जीने का ही अभ्यस्त हो रहा है। यह अभ्यास भी ऐसी जड़ स्थिति तक पहुँचता जा रहा है, जहाँ इन आत्माओं को अपने ही मूल-शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा प्रतिकूल प्रतीत होने लगी है। यदि इन्हें निज-विकास की पिपासा न रही, अपने अनन्य स्वरूप को विस्तृत बनाने की आकांक्षा न बनी और आचरण को श्रेष्ठतर एवं श्रेष्ठतम बनाने की अभिरुचि क्षीण होती रही तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र की एक महान क्षति होगी। अतः आवश्यक है कि आत्म समीक्षण का अभ्यास अपनाया जाय चिन्तन और कर्म में तथा समीक्षण से समता की साधना की जाय।
आत्म समीक्षण के सतत अभ्यास से ही आत्मा को स्व-बोध होगा और वह तत्त्वों की हेयता, उपादेयता एवं ज्ञेयता को भलीभांति जान सकेगी तथा तदनुसार तत्त्वों से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन और दर्शन से चारित्र को समुन्नत बना सकेगी। समता से विभूषित यही रत्न त्रय का मार्ग है जो आत्मा के समस्त कर्मावरणों को हटा कर उसे मुक्ति के अनन्त आनन्द में सदा काल के लिए प्रतिष्ठित कर देता है।
प्रस्तुत ग्रंथ 'आत्म समीक्षण' में इसी दृष्टि से उत्तम पुरुष में लेखन किया गया है कि प्रत्येक आत्मा का, जो भी इसे पढ़े—यह भाव चिन्तन बन सके। इसका पठन करते हुए वह तल्लीन
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