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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम मन्या
काल न. -
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- -
मन -
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AY
RRBATIN
षट पाहु ग्रन्थ
-Ravaratarcas
श्रीकुन्दकुन्दस्वामी विरचित
प्रकाशक बाबू सूरजभान वकील मन्त्री जैन सिद्धान्त प्रचारक मण्डली देवबन्द सहारनपुर
Printed by Gouri Shanker Lal Manager,
at handraprabha Pres Benares, l'ublished by Babu Soorajbhan lakil,
Deoband S. baranpur.
49960
DoDa-3-0-0-0-
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'श्रीवीतरागाय नमः । श्री
षट् पाहुड़
श्री कुन्दकुन्दस्वामी विरचित
प्राकृत ग्रन्थ
जिसको
संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद कराकर जैन सिद्धान्त प्रचारक मंडली देवबन्द जिला सहारनपुर
के मंत्री
बाबू सूरज भानु वकील देवबन्द ने सन् १९९० इसबी में
चन्द्रप्रभा प्रेस बनारस में छपवाया
प्रथम बार १००० ]
[ मूल्य १)
Vastadaataavanatio
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॥ प्रस्तावना ॥
जैन जाति में ऐसा कोई मनुष्य न होगा जो श्रीकुन्दकुन्दस्वामी का पवित्र नाम न जानता हा क्योंकि शास्त्र सभा में प्रथम ही जो मङ्गलाचरण किया जाता है उम में श्रीकुन्दकुन्दस्वामी का नाम अवश्य आता है । श्रीकुन्दकुन्दस्वामी के रचे हुए अनेक पाहुड़ ग्रन्थ हैं जिन में अष्ट पाहड़ और घट पाहुड़ अधिक प्रसिद्ध हैं क्योंकि उन की भाषा टीका हो चुकी है। इस समय हम षट पाहुड़ ही प्रकाश करते हैं और दो पाहुड़ अलहदा प्रकाश करने का इरादा रखते हैं ओ षट पाहुड़ के माथ मिला देने से अष्ट पाहुड़ हो जाते हैं प्राकृत और संस्कृत के एक जैन विद्वान द्वारा प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद कराया गया है, अनुवादक महाशय नाम के भूखे नहीं है वरण जैन धर्म के प्रकाशित होने क अभिलाषी हैं इस कारण उन्हा ने अपना नाम छपाना जरूरी नहीं समझा है- ऐसे बिद्वान की सहायता के विदून प्राकृत गाथाओं का शुद्ध होना तो बहुत ही कठिन था क्योंकि मंदिरों में जो ग्रन्थ मिलत हैं उनमें प्राकृत वा संस्कृत मूल श्लोक तो अत्यंत ही अशुद्ध होते है-प्राकृत भाषा का अभाव होजाने के कारण संस्कृत छाया का साथ में लगादेना अति लाभकारी समझा गया है-आशा है कि पाठकगण अनुबादक के इस श्रमकी कदर करेंगे।
सूरजभानु वकील
देवबन्द
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→ पट पाहुड़ ग्रन्थ *<
-भ
श्री कुन्दकुन्द स्वामी विरचित दर्शन पाहुड़ [प्राभृत]
काऊ णमुक्कारं जिणवर वसहस्स वढमाणस्स । दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्पं समासेण ॥ १ ॥ कृत्वा नमस्कारं जिनवर वृषभस्य वर्धमानस्य । दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ॥
अर्थ - श्रीवृषभदेव अर्थात् श्री आदिनाथ स्वामी को और श्रीवर्द्धमान अर्थात् श्रीमहाबीर स्वामी को नमस्कार करके दर्शन मार्ग को संक्षेप के साथ यथा क्रम अर्थात् सिलसिलेवार वर्णन करता हूँ । दंसणमूलोधम्मो उवइहोजिणवरेहिं सिस्साणं | सोऊणसकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो ।। २ ॥ दर्शनमूलोधर्मः उपदिष्टोनिनवरैः शिष्याणाम् । तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः ॥
अर्थ - श्रीजिनेन्द्रदेव ने शिष्यों को धर्म का मूल दर्शन ही बताया है, अपने कान से इसको अर्थात् जिनेन्द्र के उपदेश को सुन कर मिथ्या दृष्टियों अर्थात् धर्मात्मापने का भेष धरनेवाले मिथ्यात्वी साधु आदिकों को [ धर्म भाव से] बन्दना करना योग्य नहीं है ।
दंसणभट्टाभट्टा दंसणभट्टस्सणत्थिणिव्वाणं । सिज्यंतिचरियभट्टा दंसणभट्टासिज्झति ॥ ३ ॥
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( २ )
दर्शन भ्रष्टाभ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्यनास्तिनिर्वाणम् । सिद्धन्तिचरित्रभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिद्धन्ति ॥ अर्थ- जो कोई जीव दर्शन अर्थात् श्रद्धान में भ्रष्ट है वह भ्रष्ट ही है, जो दर्शन में भ्रष्ट है उसको मुक्ति नहीं होती है। जो चारित्र में भ्रष्ट हैं वह तो सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं परन्तु जो दर्शन में भ्रष्ट हैं वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं।
सम्पतरयणभट्टा जाणतावहुविहाइ सत्थाई |
आराहणाविरहिया भमन्ति तत्थेव तत्थेव ॥ ४ ॥
सम्यक्तरत्नभ्रष्टा जानन्तो बहुविधानि शास्त्रानि । आराधनाविरहिता भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥
अर्थ - बहुत प्रकार के शास्त्र जाननेवाल भी जो सम्यक्त रूपी रत्न से भ्रष्ट हैं वह आराधना अर्थात श्रीजिनेन्द्र के वचनों की मान्यता में अथवा दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधना से रहित होकर संसार ही में भ्रमते हैं संसार ही भ्रमते हैं 1
सम्पत्त विरहियाणं सुच्छ वि उग्गं तव चरंताणं । ण लहंति वोहिलाई अवि वास सहसकोडीहिं ॥ ५ ॥
सम्यक्त्व विरहितानाम सुष्ठु अपि उयंतपः चरताम् । न लभन्ते बोधिलाभम् अपिवर्ष सहस्रकोटीभिः ||
अर्थ – जो पुरुष सम्यक्त रहित है वह यदि हज़ार करोड़ वर्ष तक भी अत्यंत भारी तपकरे तौ भी बोधिलाभ अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप अपने असली स्वरूप के लाभ को नहीं प्राप्त कर सक्तं हैं।
सम्पत्तणाण दंसण बळ वीरिय वहमाण जे सच्चे । कलिकलुसया विरहिया वर णाणी होंति अइरेण || ६ || सम्यक्त्वज्ञान दर्शन बल वीर्य वर्धमाना ये सर्वे ।
कलिकलुषता विरहिता वर ज्ञानिनो भवन्ति अचिरेण ।
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अर्थ-जो पुरुष पञ्चम काल की दुष्टता से बच कर सम्यक्त, शान, दर्शन, बल, बीर्य में बढ़ते हैं वह थोड़े ही समय में केवल ज्ञानी होते हैं।
सम्मत्त सलिलपवाहो णिचं हियए पवाए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुब्बिय णासए तस्स ॥ ७ ॥
सम्यक्त्व सलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य ।
कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ।
अर्थ-जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त रूपी जल का प्रवाह निरन्तर बहता है उसको कर्म रूपी बालू (धूल ) का आवरण नहीं लगता है और पहला धन्धा हुवा कर्म भी नाश होजाता है।
जे दंसणेसु भट्टा णाणे भट्टा चरित्त भट्टाय । एदे भट्टविभट्टा सेसपि जणं विणासंति ॥ ८॥
ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञान भ्रष्टा चरित्र भ्रष्टाश्च ।
एते भ्रष्टविभ्रष्टाः शेषमपि जनं विनाशयन्ति ।। अर्थ-जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट हैं, ज्ञान में भ्रष्ट हैं और चारित्र में भ्रष्ट हैं वह भ्रष्टा में भी अधिक भ्रष्ट हैं और अन्य पुरुषों को भी नाश करते हैं अर्थात् भ्रष्ट करते हैं।
जो कोवि धम्मसीलो संजमतव णियम जोयगुणधारी । तस्सं य दोस कहन्ता भग्गभग्गांत्तणं दन्ति ।।१॥
यः कोपि धर्मशीलः संयमतपो नियम योगगुणाधारी ।
तस्य च दोषान् कथयन्तः भग्नाभग्नत्वं ददाति ॥ अर्थ-जो धर्म में अभ्यास करने वाले और संयम, तप, नियम योग, और गुणों के धारी हैं ऐसे पुरुषों को जो कोई दोष लगाता है वह आप भ्रष्ट है और दूसरों को भी भ्रष्टता देता है।
जह मूल म्मिविणहे दुमस्स परिवार पत्थिपरिवट्टी । तह निणदंसणभट्टा मूलविणहा ण सिझंति ॥१०॥
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यथा मूल विनष्टेढुमस्य परिवारस्य नास्तिपरिवृद्धिः । तथा निनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टा न सिध्यन्ति ॥
अर्थ-जैसा कि वृक्ष की जड़ कट जाने पर उस वृक्ष की शाखा आदिक नहीं बढ़ती हैं इस ही प्रकार जो कोई जैन मत की श्रद्धा से भ्रष्ट है उस की भी जड़ नाश हो गई है वह सिद्ध पद को प्राप्त नहीं कर सक्ता है।
जह मूलओखन्धो साहा परिवार बहुगुणो होई । तह जिणदसणमूलो णिहिटो मोक्खमग्गस्स ॥११॥
यथा मूलातस्कन्धः शाखा परिवार बहुगुणो भवति ।
तथा जिनदर्शनमूलो निर्दिष्टः मोक्षमार्गस्य । अर्थ-जैसे कि वृक्ष की जड़ से शाखा पत्ते फूल आदि बहुत परियार और गुणवाला स्कन्ध (वृक्ष का तना होता है इस ही प्रकार मोक्ष मार्ग की जड़ जैनमत का दर्शन ही बताया गया है।
जे दंसणेमुभट्टा पाए पाडन्ति दंसणधराणां । ते हुंतिलुल्लम्मा वोहि पुण दुल्लहा तेसिं ॥१२॥
ये दर्शनेषु भ्रष्टा पादेपातयन्ति दर्शन धराणाम् |
ते भवन्तिलुलमूकाः वोधिः पुनर्दुर्लभाः तेषाम् ।। __ अर्थ-जो [धर्मात्मा पने का भेष धरने वाल] दर्शन में भ्रष्ट हैं और सम्यक दृष्टि पुरुषों को अपने पैरों में पड़ाते हैं अर्थात् नमस्कार कराते हैं वह लूले और गूंगे होते हैं और उन को बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्रप्ति होना दुर्लभ है।
जेपि पडन्ति च तेसिं जाणन्त लज्जगारव भयेण । तेसिपि णत्थि वोही पावं अणमोअ माणाणं ॥१३॥
येपि पतन्ति च तेषां जानन्तो लज्जागौरव भयेन । तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्य मानानाम् ।।
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अर्थ-जो पुरुष जानते हुवे भी (कि यह दर्शन भ्रष्ट मिथ्या भेष धारी साधु है) लज्जा, गौरव, वा भय के कारण उन के पैरों में पड़ते हैं उन को भी बाधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सक्ती है वह भी पाप का ही अनुमोदना करने वाले हैं।
दुविहंपि गन्थ तायं तिमुविजोएसु संजमो ढादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणो दसणो होइ ॥१४॥ द्विविधमपि ग्रन्थत्यागं त्रिष्वपियोगेषु संयमः तिप्रति ।
ज्ञाने करणशुद्धे उद्भोजने दर्शनं भवति ॥ अर्थ- अंतरंग और वहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग हो और तीनों योगों में अर्थात् मन बचन काय में संयमहो और ज्ञान में करण आर्थात् कृत कारित अनुमोदना की शुद्धि हो और खड़े हो कर हाथ में भोजन लिया जाता हो वहां दर्शन होता है ।
भावार्थ-ऐसा साधु सम्यग्दर्शन की मूर्ति ही है। सम्पत्तादो णाणं णाणादो सन्च भावउबलद्धी । उचलद्ध पयद्धे पुण सेयासेयं वियाणेहि ॥१५॥
सम्यक्त्वतो ज्ञानम ज्ञानातः सर्व भावोपलब्धिः ।
उपलब्धे पदार्थः पुनः श्रेयोऽश्रेयो विनानाति ॥
अर्थ-सम्यग्दर्शन से सम्यग्नान होता है, सम्यग्ज्ञान से जीवादि समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है और पदार्थ ज्ञान से ही श्रेय अश्रेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य वा त्यागने योग्य का निश्चय होता है।
सेयासेयविदएह उडुद् दुस्सीलसीलवंतांवि । सील फलेणभुदयं ततो पुण लहइ णिव्वाणं ॥१६॥
श्रेयोऽश्रेयोवेत्ता उदहृत दुश्शीलश्शीलवान ।
शील फलेनाभ्युदयं तत पुनः लभते निर्वाणम् ॥ अर्थ -शुभ अशुभ मार्ग के जानने वालाही कुशीला को नष्ट
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( ६ )
करके शीलवान होता है, और उस शील के फल से अभ्युदय अर्थात् स्वर्गादिक के सुख को पाकर क्रम से निर्वाण को प्राप्त करता है ।
जिण वयण ओसहमिणं विसय सुह विरेयणं अमिदभूयं । जरमरण वाहि हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ||१७|
जिन वचन मौपधिमिदं विषय सुख विरेचनम मृतभूतम् । जरामरण व्याधि हरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ||
अर्थ - यह जिन बचन विषय सुख को अर्थात् इन्द्रियों के विषय भोगों में जो सुख मान रक्खा है उसको दूर करने में औषधि के समान हैं और बुढ़ापे और मरने की व्याधि को दूर करने और सर्ब दुखों को क्षय करने में अमृत के समान हैं।
एकं जिणस्स रूवं वीयं उकिट सावयाणंतु ।
अवरीयाण तइयं चउथं पुण लिंग दंसणेणच्छी ॥ १८ ॥
एकं जिनस्य रूपं द्वितीयम् उत्कृष्ट श्रावकानां तु । अपरस्थितानां तृतीयं चतुर्थे पुनः लिङ्गं दर्शनेनास्ति ||
अर्थ - जिन मत में तीन ही लिङ्ग अर्थात् वेश होते हैं, पहला जिन स्वरूप नग्न दिगम्बर, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का, और तीसरा आर्यकाओं का, अन्य कोई चौथा लिङ्ग नहीं है ।
छह दव्व णव पयत्था पंचच्छी सच तच्चणिदिट्ठा । सद्दह ताण रूवं सो सदिट्ठी मुणेयव्वो ||१९||
पट द्रव्याणि नव पदार्थाः पञ्चास्ति सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि । श्रद्धाति तेषां रूपं स सद्दृष्टिः ज्ञातव्यः ॥
अर्थ - छह द्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय, और सात तत्व जिनका उपदेश श्री जिनेंद्र ने किया है उनके सरूप का जो श्रद्धान करता है उसको सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये ।
जीवादी सरहण सम्मतं जिनवरेह वण्णत्तं । बवहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मतं ||२०||
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( 19 )
जीवादिश्रद्दधनं सम्यक्तं जिनवरैः निर्दिष्टम् । व्यवहारात् निश्वयतः आत्मा भवति सम्यक्त्वम् ॥
अर्थ - जीवादि पदार्थों के श्रद्धान करने को जिनेन्द्रदेव ने व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन कहा है और निश्चय मय से आत्मा के श्रद्धान को ही सम्यक्त्व कहते हैं ।
एवं जिणपण्णत्तं दंसण रयणं घरेहभावेण । सारंगुण रयणत्तय सोवाणं पदम मोक्खस्स ॥२१॥ एवं जनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरतभावेन ।
सारंगुण रत्नानाम् सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ||
अर्थ - भो सज्जनो उस दर्शन अर्थात् श्रद्धान को धारण करो जो कि जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है, जो गुण रूपी रत्नों का सार है और जो मोक्ष मन्दिर के पढ़ने की पहली सीढ़ी है ।
जं सक्कइ तं कीरइजं च ण सक्कइ तं य सदहणं । केवलिजिणेहि भणियं सद्दहमाणस्स सम्पतं ||२२||
यत् शक्नोति तत् क्रियते यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्दधन । केवलिजिनैः मणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥
अर्थ - जिसका आचरण कर सके उसका करें और जिसका आचरण न कर सके उसका श्रद्धान करे, श्रद्धान करनेवालों को ही सम्यक्त होता है ऐसा केवली भगवान ने कहा है ।
भावार्थ-श्रद्धान और आचरण दोनों करने चाहियें, यदि आचरण न हो सकें तो श्रद्धान तो अवश्य ही करना चाहिये । दंसण णाण चरिते तवविणये णिच्च काल सुपसत्था । एदे दु वन्दणीया जे गुणवादी गणधरानां ॥२३॥
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दर्शन ज्ञान चरित्रे तपोविनये नित्य काल सुप्रस्वस्थाः । एते तु वन्दनीया ये गुणवादी गणधराणाम् ||
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(2)
अर्थ-दर्शन, शान, चारित्र, तप, और विनय में जो कोई सदा काल लवलीन है और गणधरों का गुणानुबाद करनेवाले हैं वह ही बन्दने योग्य है ।
सहजुप्पण्णं रूवं दिट्ठे जो मरण्णए णमच्छरिऊ | सो संजम पडिपण्णो मिच्छा इट्ठी हवई एसो ||२४||
सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्वा यो मनुते नमत्सरी ।
स संयम प्रतिपन्नः मिथ्या दृष्टि र्भवति असौ |
अर्थ - जो पुरुष यथा जात अर्थात् जन्मते हुए बालक के समान नन दिगम्बर रूप को देख कर मत्सर भाव से अर्थात् उत्तम कार्यों से द्वेष बुद्धि करके उनको नही मानता है अर्थात् दिगम्बर मुनि को नमस्कार नही करता है वह यदि संयमधारी भी है तो भी मिथ्या दृष्टि ही है।
अमराणं वन्दियाणं रूवं दहणसील सहियाण || जो गारवं करन्ति य सम्पत्तं विविज्जिया होति ||२५||
मरैः वन्दितानां रूपं दृष्ट्वाशील सहितानाम् ।
यो गरिमाणं कुर्वन्ति च सम्यक्तं विवर्जिता भवन्ति ॥
अ - देव जिन की बन्दना करते है और जो शील व्रतों को धारण करते हैं, ऐसे दिगम्बर साधुओं के सरूप को देखकर जां अभिमान करते हैं अर्थात् शेखी में आकर उन को नमस्कार नही करते हैं वह सम्यक्त रहित हैं।
असंजदं ण वंन्द वच्छविहीणोवि सोण वन्दिज्जो । दोणिव होंति समाणा एगोवि ण संजदो होदि ||२६||
असंयतं न बन्दे वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्यः । grat भवतः समानौ एकोऽपि नसंयतो भवति ॥
अर्थ - चरित्र रहित असंयमी बन्दने योग्य नहीं है, और
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वस्त्रादि वाह्य परिग्रह रहित भाव चारित्र शून्य भी बन्दने योग्य नहीं है, दोनों समान हैं इन में कोई भी संयमी नहीं है।
भावार्थ-यदि कोई अधर्मी पुरुष नंगा हो जावै तो वह बन्दने योग्य नहीं है और जिस को संयम नहीं है वह तो बन्दने योग्य है ही नहीं।
णवि देहो बंदिञ्जइ णविय कुलो णविय जाइ संजुत्तो । को वंदमि गुणहीणो णहु सवणो णेयसावओ होइ ॥२७॥
नापि देहो वन्द्यते नापिच कुलं नापिच जाति संयुक्तम् । कंवन्दे गुणहीनम् नैव श्रवणो नैव श्रावको भवति ।।
अर्थ-न देह को बन्दना की जाती है नकुल को न जाति को. गुण हीन में किम को बन्दना करें, क्योंकि गुण हीन न तो मुनि है और न श्रावक है।
वंदमि तव सामण्णा सीलंच गुणंच वंभ चेरंच । सिद्धगमणंच तेसिं सम्मत्तेण सुद्ध भावेण ॥२८॥
बन्देतपः समापन्नाम् शीलंच गुणंच ब्रह्मचर्यच । सिद्ध गमनंच तेषाम् सम्यक्त्वेन शुद्ध भावेन ॥
अर्थ-मैं उनको रुचि महित शुद्ध भावों से बन्दना करता हूं जा पूर्ण तप करते हैं, मैं उनके शील का गुण को और उनकी सिद्ध गति का भी बन्दना करता हूं--
चउसहिचपरसहिओ चउर्तासहिअइसएहिं संजुत्तो। अणवार बहु सत्ताहि ओकम्मक्खय कारण णिमित्तो॥२९॥
चतुः षष्टि चमर सहितः चतुस्त्रिशदतिशयैः संयुक्तः ।
अनवरतवहुसत्वहितः कर्मक्षयकारण निमित्तम् ॥
अर्थ-जो चौंसठ ६४ चमरों सहित, चौंतीम ३४ अतिशय संयुक्त निरन्तर बहुत प्राणियों के हितकारी और कर्मों के क्षय होने का कारण है।
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( १० ) भावार्थ-जो तीर्थकर परम देव हैं उनको मैं बन्दना करता हूं। णाणेण दसणेण य तवेण चरियेण संयमगुणेण । चउहिपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणेदिवो ॥३०॥
ज्ञानेन दर्शनेन तपसा चारित्रेण संयम गुणेन । चतुर्णामपि समायोगे मोक्षा निनशासने उद्दिष्टः ।।
अर्थ-ज्ञान, दर्शन, तप, और चारित्र इन चारों के इकट्ठा होने पर संयम गुण होता है उसही से मोक्ष होती है, ऐसा जिन शासन में कहा है।
णाणं णरस्ससारं सारावि णरस्सहोइ सम्मत्तं । सम्पत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥३॥
ज्ञानं नरस्य सारं सारोपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वतः चरणं चरणतो भवति निर्वाणम् ॥
अर्थ-यद्यपि पुरुष के वास्ते ज्ञान सार वस्तु है परन्तु मनुष्य के वास्त सम्यक्त्व उस से भी अधिक सार है क्योंकि सम्यक्त्व से ही चारित्र होता है और सम्यक् चारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होता है।
णाणम्मि दंसम्मिय तवेण चरिएण सम्म सहिएण । चोकंपिसमाजोगे सिद्धा जीव ण संदेहो ॥३२॥
ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वहितेन ।
चतुष्कानां समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः ॥ अर्थ-सम्यक्त्व सहित शान दर्शन तप और चारित्र इन चारों के संयोग होने पर जीव अवश्य सिद्ध होता है इस में सन्देह नहीं है।
कल्लाण परंपरया लहंति जीवा विशुद्ध सम्मत्तं । सम्मइंसण रयणं अञ्चेदि मुरासुरे लोए ॥३३॥
कल्याण परम्परया लमन्ते जीवा विशुद्ध सम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शनरत्नम् अय॑ते सुरासुरे लोके ।।
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( ११ )
अर्थ - गर्भ जन्म तप ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्यानकों की परम्परा के साथ जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं अर्थात बिशुद्ध सम्यक्त होने से ही यह कल्यानक होते हैं ।
दहूण य मणुयत्तं सहिय तहा उत्तमेण गोत्तेण । लखूण य सम्पत्तं अक्खय सुक्खं चमोक्खंच ||३४||
दृष्ट्वा च मनुजत्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण । लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षय सुखं च मोक्षं च ॥
अर्थ - यह जीव सम्यक्त्व को धारण कर उत्तम गोत्र सहित मनुष्य पर्याय को पाकर अविनाशी सुख वाले मोक्ष को पाता है ।
विहरदि जाव जिणंदो सहसट्ट सुलक्खणेहि संजुत्तो । चडतीस अइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ||३५||
विहरति यावञ्जिनेन्द्रः सहस्राष्ट लक्षणेः संयुक्तः । चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा मणिता ॥
अर्थ - श्री जिनेन्द्र भगवान् एक हज़ार आठ लक्षण संयुक्त औ चौंतीस अतिशय सहित जब तक विहार करते हैं तब तक उनको स्थावर प्रतिमा कहते हैं ।
भावार्थ - श्री तीर्थंकर केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात धर्मोपदेश देते हुवे आर्य क्षेत्र में विहार करते रहते हैं परन्तु वह शरीर में स्थित होते हैं इस कारण शरीर छोड़ने अर्थात् मुक्ति प्राप्त होने तक उनको स्थावर प्रतिमा कहते हैं ।
वारस विह तव जुत्ता कम्मं खविऊण विहवलेणस्स । वोसह चतदेहा णिव्वासा मणुत्तरं यत्ता ॥३६॥ अर्थ - बारह प्रकार का तप धारण करने वाले मुनि चारित्र के बल से अपने समस्त कर्मों को नाश कर और सर्व प्रकार के शरीर छोड़ कर सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद को प्राप्त होते हैं ।
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( १२ )
२ सूत्र पाहुड़ ।
अरहंत भासियच्छं गणहर देवेहिं गंथियं सम्मं । सूत्तच्छ मग्गणच्छं सवणा साहेति परमच्छं || १ ॥ अर्हन्त भाषितार्थं गण घर देवै ग्रंथितं सम्यक् । सूत्रार्थ मार्गणार्थं श्रमणा साधुवन्ति परमार्थम् ॥
अर्थ -गणधर देवों ने जिस को गूंथा है अर्थात् रचा है, जिम में अरहन्त भगवान का कहा हुवा अर्थ है और जिसमें अरहन्त भारत अर्थ के ही तलाश करने का प्रयोजन है वह सूत्र है उमही के द्वारा मुनीश्वर परमार्थ अर्थात् मुक्ति का साधन करते हैं ।
सुत्तम्मि जं सुदिहं आइरियं परंपरेण मग्गेण ।
ाऊन दुविह सुत्तं बहइ सिव मग्ग जो भव्वो ॥ २ ॥ सूत्रयत् सुदिष्टं आचार्य परम्परीण मार्गेण ।
ज्ञात्वा द्वितीधं सूत्रं वर्तति शिव मार्गयो भव्यः ॥
अर्थ - उन सर्व भाषित सूत्रों में जो भले प्रकार वर्णन किया है वह ही आचार्यों की परम्परा रूप मार्ग से प्रवर्तता हुवा चला आरहा है, उसको शब्द और अर्थ द्वारा जान कर जो भव्य जीव मोक्ष मार्ग में प्रवर्तत हैं वह ही मोक्ष के पात्र हैं ।
सुत्तहि जाण माणो भवस्स भव णासणं च सोकुणदि । सूई जहा अत्ता णासदि सुते सहा गांव || ३ ॥
सूत्रहि जानानः भवस्य भव नाशनं च सः करोति । सूची यथा असूत्रा नश्यति सूत्रं सह नापि ॥
अर्थ- जो उन सूत्रों के ज्ञाता हैं वह संमार के जन्म मरण का नाश करते हैं, जैसे बिना सूत अर्थात् डारे की सूई खोई जाती है और तागे सहित होतो नहीं खोई जाती है ।
भावार्थ - जिनेंद्र भाषित सूत्र का जानने वाला जीव संसार में नष्ट नहीं होता है किन्तु आत्मीक शुद्धी ही करता है ।
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( १३ )
पुरुसोवि जो समुतो ण विणासह सो गओवि संसारे । सच्चेपण पच्चक्खं णासदितं सो अदिस्स माणोवि ॥ ४ ॥
पुरुषोपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोपि संसारे । सचेतना प्रत्यक्षं नाशयति तसः अदृश्यमानोपि ॥
अर्थ - जो पुरुष सूत्र सहित है अर्थात् सूत्रों का शाता है वह संसार मे फँसा हुवा भी अर्थात ग्रहस्थ में रहता हुवा भी नष्ट नहीं होता है वह अप्रसिद्ध है अर्थात चारो संघ में से किसी संघ में नहीं हैं तो भी वह आत्मा को प्रत्यक्ष करता हुवा अर्थात आत्म अनुभवन करता हुवा संसार का नाश ही करता है ।
सूत्तत्थं जिण भणियं जीवाजीवादि बहुविअत्थं । हेयायं चतहा जो जाणइ सोहु सुद्दिट्ठी ।। ५ ।
सूत्रार्थं जिनभणितं जीवा जीवादि बहु विधमर्थम् । हेयायं चतथा योजानाति सस्फुटं सद्दृष्टिः ॥
अर्थ - जो सूत्र का अर्थ है वह जिनेन्द्र देव का कहा हुवा है ।
वह अर्थ जीव अजीव आदिक बहुत प्रकार का है उस अर्थ को और हे अर्थात् त्यागने योग्य और अंहय अर्थात ग्रहण करने योग्य कां जो कोई जानता है वह ही सम्यग दृष्टि है ।
जंसूतं जिण उत्तं ववहारो तहय परमत्थो ।
सं जाणऊणजोई लहइ सुई खबर मल पुंजं ॥ ६ ॥
यत् सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथान परमार्थम् ।
तत् ज्ञात्वायोगी लभते सुखं शयति मलपुञ्जम् ||
अर्थ - जो जिनेन्द्र माषित सूत्र हैं वह व्यवहार रूप और परमार्थ रूप हैं, उनको जान कर योगीश्वर सुख को पाते हैं और मल पुंज अर्थात कर्मों को क्षय करते हैं ।
सूतत्थ पर्यावणो मिथ्यादिट्ठी मुणेयव्वो । खेडेविण कायव्वं पाणियपत्तं सचलेस्सं ॥ ७ ॥
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( १४ ) सूत्रार्थपद विनष्टो मिथ्या दृष्टिः ज्ञातव्यः ।
खेलेव न कर्तव्यं पाणिपात्रं सचलेस्य ।।
अर्थ-जो कोई सूत्र के अर्थ और पद से विनष्ट हैं अर्थात उसके विपरीत प्रवर्तते हैं उनको मिथ्या दृष्टि जानना चाहिये, इस कारण वस्त्रधारी मुनि को कौतुक अर्थात हंसी मखौल से भी पाणि पात्र अर्थात् दिगम्बर मुनि के समान हाथ में अहार न देना चाहिये।
हरि हर तुल्यो विणरो सग्गं गच्छेइ एइ भव कोडी । तहविण पावइ सिद्धिं संसारत्योपुणा भणिदो ॥ ८॥
हरि हर तुल्योपिनरः स्वर्ग गच्छवि एत्य भव कोटीः । ___ तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ।।
अर्थ-हरि ( नारायण ) हर ( रुद्र) के समान पराक्रम वाला भी पुरुष स्वर्ग को प्राप्त हो जाय तो भी तहां ते चय कर कडोरों भव लकर संसार में ही रुलता है वह सिद्धि को नहीं पाता है ऐसा जिन शाशन में कहा है।
भावार्थ --जिनन्द्र भाषित सूत्र के अर्थ के जाने बिना चाहे कोई भी हो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सक्ता है।
उक्किह सींह चरियं वहुपरि यम्मोय ग्ररुयर भारोय । जोविहरइ सध्दं पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ॥ ९॥
उत्कृष्टसिंह चरित्रः बहुरि परि का च गुरुतर भारश्च । __ यो विहरति स्वछन्दं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ॥
अर्थ-जो उत्कृष्ट सिंह के समान निर्भय होकर चारित्र पालता है, बहुत प्रकार तपश्चरण करता है और बड़े पदस्थ को धारण किये हवे है अर्थात् जिसकी बहुत मान्यता होती है परन्तु जिन सूत्र की आहा म मान कर स्वच्छन्द प्रवर्तता है वह पापों को और मिथ्यात्व को ही प्राप्त करता है।
निच्चेल पाणपतं उवइहें परम जिण वरिंदेहि । एकोविमोक्ख मग्गो सेसाय अमग्गया सर्वे ।। १० ॥
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निश्चल पाणि पात्रम् उपदिष्ट जिनवरेन्दै ।
एकोपि मोक्ष मार्गः शेषाश्चमार्गाः सर्वे ॥ अर्थ-वन को न धारण करना दिगम्बर यथा जात मुद्रा का धारण करना पाणि पात्र भोजन करना अर्थात् हाथ में ही भोजन रखकर लेना यही अद्वितीय मोक्ष मार्ग जिनेन्द्र देव ने कहा है। शेष सर्व ही अमार्ग हैं, मोक्ष मार्ग नहीं हैं।
जो संजमे सुसहिओ आरम्भ परिग्गहेसु विरऑवि । सो होइ वंदणीओ समुरासुर माणुसे लोए ॥ ११ ॥
यः संयमेषु सहितः आरम्भ परिग्रहेषु विरतः अपि । ___ स भवति वन्दनीयः ससुरासुर मानुषे लोके ॥
अर्थ-जो संयम सहित है और आरम्भ परिग्रह से विरक्त हैं वह ही इस सुर असुर और मनुष्या करि भरे हुवे लोक मैं बन्दनीक अर्थात् पूज्य होता है।
जे वावीस परीसह सहति सत्तीस एहि संजुत्ता । ने होंति वंदणीया कम्म क्खय निजए साहू ॥ १२॥
ये द्वाविंशति परिपहाः सहन्ते शक्ति शतैः संयुक्ताः । ते भवन्ति वन्दनीयः कर्म क्षय निर्जरा साधवः ।।
अर्थ-जो साधु अपनी सैकड़ों शक्तियां सहित बाईस २२ परीपह को सहते हैं वह कर्मी को क्षय करने के अर्थ कर्मों की निर्जरा करते हैं अर्थात् उनकं जो कर्मा की निर्जरा होती है उससे आगामी कर्म बन्धन नहीं होता है, वह साधु बन्दना करने योग्य हैं।
अवसे साजे लिंगा दसणं णाणेण सम्म संजुत्ता। चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥१३॥ अवशेषा ने लिङ्गिनः दर्शन ज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । चेलेन च परिग्रहतिा ते मणिता इच्छा ( कार ) योग्याः ॥
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अर्थ-- दिगम्बर मुद्रा के सिवाय अवशेष जो पुरुष दर्शन शान कर संयुक्त हैं और एक वस्त्र को धारण करने वाले उत्कृष्ट ग्यारवीं प्रतिमा के श्रावक हैं ते इच्छा कार करने योग्य कहे हैं अर्थात् उनको " इच्छामि" ऐसा कहकर नमस्कार करना चाहिये।
इच्छायारमही मुतद्धि ऊ जो हु छंडए कम् । छाणे ट्ठिय समां पर लोयझहं करो होइ ॥१४॥
इच्छा कार महत्त्व सूत्र स्थितयः स्फुटं त्यजति कर्म । स्थाने स्थित्वा समंचति पुरलोके सुखकरो भवति ॥
अर्थ- जो पुरुष जिन सूत्र में स्थित होता हुआ इच्छाकार के महान अर्थ को जानता है और श्रावका के स्थान अर्थात् ११ प्रतिमाओं में कहे हुवं आचारी में स्थित होकर सम्यक्त्व सहित होता हुवा वैया वृत्त्य बिना अन्य आरम्भादिक कर्मो को छोड़ता है वह परलोक में स्वर्ग सुखों को प्राप्त करता है अर्थात् उत्कृष्ट श्रावक मोलहवें स्वर्ग में महिर्धिक देव होकर वहां मनुष्य पर्याय पाकर निर्ग्रन्थ मुनि ही मोक्ष को पाता है।
अह पुण अप्पाणिच्छदि-धम्माइ करेदि निरव सेसाइ । तहवि ण पावदि सिद्धिं संसार च्छो पुणो भणिदो॥१५॥
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निर वशेपान ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनः भणितः ।। अर्थ-जो इच्छा कार को नहीं समझता है. अथवा जो पुरुष आत्मा को नहीं चाहता है आत्म भावनाओं को नहीं करता है और अन्य समस्त दान पूजादिक धर्भ कार्यो को करता है वह सिद्धि को नहीं पाता है वह संसार में ही रहता है ऐसा सिद्धान्त में कहा है।
एयेण कारणेण य त अप्पा सहहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिजह पयतेण ॥१६॥
एतेन कारणेन च तम् आत्मानं श्रद्दधत त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ।।
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(
१७ )
अर्थ-इस कारण तुम मन बचन काय से आत्मा का श्रद्धान करो और जिस से मोक्ष प्राप्त होता है उसको यत्न के साथ जानो।
वालग्ग कोडिमत्त परिगह गहणो ण होई साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्ण ण्णं एक ठाणम्मि ॥१७॥
वालाग्र कोटिमात्र परिग्रह ग्रहणं न भवति साधूनाम् ।
भुञ्जीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एक स्थाने ॥
अर्थ-साधुओं के पास रोम के अग्रभाग प्रमाण अर्थात् बाल की नाक के बराबर भी परिग्रह नहीं होता है, वे एक स्थान ही म, खड़ होकर, अन्य उत्तम श्रावको कर दिये हुवे भोजन को, अपने हाथ में रख कर आहार करते हैं।
जह जाय रूप सरिसो तिलतुसमित्तं न गहदि हत्थेमु । जइ लेइ अप्प वहुंअं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥१८॥ यथा जात रुपं सदृशः तिलतपमात्र नग्रह्णाति हस्तयोः ।
यदि लाति अल्प बहुकं ततः पुनः याति निगोदम् ।। थर्म-जन्मते बालक के सामान नग्न दिगम्बर रुप धारण करने वाले साधु तिलतुष मात्र अर्थात् तिल के छिलके के बराबर भी परिग्रह को अपने हाथों में नहीं ग्रहण करते हैं । यदि कदाचित थोड़ा वा बहुत परिग्रह ग्रहण करलं तो ऐसा करने से वह निगोद में जाते हैं।
जस्स परिग्गह गहणं अप्पं वहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिओ जिण वयणे परिगहरहिलो निरायारो॥१०॥
यस्य परिग्रह ग्रहणं अल्प वहुकं च भवति लिङ्गस्य ।
स गर्हणीयः जिन वचने परिग्रह रहितो निरागारः ।।
अर्थ --जिस के मत में जिन लिङ्ग अर्थात् जैन साधु के वास्ते भी थोड़ा या बहुत परिग्रह का ग्रहण कहा है वह मत और उस मत का धारी निंदा के योग्य है जिन बाणी के अनुसार परिग्रह रहित ही निगगार अर्थात् मुनि होते हैं।
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( १८ )
पंच महव्वय जुत्तो तिहिगुत्तिहि जो संसजदो होई । निग्गंथ मोक्खमग्गो सो होदिहु वेदणिज्जोय || २० |
पञ्चमहाव्रत युक्तः तिसृभिः गुप्तिभिः यः स संयतः भवति । निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गः सभवति स्फुटं बन्दनीयः च ॥
अर्थ - जो पंच महाव्रत और तीन गुप्ति ( मनोगुप्ति वचनगुप्ति काय गुप्ति) सहित है वह ही संयत अर्थात् संयम धारी है । निर्मन्थ ही मोक्ष मार्ग है, और वह ही बन्दने योग्य है ||
दुहयं च वृत्त लिङ्गं उक्किडं अवर सावयाणं च । भिक्खं मे पत्तो समिदी भासेण मोणेण ||२१||
द्वितीयं चोक्त लिङ्गम् उत्कृष्टम् अपर श्रावकाणां च । भिक्षां भ्रमति पात्रः समिति भाषा मौनेन ||
अर्थ - और दूसरा उत्कृष्ट लिङ्ग अपर श्रावकों अर्थात् घर मैं न रहने वाले श्रावकों का है जो कि घूम कर भिक्षा द्वारा पात्र में वाहस्त में भोजन करते हैं और भाषा समिति सहित और मौन व्रत सहित प्रवर्तत हैं ।
भावार्थ - मुनियों से नीचा दर्जा ग्यारहवीं प्रतिमा धारी श्रावक का है।
लिंगं इच्छीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएय कालम्पि | अज्जियवि एकवच्छां वच्छा वरणेण भुंजेइ ॥ २२॥
लिङ्ग स्त्रीणां भवति भुङ्क्ते पिण्ड एक काले । आर्थिकापि एक वस्त्रा वस्त्रावरणेन भुङ्क्ते ॥
अर्थ - तीसरा लिङ्ग स्त्रियों का अर्थात् आर्यकाओं का है जो कि दिन में एक समय भोजन करती हैं। ये आर्थिका एक वस्त्र सहित होती हैं और वस्त्र पहने हुवे ही भोजन करती हैं।
भावार्थ - भांजन करते समय भी नग्न नहीं होती हैं । स्त्री को कभी भी नम दिगम्बर लङ्ग धारण करना योग्य नहीं है ।
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णवि सिन्जइ वच्छ धरो जिण सासणे जडवि होइतिच्छयरो णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ नापि सिध्यति वस्त्र धरो जिन शासने यद्यपि भवति तीर्थकरः ।
नग्नोपि मोक्षमार्गः शेषाः उन्मार्गका सर्वे ॥
अर्थ-जिन शास्त्र में कहा है कि वस्त्र धारी मुक्ति नहीं पाता है चाहे वह तीर्थंकर भी हो अर्थात् जब तक तीर्थकर भी ग्रहस्थ अवस्था को त्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण नहीं करेंगे तब तक उनको भी मोक्ष नहीं हो सकती अन्य साधारण पुरुषा की तो क्या कथा, क्योंकि नग्न दिगम्बर ही एक मोक्ष मार्ग है शेष सर्व ही वस्त्र वाले उन्मार्ग अर्थात् उल्लं मार्ग हैं।
लिंगम्मिय इच्छीणं थणं तरेणाहि कक्ख देसाम्म । भणिओ मुहमो काओ तासं कह होइ पन्चज्जा ॥२४॥ लिङ्गे स्त्रीणाम् स्तनान्तरे नाभी कक्षा देशयोः। माणतः सूक्ष्म कायः तासां कथं भवति प्रव्रज्या ॥
अर्थ-स्त्रियों की योनिम,स्तन अर्थात् चूचियों के मध्यभाग में नाभि और दोनों कक्षाओं अर्थात् कोखों में सूक्ष्म जीव होते हैं इससे उनको महाबत दीक्षा क्योंकर हो सकती है। अर्थात् उनसे सर्व प्रकार हिंसा का त्याग नहीं हो सकता है इस कारण वह महाव्रत नहीं पाल मक्ती हैं और नग्न दिगम्बर मुद्रा नहीं धारण कर सक्ती है
जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इच्छीमुण पावया भणिया ॥२५॥
यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता। घोरं चरित्वा चरित्रं स्त्रीषु न प्रवृज्या मणिता ।। अर्थ-जो स्त्री सम्यग दर्शन कर शुद्ध है वह भी मोक्ष मार्ग संयुक्त कही हैं, परन्तु तीब्र चारित्र का आचरण करके भी स्त्री अच्युत अर्थात् १६ वे स्वर्ग तक जाती है इससे ऊपर नहीं जा सक्ती है इस हेतु स्त्रियों में मोक्ष प्राप्ति के योग्य दीक्षा नहीं होती है ऐसा कहा है।
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( २० ) भावार्थ-स्त्री को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सक्ती हैचित्ता सोहणतोस टिल्लं भाव तदा सहावेण । विजदि मासा तेसिं इच्छीसुण संकया झाणं ॥२६॥
चित्ताऽऽशोधः न वेसाम् शिथलो भावः तदा स्वभावेन । विद्यते मास तेसाम् स्त्रीषु न अशंकया ध्यानम् ॥
अर्थ-स्त्रियों के चित्त में शुद्धता नहीं है अर्थात् उनके भाव कुटिल होते हैं और स्वभाव से ही उनके शिथल परिणाम होते हैं तथा उनके प्रतिमास मामिक धर्म ( रुधिर श्राव ) होता रहता है इसी से स्त्रियों में निःशंक ध्यान नहीं हो सक्ता और जब निश्शङ्क ध्यान ही नहीं तब मोक्ष कैसे हो सकै
गाहेण अप्पगाहा समुद्द सलिले सचेल अच्छेण । इच्छा जाहु नियत्ता ताई णियताइ सच दुःखाइ ॥२७॥
ग्राह्यण अल्प ग्राही समुद्र सलिले स्वचेल वस्त्रण।
इच्छा येभ्यो निवृत्ता ताभ्यः मिवृत्तानि सर्वदुःखानि ।। अर्थ-जैसे कि कोई पुरुष समुद्र में भरे हुवे बहुत जल में से अपना वस्त्र धोने के वास्ते उतनाही जल ग्रहण करे जितना उमक कपड़ा धोने के वास्ते जरूरी हो इसही प्रकार जो मुनि ग्रहण करने योग्य आहार आदिक को भी थोड़ा ही ग्रहण करते हैं अर्थात् आहार आदिक उतनाही ग्रहण करते हैं जितना शरीर की स्थिति के वास्ते जरूरी है और जिन की इच्छा निवृत्त हो गई है उनसे सर्व दुख भी दूर हो गए हैं।
इति सूत्र प्राभृतम् ।
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( २१ )
३ चारित्र पाहुड़ ।
सव्वण्ह सव्वदसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी । वन्दि तु तिजगवन्दा अरहंता भव्य जीवेहिं ॥ १ ॥ गाणं दंसण सम्मं चारित्रं सेो हि कारणं ते सिं । मुक्खा राहण हेउ चारित्रं पहुडं वोच्छे || २ ||
सर्वज्ञान सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः । वन्दित्वा त्रिजगद्दन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ॥ ज्ञान दर्शन सम्यक् चरित्रं स्वं हि कारणं तेषाम् । मोक्षा राधन हेतु चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ॥
अर्थ - सर्वज्ञ सर्वदर्शी निर्माही वीतराग परमेष्ठी तीन जगत के प्राणियों का वन्दनीय और भव्य जीवों का मान्य ऐसे अरिहंत देव को वन्दना करके चारित्र पाहुड़ को कहता हूं ॥
कैसा है वह चारित्र ! आत्मीक स्वभाव जो सम्यगदर्शन सम्यगशान और सम्यक् चारित्र उनके प्रकट करने का कारण और मोक्ष के आराधन करने का साक्षात हेतु है ।
जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारितं ॥ ३ ॥ यद् जानाति तद् ज्ञानं यत्पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् मवति चरित्रम् ॥
अर्थ – जो जाने सो शान और जो ( सामान्यपने ) देखे सो दर्शन ऐसा कहा है || ज्ञान और दर्शन इन दोनों के समायोग होने से चारित्र होता है ।
एए ति एंहविभागा हवन्ति जीवस्स अक्खयामेया । तिणापि सोहणत्थे जिण भणियं दुविह चारितं ॥ ४ ॥
एते त्रयोपि भावा भवन्ति जीवस्य अक्षया अमेयाः । त्रयाणामपि शोधनार्थ जिन मणितं द्विविध चरित्रम् ॥
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( २२ ) अर्थ-ये ज्ञानादिक तीनों भाव अर्थात् दर्शन ज्ञान चारित्र जीव केही भाव हैं और अक्षय और अनन्त हैं अर्थात् यह भाव कभी जीव से अलग नहीं होते है और इन भावो का कुछ पार नहीं है । इनही तीनों भावों की शुद्धि के अर्थ दो प्रकार का चरित्र जिनेन्द्र देव ने कहा है।
जिणणाण दिहि सुद्धं पढमं संमत्त चरण चरित्तं । विदियं संजम चरणं जिण णाण स देसियं तं पि ॥५॥
जिन जान दृष्टि शुद्धं प्रथमं सम्यक्त्व चरण चरित्रम् ।
द्वितीयं संयम चरणं जिन जान स देशितं तदपि ॥
अर्थ-जो जिनेन्द्र सम्बन्धी ज्ञान और दर्शन कर शुद्ध हो अर्थात २५ दोष रहित हो मो पहला सम्यकत्व चरण चरित्र है। और जो जिनेन्द्र के शान द्वारा उपदेश किया गया है और संयम का आचरण जिसमें है वह दूसरा चारित्र है।
भावार्थ-चारित्रदो प्रकार का है, सर्वज्ञ भाषित तत्वार्थ का शुद्ध श्रद्धान करना प्रथम चारित्र है और सर्वश की आज्ञा के अनुसार संयम अर्थात व्रत आदिक धारण करना दूसरा चारित्र है।
एवं विय णा ऊणय सचे मिच्छत्त दोष संकाई । परिहर सम्मत्तमला जिण भणिया तिविह जोएण ॥६॥
एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् ।
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिन भणितान् त्रिविधि योगेन ॥ अथे-ऐसा जानकर हे भव्य जनो - तुम सम्यक्त्व को मलिन करने वाले मिथ्यात्व कर्म से उत्पन्न हुवे शङ्कादिक २५ दोषा का मन वचन काय से त्याग करो ।
णिसडिय णिक्कंखिय णिर्विदगिच्छा अमूढ़ दिट्ठीय । उवगोहण ठिदिकरणं वच्छलपहावणाय ते अह॥७॥ निशङ्कितं निःकाक्षितं निर्विचिकित्सा अमूढ दृष्टिश्च । उपगृहनस्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ ॥
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( २३ )
अर्थ - १ निशङ्कित अर्थात जैन तत्वों में शंका न करना २ निःकाङ्क्षित अर्थात इन्द्रिय भोगों की प्राप्ति के लिये वांछा न करना ३ निर्विचिकित्सा अर्थात् व्रती पुरुषों के शरीर से ग्लानि न करना ४ अमूढ दृष्टि अर्थात् मिथ्यामार्ग को देखा देखी उत्तम न समझना ५ उपगूहन अर्थात् व्रती पुरुष यदि अज्ञानता आदिके कारण कोई दोष कर लेवें तो उन दूषणों को प्रकट न करना ६ स्थिती करण अर्थात् रत्नत्रय से डिगते हुवों को फिर धर्म में स्थिर करना ७ वात्सल्य अर्थात् जैन धर्मीयों से स्नेह रखना ८ प्रभावना अर्थात् ज्ञान तप और वैराग्य से जैन धर्म के महत्व को प्रकट करना ये सम्यक्त्व के आठ अङ्ग हैं ।
तं चैव गुणविशुद्धं जिण सम्मत्तं सुमुक्खठाणाए । जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्त चरणचारितं ॥ ८ ॥
तच्चैव गुणविशुद्धं जिन सम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय । यच्चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्व चरणचरित्रम् | अर्थ- जो कोई निश्शङ्कितादिगुण सहित जिनेन्द्र के श्रद्धान
को ज्ञान सहित परम निर्वाण की प्राप्ति के लिये आचारण करता है। सो पहला सम्यक्त्व चरण चारित्र है ।
भावार्थ -- ज्ञानी पुरुष सर्वज्ञ भाषिततत्वार्थ को निशंकादिक आठ अङ्गों सहित श्रद्धान करें तो उसके सम्यक्त्व चरण चारित्र अर्थात पहला चारित्र होता है ।
सम्मत चरण सुद्धा संजम चरणस्म जइव सुपसिद्धा । पाणी अमूढ दिठ्ठी अचिरे पावन्ति निव्वाणं ॥ ९ ॥
सम्यक्त्व चरणशुद्धा संयम चरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धा । ज्ञानिनः अमूढ दृष्टयः अचिरं प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥
अर्थ -- जो सम्यक्त्व चरण चारित्र में शुद्ध हैं अर्थात जिनका सम्यक्त विशुद्ध है और संयम के आचरण में प्रसिद्ध हैं अर्थात संयम को पूर्ण रूप पालते हैं व ज्ञानवान पुरुष मूढ़ता रहित होते हुव थोड़ेही समय में निर्वाण को पाते हैं 1
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( २४ ) सम्मत चरणं भट्ठा संयम चरणं चरन्ति जेवि गरा । अण्णाण णाण मूढा तहविण पावन्ति णिचाणं ॥१०॥ सम्यक्त्व चरण मृष्टा संयम चरणं चरन्ति येपि नराः ।
अज्ञान ज्ञान मूढा तथापि न प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥
अर्थ-जो पुरुष सम्यक्त्व चरण चारित्र से भ्रष्ट हैं अर्थात जिनको सच्चा श्रद्धान नहीं है परन्तु संयम पालते हैं तो भी वे अशांनी मूढ़ दृष्टि हैं और निर्वाण को नहीं प्राप्त कर सक्ते हैं।
वच्छल्लं विणयेणय अणुकम्पाए मुदाणदक्षाए । मग्गगुण संसणाए अवगृहण रक्खणा ए य ॥ ११ ॥ एए हि लक्खणेहिय लक्खिज्जइ अज्जवेहि भावेहि । जीवो आराहन्तो जिण सम्मतं अमोहेण ॥१२॥
वात्सल्यं विनयेन च अनुकम्पया सुदानदक्षया । मार्गगुणसंशनया उपगृहन रक्षणेण च ॥ एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आजेवैः मावैः ।
जीव आराधयन् जिन सम्यक्त्वम् अमोहेन । अर्थ-जो जीव जिनेन्द्र के सम्यक्त्व को मिथ्यात्व रहित आराधन ( ग्रहण-संवन ) करता है वह इन लक्षणों से जाना जाय है । वात्सल्य, साधर्मिया मे ऐसी प्रीति जैसी गाय अपने वच्च मे करती है, विनय अर्थात शान चारित्र में बड़े पुरुषों का आदर नम्रता पूर्वक स्वागत करना प्रणाम आदि करना, अनुकम्पा अर्थात दुःखित जीवों पर करुणा परिणाम रखना और उनको यथा योग्य दान देना मार्गगुणशंसा अर्थात मोक्षमार्ग की प्रशंसा करना, उपगृहन अर्थात धार्मिक पुरुषा के दोषा का प्रकट न करना, रक्षण अर्थात धर्म से चिगते हुवों को स्थिर करना, और आजव अर्थात नि:कपट परिणाम इन लक्षणों से सम्यक्त्व का अस्तित्व जाना जाता है।।
उच्छाहभावण सूं पसंस सेवा कुदंक्षणे सद्धा। अण्णाण मोह मग्गो कुन्वन्तो जहदि जिणसम्म ॥१३॥
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( २५ ) उत्साह भावना सं प्रशंसा सेवा कुदर्शने श्रद्धा ।
अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनमभ्यक्त्वम् ।
अर्थ-~जो कुदर्शन अर्थात मिथ्यामत और मिथ्यामत के शास्त्रों में जो कि अज्ञान और मिथ्यात्व के मार्ग हैं उत्साह करते हैं, भावना करते हैं, प्रशंसा करते हैं, उपासना (सेवा ) करते हैं और श्रद्धा करते हैं, वे जिनेन्द्र के सम्यक्त्व को छोड़ते हैं। अर्थात व जैन मत धारक नहीं हैं।
उच्छाह भावणा सं पसंस सेवा सुदंसणे सद्धा। ण जहति जिण सम्मतं कुव्वन्तो णाण मग्गेण ॥ १४ ॥
उत्साह भावना सं प्रशंसा सेवा सुदर्शने श्रद्धा ।
न जहाति जिन सम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञान मार्गेण ॥ अर्थ-~जो पुरुष ज्ञान द्वारा उत्तम सम्यगदर्शन ज्ञान चरित्र रूप मार्ग में उत्साह करता है, भावना करता है, प्रशंसा करता है, मेवा भक्ति पूजा करता है तथा श्रद्धा करता है वह जिन सम्यक्त्व का नहीं छोड़ता है । अर्थात वह सच्चा जैनी है।
अण्णनं मिच्छत्तं वजह णाणे विसुद्ध सम्मत्ते । अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥१५॥
अजान मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्ध सम्यक्त्वे ।
अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मे ऽहिंसायाम् ॥
अर्थ-हे भव्यो ? तुम ज्ञान के होते हुवे अशान को और विशुद्ध सम्यक्तव के होते हुवे मिथ्यात्व को त्यागो तथा चारित्र के होते हुवे मोह को और अहिंसा के होते हुवे आरम्भ को छोड़ो
पवज संग चाय वयट्ट सुतवे सु मंजमे भावे । होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मो हे वीयण्यत्ते ॥१६॥ प्रव्रज्यायाम् संगत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति मुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागले ।
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( २६ ) अर्थ-भो भव्यात्मन् ? तुम परिग्रह में त्याग परिणाम कर के जिन दीक्षा में प्रवती और मयम के भावों से उत्तम तपश्चरण में प्रवृत्ति की जिस से ममतरहित वीतरागता होने पर तुम्हार विशुद्ध धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान हो।
मिच्छा दंसणमग्गे मलिणे अण्णाण मोहदोसेहि । वझति मूढजीवा मिच्छंता बुद्धि उदएण ॥१७॥
मिथ्यादर्शन मार्गे मलिन ऽज्ञानमोह दोषाभ्याम् । वर्तन्ते मूढ नीवाः मिथ्यात्वा बुद्धयुदये न ॥
अर्थ-मूढ जीव मिथ्यात्व और अनान के उदय स मिथ्या दर्शन मार्ग में प्रवर्तते हैं; वह मिथ्यादर्शन अज्ञान और मोह के दोषों स लिन है अर्थात जिंनन्द्र भाषितं धर्म के सिवाय अन्य धर्मा में अशान और माह का दोष है
सम्मइंसण पस्साद जाणाद णाणेण दव्वपज्जाया । सम्मेण सद्दहाद परिहरदि चरित्त जे दोसे ॥१८॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन श्रद्दधाति परिहरति चरित्रनान् दोपान् ॥
अर्थ-यह जीव दर्शन से सत्तामात्र वस्तु को जाने है, शान से द्रव्य और उनकी पर्यायों को जाने है और सम्यक्तव से श्रद्धान करता है औ चारित्र से उत्पन्न हुवे दोषों को छोड़ता है।
एएतिण्ण विभावा हवांत जीवस्स मोहरहियस्स । णियगुण आराहतो अचिरेण विकम्म परिहरई ॥१९॥
एते त्रयोपि भावा भवन्ति जीवस्य मोहरहितस्य । निजगुणम् आराधयन् अचिरेणापि कर्म परिहरति ॥
अर्थ-जो मिथ्यात.. रहित है उस ही जीव के सम्यग दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों भाव होते हैं । और वही अपने आत्मीक गुणों को अराधता हुआ थोड़े काल में ही कर्मो का नाश करता है।
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संखिज्ज मसंखिज्ज गुणं च संसारिमेरुमित्ताणं । सम्मत्त मणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥२०॥
संख्येय म संख्येयं गुणं संसारिमेरु मात्र णं । सम्यत्क्वमनुचरन्तः कुर्वन्ति दुखक्षयं धीराः ।।
अर्थ--सम्यक्त्व को पालने वाले धीर पुरुष जब तक संसार रहता है अर्थात् जब तक मुक्ति प्राप्त नहीं होती है तब तक संख्यात गुणी तथा असंख्यात गुणी कर्मा की निर्जरा करते हैं और दुःखों को क्षेय करते हैं।
दुविहं संयम चरणं सायारं तह हवे निरायारं । सायारं सग्गंथे परिगह रहिये निरायारं ॥२१॥ द्विविधं संयम चरणं सागार तथा भवत् निरागारम् ।
सागार सग्रन्थे परिग्रह रहिते निरागारम् ॥ अर्थ-संयमाचरण चरित्र दो प्रकार है । सागार (श्रावक धर्म ) और अनागार (मुनिधर्म ) मागार तो परिग्रह सहित ग्रहस्थों कै होता है और निरागार, परिग्रहरहित मुनियों के होता है।
दंसण वय सामाइय पोसह सच्चित्त राय भत्तेय । वंभारम्भ परिग्गह अणुमण उद्दिढ विरदीय देशविरदोय २२
दर्शन व्रत सामायिक-प्रोषध. सचित्तरात्रिभुक्ति त्यागः । । ब्रह्मचर्यम्-आरम्भ परिग्रहानुमति उद्दिष्टविरतः चदेशविरतश्च ।। .
अर्थ--श्रावकों के यह ११ चरित्र हैं इनके धारण करने वाले श्रावक भी ११ प्रकार के होते हैं । दर्शन १ व्रत २ सामायिक ३ प्राषधापवास ४ सचित्त त्याग ५ रात्रिभुक्ति त्याग ६ ब्रह्मचर्य ७ आरम्भविरति ८ परिग्रहविरति ९ अनुमतिविरति १० उद्दिष्टविरति ११ यह श्रावक की ११ प्रतिमा कहलाती है।
पञ्चेवणुव्वयाइं गुणव्वयाई हवन्ति तहतिण्णि । सिक्खावय चत्तारि सञ्जम चरणं च सायारं ॥२३॥
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( २८ )
पञ्चैवाणुव्रतानि गुणत्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि । शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारम् ॥
अर्थ -- ५ अणुव्रत ३ गुणत्रत और ४ शिक्षावत यह १२ प्रकार का संयमाचरण श्रावकों का है ।
थूले तसकाय वहे धूले मोसे अदत्तधूलेय । परिहारो पर महिला परिग्गहारंभपरिमाणं ||२४||
स्थूलत्रस कायवधे स्थूलमृपा ( वादे ) अदत्तम्थूले च | परिहारः परमहिलायां परिग्रहारम्भ परिमाणम् ॥
अर्थ - काय के जीवों के घात का मोटे रूप त्याग यह अहिंसा अणुव्रत है, मृषावाद अर्थात झूठ बोलने का मोटे रूप त्याग यह सत्य अणुव्रत है, २ विनादी हुवी वस्तु के नलेने का मोटे रूप त्याग यह अचौर्य अणुव्रत है, परस्त्री का ग्रहण न करना यह शील अणुव्रत है ४ परिग्रह अर्थात धन धन्यादिक और आरम्भ का प्रमाण करना यह परिग्रह परिमाण अणुव्रत है इस प्रकार यह पांच अणुव्रत हैं ।
दिसविदिसमाण पढर्म अणत्थडंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोग परिमा इयमेवगुणन्बया तिरिण ||२५|| दिग्विद्विग्मानं प्रथमम्-अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम् । भोगोपभोगपरिमाणम् - इदमेव गुणत्रतानि त्रीणि ॥
अर्थ --- दिशा विदिशाओं में जाने आने के लिये मृत्युपर्यन्त के वास्ते प्रमाण करना दिव्रत अर्थात पहला गुणव्रत है ? अनर्थदण्डों का अर्थात् पापोपदेश, हिंसादान २ अपध्यान ३ दुःश्रुति ४ प्रमादचर्या का छोडना दूसरा गुणत्रत है और भोग उपभोग की चीजों का प्रमाण करना तीसरा गुणवत है यह तीन गुणवत हैं ।
सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । इयं अतिहि पुज्जं चउत्थ संलेहणा अन्ते ||२६|| सामायिकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधो मणितः । तृतीयमतिथि पूज्यः चतुर्थ सलखना अन्ते ॥
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( २९ )
अर्थ - सामायिक अर्थात रागद्वेष को त्याग कर ग्रहारम्भ सम्बन्धी सर्व प्रकार को पापक्रिया से निवृत्त होकर एकान्त स्थान में बैठकर अपने आत्मीक स्वरूप का चितवन करना, वा पञ्चपरमेष्टी की भक्ति का पाठ पढ़ना उनकी बन्दना करना यह प्रथम शिक्षात्रत है प्राषधोपवास अर्थात अष्टमी चतुर्दशी के दिन चार प्रकार के आहार का छोडना अथवा जलमात्र ही ग्रहण करना वा अन्न को एकवार ग्रहण करना यह उत्तम, मध्यम, जघन्य भेवाला दूसरा शिक्षाव्रत है अतिथि पूजा अर्थात मुनि या उत्तम श्रावकों को नवधा भक्ति कर आहार देना यह तीसरा शिक्षाव्रत है । अन्त मंलेखना अर्थात मरण समय समाधि मरण करना यह चौथा शिक्षात्रत हैं । इस प्रकार यह चार शिक्षावत हैं ।
एवं सावय धम्मं संजम चरणं उदेसियं सयलं । मुद्धं संजम चरणं जइ धम्मं निक्कलं वोच्छे ||२७|
एवं श्रावक धर्मम् संयम चरणम् उपदेशितम् । शुद्धं संयम चरणं यतिधर्मं निष्कलं वक्ष्ये ||
अर्थ - इस प्रकार श्रावक धर्म सम्बन्धी संयमाचरण का उपदेश किया अवशुद्ध संयमाचरण का वर्णन करता हूं जोकि यतीश्वरों का धर्म है और पूर्णरूप है । अर्थात जो सकल चारित्र है । पंचिंदिय संवरणं पंचवया पंचविंश किरियासु । पंचसमिदितियत्ति संजम चरणं निरायारं ||२८||
पञ्चेन्द्रिय संवरणं पञ्चत्रता पञ्चविंशति क्रियासु । पञ्चसमितयः तिखो गुप्तयः संयम चरणं निरागारम् ॥
अर्थ - पांचो इन्द्रियों को संबर अर्थात वश करना पांच महा
व्रत जोकि पचसि क्रियाओं के होते होए ही होते हैं, पांच समिति और तीन गुप्ति, यह अनागरों का संयमा चरण है अर्थात मुनिधर्म है ।
अमणुण्णेय मणुण्णो सजीवदव्वे अजीवदव्वे य ।
न करेय राग दो से पंचिंदिय संवरो भणिओ ||२९||
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( ३० ) अमनोज्ञे च मनोज्ञे सजीव द्रव्ये अजीवद्रव्ये च । न करोति रागद्वेषौ पञ्चेन्द्रिय संवरो भणितः ।।
अर्थ- अमनोश अर्थात अप्रिय और मनोश अर्थात प्रिय एसे सजीव पदार्थ स्त्री पुत्रादिक तथा अजीव पदार्थ भोजन वस्त्र भूषण आदिक में रागद्वेष न करना पञ्चेन्द्रिय सम्बर है। अर्थात इन्द्रियों के विषय भागों में रागद्वेष न करना इन्द्रिय सम्बर है।
हिंसा विरइ अहिंसा असञ्च विरइ अदत्त विरई य । तुरीयं अवंभविरई पंचम संगम्मि विरई य ॥३०॥ हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिरदत्त विरतिश्च । तुरीयमब्रह्मविरतिः पञ्चमं सगे विरतिश्च ।।
अर्थ-महावत ५ हैं । अहिंसा महाव्रत अर्थात हिंसा का त्याग१ सत्यमहाव्रत अर्थात अमत्य का त्याग २ अचार्य महावत अर्थात बिना दी हुवी वस्तु का नलेना३ ब्रह्मचर्य महावन ४ और परिग्रह त्याग महाव्रत ५।
साहति जे महल्ला आयग्यिं जं महल्ल पुव्वेहिं । जं च पहल्लाणि तदो महल्लयाइ तहेयाइ ॥३१॥
साधयन्ति यद् महान्तः आचरित यद् महद्भिः पूर्वः ।
यानि च महान्ति ततः महाव्रतानि ॥
अर्थ- जिन को बड़े पुरुष साधन करते हैं और जिन को पहले महत्पुरुषों ने आचरण किया है और जो स्वयं महान् हैं इससे इनको महाव्रत कहते हैं।
वयगुत्ति मणगुत्ति इरिया समदि सुदाणणिक्खेवो । अवलोय भोयणाएहिंसाए भावणा होति ॥३२॥ बचोगुप्तिः मनोगुप्तिः ईर्यासमितिः सुदाननिक्षेपः । अवलोक्य भोजनं अहिंसाया मावना भवन्ति ।।
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( ३१ )
अर्थ - वचनगुप्ति १ मनोगुप्ति २ ईर्यासमिति ३ आदान निक्षेपण समिति ४ आलोकित भोजन ५ यह अहिंसा महाव्रत की ५ भावाना हैं ।
कोह भयहासलोह मोहा विपरीय भावना चैव । विदियस्स भावणाए पंचेवय तहा होंति ||३३||
का भय हास्य लोभ मोह विपरीता भावना चैव । द्वितीयस्य भावना एता पश्चैव च तथा भवन्ति ॥ अर्थ -- क्रांध त्याग १ भय त्याग २ हास्य त्याग ३ लोभ त्याग ४ मोह त्याग ५ यह ५ भावना सत्य महाव्रत की हैं। सूण्णायार निवासो विमोचितावासनं परोधंच । एषणशुद्धि सतं साहम्मि विसंवादे ||३४||
शून्यागार निवासो विमोचिता वासः परोधञ्च । एषणशुद्धि सहितं साधर्मा विसंवाद || अर्थ- शून्यागार निवास अर्थात शूने मकान में रहना १ विमोचितावास अर्थात छोड़े हुवे मकान में रहना २ परोपरोधाकरण अर्थात जहां पर दूसरों की गंक टोक हो ऐसे स्थान पर न रहना अथवा औरों को न रोकना ३ एपणा शुद्धि अर्थात शास्त्रानुसार पर घर भोजन करना ४ साधर्माविसंवाद अर्थात साधर्मी पुरुषों से विवाद न करना ५ यह ५ भावना अचौर्य महाव्रत की हैं।
महिला लोयण पूव्वरई सरण संसत्त वसहि विकहादि । पुट्टियरसेहि विर भावणा पंचवि तुरियम्मि ||३५|| महिलालोकन पूर्वरतिस्मरण शक्तवसति विकथा । पुष्टरससेवाविरतः भावनाः पञ्चापि तुर्ये ॥
अर्थ - राग भावसहित स्त्रियों को न देखना १ पूर्व की हुवी अर्थात भोगों की याद न करना २ स्त्रियों के निकट स्थान में निवास न करना ३ स्त्री कथा न करना ४ और पुष्टरस अर्थात कामोद्दीपक वस्तु न सेवन करना ५ यह ५ ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं 1
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अपरिग्गह समणुण्णे सुसद्दपरिसरस रुवर्गधेसु । रायदोसाईणं परिहादो भावणा होति ॥३६॥
अपरिग्रह समनोसेषु शब्द स्पर्श रस रूप गन्धेषु ।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावना भवन्ति ॥ अर्थ-शब्द स्पर्श रस रूप गन्ध चाहे मनोज्ञ अर्थात मन भावने हो वा अमनोज्ञ अर्थात अप्रिय हा उनम रागद्वेष न करना अपरिग्रह महावत की ५ भावना है।
इरि भासा एसण जासा आदाणं चेवणिकवेवो । संजमसोहणिमित्ते रवंति जिणा पंच समदीओ ॥३७।। ईया भाषा एषणा यासा आदानं चेव निक्षेपः ।
संयमशोध निमित्तं रव्यान्ति जिनाः पञ्च समितयः ॥ अर्थ----इर्याममिति अर्थात चार हाथ आगे की भूमि को निरखते हुवे चलना १ भाषाममिति अर्थात शास्त्र के अनुमार हित मित प्रिय बचन बालना २ एपणा समिति अर्थात शास्त्र की आज्ञानुमार दाप रहित आहार लना ३ आदान ममिति अर्थात देखकर पुस्तक कमण्डलु को उठाना ४ निक्षेपण ममिति अर्थात देखकर पुस्तक कमण्डलु का रखना ५ यह पांच समिति जिनेन्द्र देवन कही हैं।
भव्बजण वोहणन्थं जिणमग्गे निणवरहिं जह भणियं । णाणं णाणसरुपं अप्पाणं तं वियाणेह ॥३८॥
भव्यजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । ज्ञानं ज्ञानम्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ॥ अर्थ-जिनन्द्र देवने जैनशास्त्रों में भव्य जीवों के सम्बोधन के लिये जैमा ज्ञान और शान का म्वरुप वर्णन किया है तिसी को तुम आत्मा जानो अर्थात यह ही आत्मा का स्वरूप है।
जीवाजीवविभक्ति जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादि दोस रहिओ जिणसासण मोक्रवमग्गुत्ति ॥३९।।
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( ३३ ) जीवाजीवविभक्तियो जानाति स भवेत् सज्ञानी ।
रागादिदोषरहितो जिनशासन मोक्षमार्ग इति ॥ अर्थ--जो पुरुष जीव और अजीव के भेद को जानता है वह ही सम्यग् ज्ञानी है और राग द्वेषरहित होना ही जैनशास्त्र में मोक्षमार्ग है।
दंसण णाण चरितं तिण्णिवि जाणेह परम सद्धाए । जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ॥४॥ दर्शनज्ञानचारित्रं त्रिण्यपि जानीहिपरमश्रद्धया ।
यदज्ञात्वायोगिनो अचिरेण लभन्ते निर्वाणम् ॥
अर्थ-हे भव्यो १ तुम दर्शन शान चरित्र इन तीनों को परम श्रद्धा के साथ जानो योगी ( मुनी) इन तीनों को जान कर थोड़े ही काल में मोक्ष को पाते हैं।
पाऊण गाण सलिलं णिम्मल सुबुद्धि भाव संजुत्ता । हुति सिवालयवासी तिहुवण चूड़ामणि सिद्धा ॥४१॥
प्राप्यज्ञानसलिलं निर्मलसुबुद्धिभावसंयुक्ता।
भवन्तिशिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥
अर्थ-जो पुरुष जिनन्द्र कथित शान रुपीजल को पाकर निर्मल और विशुद्ध भावों सहित हाजाते हैं वेही पुरुष तीन भुवन के चूड़ामणि अर्थात तीन जगत में शिरोमणि जो मुक्ति का स्थान अर्थात सिद्धालय है उसमें वसने वाले सिद्ध होते हैं।
णाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते तेसु इच्छियं लाई । इय गाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ॥४२॥ ___ ज्ञानगुणैर्विहीनाः न लभन्ते ते स्विष्टं लाभम् । ___ इतिज्ञात्वागुणदोषौ तत् सदज्ञानं विजानीहि ।
अर्थ--शान गुण से रहित पुरुष उत्तम इष्ट लाभ को नहीं पाते हैं इसलिये गुण और दोष को जानने के लिये उस सम्यग शान को जानो।
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( ३४ ) चारित्त समारूढो अप्पासुपरंण ईहए गाणी । पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाणणिच्छयदो ॥४३॥
चारित्रसमारुढ आत्मसुपरं न ईहते ज्ञानी । प्रामोतिअचिरेणसुखम् अनुपमं जानीहि निश्चयतः ॥
अर्थ-शानी पुरुष चारित्र वान होता हुवा पर वस्तु को अपने मैं नहीं चाहता है अर्थात अपनी आत्मा मे भिन्न किसी वस्तु में राग नहीं करता है इसी से थोड़े ही काल में अनुपम सुख को अवश्य पालेता है एसा जानो।
एवं संखेवेण य भणियं णाणण वीयरायेण । सम्मत्त संजमासय दुगहंपि उपदेसियं चरणं ॥४४॥
एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतगगेण ।
सम्यक्त्व संयमाश्रय द्वयमपि उपदेशितं चरणम् ।। अर्थ-इस प्रकार वीत्तराग केवल नानी ने दो प्रकार का चारित्र अर्थात उपदेश किया है ? सम्यक्त्वाचरण और मंयमाचरण, तिसको संक्षप के साथ मैंने (कुन्दुकुन्दाचार्यन ) वर्णन किया है।
भावेहभावसुद्धं फुडरइयं चरणपाहुडं चेव । लहुचउगइ चइऊणं अचिरेणापुणव्यवाहोह ॥४५॥
भाषयत भावशुद्धं स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव । लघुचतुर्गतीः त्यक्त्वा अचिरणाऽपुनर्भवा भवत ।।
अर्थ-श्रीमत् कुन्दुकुन्द स्वामी कहते हैं इस चारित्र पाहड़ को मैने (प्रगट। रचा है तिस को तुम शुद्ध भाव कर भावा (अभ्यास करो) इस से शीघ्र ही चारों गतियों को छोड़ कर थाड़ ही काल में मोक्षपद के धारण करने वाले हो जावांगे जिस के पीछे और कोई भावही नहीं है अर्थात् जिस को प्राप्त करके फिर जन्म मरण नहीं होता है।
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( ३५ ) ४ चौथा बोध प्राकृतम् । बहुसच्छअच्छजाणे संजमसम्पतसुद्धतवयरणे । बन्दिताआयरिए कसायमल वज्जिदेमुद्दे ॥१॥ सयलजणवोहणत्थं जिणमग्गोजिणवरेहिंजहभणियं । बुच्छामिसमासेणय छक्कायमुहंकरं मुणम् ॥ २ ॥
बहुशास्त्रार्थनायकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । वन्दित्वाऽऽचार्यान् कपायमलवनितान् शुद्धान् ॥ सकलजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैर्यथा मणितम् । वक्ष्यामिसमासन च षटकायसुहंकरं शृणु ॥
अर्थ-अनेक शास्त्री के अर्थों के जानने वाले, संयम और सम्यग दर्शन से शुद्ध हैं तपश्चरण जिनका, कषाय रूपी मल से रहित और शुद्ध ऐसे आचार्य परमेष्ठी की बन्दना ( स्तुति) करके बोध पाहुड़ को संक्षेप से वर्णन करता हूँ जैसा कि षटकाय के जीवों को हितकारी जिनेन्द्रदेव ने जैन शास्त्रों में समस्त जनों के बोध के अर्थ वर्णन किया है, तिस को तुम श्रवण करो।
आयदणं चैदिहरं जिणमडिमा दंसणं च जिणविवं । भणियं मुवीयरायं जिणमुद्दाणाणमादच्छं ॥ ३ ॥ अरहतेणसुदिटं देवं तिच्छमिहयअरिहन्तं । पाविज्जगुणविमुद्धा इयणायव्वाजहाकमसो ॥ ४ ॥
आयतनं चैत्यगृहं जिनप्रतिमादर्शनं च जिनबिम्बम् । भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमत्मस्थम् ।। अर्हतासदृष्टंयोदेवः तीथमिह च अर्हनन्तम् । प्रवज्यागुणविशुद्धा इति ज्ञातव्या यथाक्रमशः ॥
अर्थ-- इस बोध पाहुड़ में इन ११ स्थलों से वर्णन किया जाता है मायतन १ चैत्यग्रह २ जिन प्रतिमा ३ दर्शन ४ उत्तम वीतरागस्वरूप
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( ३६ ) जिनबिम्ब ५ जिनमुद्रा ६ आन्मार्थ ज्ञान ७ अर्हन्त देव कथित देव ८ तीर्थ ९ अर्हन्त स्वरूप १० गुणों कर शुद्ध साधू ११ इनका स्वरूप यथा क्रम वर्णन करते हैं तिसको चिन्तवन करो।
मण वयण काय दव्वा आयत्ता जस्म इंन्दिया विसया। आयदणं जिणमग्गे णिद्दिढ सञ्जयं हवं ॥५॥ मनो वचन काय द्रव्याणि आयत्ता यम्य ऐन्द्रिया विषयाः ।
आयतनं जिनमार्गे निर्दिष्टं सायन्तं रूपम् ॥ अर्थ-मन वचन काय तथा पांचों इन्द्रियों के विषय जिसके आधीन है तिस संयमी के रूप ( शरीर ) को जैनशास्त्र में आयतन कहत हैं । अर्थात जिसने इन्द्रिय मन वचन काय को अपने वश में कर लिया है उस संयमी मुनि का देह आयतन है।
मय राय दोस मोहो कोहो लोहो य जस्स आयत्ता। पञ्चमहव्यधारी आयदणंमहरिसी भणियं ॥ ६ ॥ मदो रागो द्वेषो मोहः क्रोधो लोभश्च यस्य आयत्ता ।
पञ्चमहाबतधरा आयतनं मह ऋषय भणिताः ॥
अर्थ-जिनके मद, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, लोभ, और माया नहीं है और पञ्च महाव्रतों के धारक हैं व महर्षि आयतन कहे मये हैं।
सिद्धं जस्स सदच्छं विसुद्धझाणस्स गाण जुत्तस्स । सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवर वसहस्स मुणिदच्छं ॥ ७॥ सिद्धं यस्य सदर्थ विशुद्ध ध्यानस्य ज्ञान युक्तस्य ।
सिद्धायतनं सिद्धं मुनिवर वृषमस्य ज्ञातार्पस्य ॥
अर्थ-जिसका शुद्धात्मा सिद्ध हो गया है जो विशुद्ध (शुक्ल) ध्यानी केवल ज्ञानी और मुनिवरी में प्रधान हैं ऐसे अर्हन्त को सिद्धायतन वर्णन किया गया है।
बुद्धं जम्बोहन्तो अप्पाणं वेइयाइ अण्णं च । पञ्चमहव्वय मुद्धं णाणपयं जाण चदिहरं ॥ ८॥
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( ३७ )
बुद्धं यत् बोधयन आत्मानं वेति अन्यं च । पञ्चमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यग्रहम् ॥
अर्थ-जो शानस्वरूप शुद्ध आत्मा को जानता हुआ अन्य जीवों को भी जानता है तथा पञ्चमहानतो कर शुद्ध है एसे शानमई मुनि को तुम चैत्यग्रह जानो।
भावार्थ-जिसमें स्वपर का ज्ञाता वसै है वेही चैत्यालय है। ऐसे मुनि को चैत्यग्रह कहते हैं।
बेइय बन्धं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्ययं तस्य । चेइहरो जिणमग्गे छक्काय हियं करं भणियं ॥९॥
चैत्यं बन्धं मोक्षं दुःखं सुखं च अर्पयतः । नैत्यग्रहं जिनमार्गे षटकाय हितकरं भणितम् ॥
अर्थ-- बन्धमोक्ष, और दुख सुख में पड़े हुवे छैकाय के जीवों का जो हित करनेवाला है उसको जैनशास्त्र में चैत्यग्रह कहा है।
भावार्थ-चैत्य नाम आत्मा का है वह वन्ध मोक्ष तथा इनके फल दुःख सुख्न को प्राप्त करता है । उसका शरीर जब षटकाय के जीवों का रक्षक होता है तबही उसको चैत्यग्रह (मुनि-तपस्वी-प्रती) कहते हैं। ___ अथवा चैत्य नाम शुद्धात्मा का है । उपचार से परमौदारिक शरीर सहित को भी चैत्य कहते हैं उस शरीर का स्थान समवसरण तथा उनकी प्रतिमा का स्थान जिन मन्दिर भी चैत्य ग्रह है। उसकी जो भक्ति करता है तिसके सातिशय पुन्य वन्ध होता है क्रम से मोक्ष का पात्र बनता है उन चैत्यग्रहों के विद्यमान होते अहिंसादि धर्मका उपदेश होना है इमसे वे षट्काय के हितकारी हैं ।
सपराजंगमदेहा सणणाणेण शुद्धचरणाणं । निग्गन्थवीयराया जिणमग्गे एरिसापडिमा ॥१०॥
स्वपराजङ्गमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्गन्यावीतरागा जिनमार्गे इदृशी प्रतिमा ॥
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( ३८ ) अर्थ-दर्शन और शान से जिन का चारित्र शुद्ध है ऐसे तीर्थरदेव की प्रतिमा जिन शास्त्रों में ऐसी कही है जो निर्गन्ध हो अर्थात् वन भूषण जटा मुकुट आयुध रहित हो, तथा वीतराग अर्थात् ध्यानस्थ नासाग्र दृष्टि सहित हो । जैनशास्त्रानुकूल उत्कृष्ट हो और शुद्ध धातु आदि की बनी हुई हो।
जं चरदि सुद्धचरणं जाणइपिच्छेइ सुद्ध सम्मत् । सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥११॥ ___ यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्तुम् ।
सा भवति वन्दनीया निर्ग्रन्था संयता प्रतिमा ॥
अर्थ-जो शुद्ध चारित्र का आचरण करत हैं. जैन शास्त्र को जानते हैं तथा शुद्ध मम्यकत्व स्वरूप आत्मा का श्रद्धान करते हैं उन संयमी की जा निग्रन्थ प्रतिमा है अर्थात शरीर वह बन्दनीय है।
भावार्थ -मुनियों का शरीर जंगम प्रतिमा है और धातु पापाण आदिक से जो प्रतिमा बनाई जाव वह अजङ्गम प्रतिमा है।
दसण अणन णागणं अमन वाग्यि अणनमुकवाय । सास यमुक्व अंदहा मुक्का कम ह यः ॥१२॥ निरुवम मचलम व हा णिम्मिविया जंगणरूवण । सिद्धा ठाणम्मिठिया वोलर पाडमा धुवा सिद्धा ॥१३॥ दशन मनन्तज्ञानम् अनन्त यमनम्नसुखं च । शास्वतमुखा अदेहा मुक्ता कर्माष्टबन्धैः ॥ निरुपमा अचला अक्षोमा निर्मापता जङ्गमेन रूपेण । सिद्धस्थानेस्थिता व्युत्सगप्रतिमा ध्रुवा सिद्धा ।। अर्थ-जिन के अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य अनसख विद्यमान है, अविनाशी सुख स्वरूप है, देह से रहित हैं. आठ कर्मों से छूट गये हैं संसार में जिनकी कोई उपमा नहीं है, जिनके प्रदेश अचल हैं, जिनके उपयोग में क्षोभ नहीं है, जंगम रूप कर निर्मापित हैं, कर्मो से छूटने के अनन्तर एक समयमात्र ऊर्ध्व
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( ३९ )
गमन रूप गति से चरमशरीर से किंचिन्न्यून आकार को प्राप्त हुवे हैं, मुक्त स्थान में स्थित हैं, खड्डासन वा पद्मासन अवस्थित हैं ।
अर्थात् - जिस आसन से मुक्त हुवे हैं उसी आकार हैं। ऐसी प्रतिमा जो सदा इसी प्रकार ध्रुव रहती है बन्दने योग्य है ।
दमेइ मोक्खमगं संमत्तं संयमं सुधम्मं च । णिग्गंथं णाणमयं जिणमगे दंसणं भणियं ॥ १४ ॥ दर्शयति मोक्षमार्गं सम्यकत्वं संयमं सुधर्मं च । निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्ग दर्शनं भणितम् ॥
अर्थ - निर्बंध और ज्ञानमई मोक्ष मार्ग को, सम्यक्त्व को, संयम
को. आत्मा के निज धर्म को जो दिखाता है उसको जैन शास्त्र में दर्शन कहा है
I
जहफुलं गंधमयं भवदिहु वीरं सघिय मयं चावि । तह दंसणाम्म सम्मं णाणमय होड रूपच्छे " ॥
रू. स्म् ॥
यथा पुष्पं गन्धभयं भवति स्कर्ट र तथा दर्शने सम्यक्त्व ज्ञानयं भवा अर्थ - जैसे फूल गन्ध वाला है दूध वाला हैं तैसे ही दर्शन सम्यकूत्व वाला है । वह सम्यकत्व अन्तरङ्ग तो ज्ञानमय है और वाह्य सम्यगदृष्टिं श्रावक और मुनि के रूप में स्थित है ।
य चारि ।
जिणविर्वणाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च ।
जं देइ दिक्ख सिक्खा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ||१६|| जिनविम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च ।
य ददाति दीक्षा शिक्षा कर्मक्षय कारणे शुद्धाः ।
अर्थ - जो ज्ञानमय हैं, संयम में शुद्ध हैं अत्यन्त वीतराग हैं,
और कर्मों के क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शीक्षा देते हैं वह आचार्य परमेष्ठी जिन विम्व हैं । अर्थात जिनेन्द्रदेव के प्रतिबिम्ब ( सादृश्य ) हैं ।
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( ४० )
तस्य करहपणामं सव्वं पूज्जंय विणय वच्छलं । जस्यय दंसणणाणं अस्थि ध्रुवं चेयणाभावो ॥१७॥
तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां विनय वात्सल्यं । यस्य च दर्शनं ज्ञानम्, अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ||
अर्थ - जिन में दर्शन और ज्ञानमयी चेतन्य भाव निश्चल रूप विद्यमान है उन आचार्यों और उपाध्याय और सर्व साधुओं को प्रणाम करो उनकी सर्व (अष्ट ) प्रकार पूजा करो विनय करो और वात्सल्य भाव (वैयात्य ) करो ।
तववयगुणेहि सृद्धो जाणदि पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । अरहंत मुद्दएमा दायारो दिवक्खसिखाया ॥ १८ ॥
तपोवतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यकत्वम् । अर्हमुद्रा एषा दात्री दीक्षा शिक्षायाः ॥
अर्थ- -तप और व्रत और गुणां कर शुद्ध हो, यथार्थ वस्तुस्वरूप के जानने वाला हो, शुद्धसम्यग दर्शन के स्वरूप का देखने वाला हो वह आचार्य अर्हन्त मुद्रा है ।
दिसंजम मुद्दाए इंदियमुद्दा कसाय दिढमुद्दा |
मुद्रा इहणाणाए जिण मुद्दाएरिसा भणिया ||१९||
दृढ संयम मुद्राया इन्द्रियमुद्रा कषाय दृढमुद्रा । मुद्रा इह ज्ञाने जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥
अर्थ- दृढ़ अर्थात किसी प्रकार भी चलाया हुवा न चले ऐसे संयम से जिन मुद्रा होती है, द्रव्येन्द्रियों का संकोचना अर्थात कछवे की समान इन्द्रियों को संकोच कर स्वात्मा में स्थापित करना इन्द्रिय मुद्रा है, क्रोधादिक कषायों को दृढ़ता पूर्वक संकोच करना, कमकरना, नाश करना कषाय मुद्रा है। ज्ञान में अपने को स्थापित करना ज्ञान मुद्रा है ऐसी जिन शास्त्र में जिन मुद्रा कही है।
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संजम संजुत्तस्सयसुझाणजोयस्म मोक्खमग्गस्स । णाणण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं ॥ २० ॥
संयम संयुक्तस्य च सुध्यान योगस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ।
अर्थ-संयम सहित भौर उत्तम ध्यान युक्त मोक्ष मार्ग का लक्ष्य अर्थात चिन्ह शान से ही जाना जाता है इस से उस ज्ञान को जानना योग्य है।
जहण विलहदिहुलक्खं रहिओ कंहस्स वेज्जयविहीणो। तहण विलक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्ख मग्गस्स ॥२१॥
यथा न विलक्षयति स्फुटं लक्ष्य रहितः काण्डस्य वध्यकविहीनः।
तथा न विलक्षयति लक्ष्यं अज्ञानी मोक्ष मागस्य ।। अर्थ-जैस कोई पुरुष लक्ष्य विद्या अर्थात निशाने वाज़ी को न जानता हुवा और उसका अभ्यास न करता हुवा वाण अर्थात तीर से निशाने को नहीं पाता ह तेमे ही शान रहित अज्ञानी पुरुष मोक्ष मार्ग के निशाने का अर्थात दर्शन शान चरित रूप आत्म स्वरूप को नहीं पा सकता है।
णाणं पुरुसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो विविणय संजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥२२॥ ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोपि विनयसंयुक्तः ।
ज्ञानन लभते लक्ष्यं लक्ष्ययन मोक्षमार्गस्य ।। अर्थ-ज्ञान पुरुष में अर्थात आत्मा में ही विद्यमान है परंतु गुरु आदिक की बिनय करने वाला भव्य पुरुष ही उसको पाता है, और उस ज्ञान से ही मोक्ष मार्ग को ध्यावताहु मोक्ष मार्ग के लक्ष्य अर्थात निशान को पाता है।
मइ धणुहं जस्सथिरं सुदगुण वाणं मु अच्छिरयणतं । परमच्छ बदलक्खो णवि चुकदि मोक्खमग्गस्स ॥२३॥
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( ४२ )
मातर्धनुर्यस्यस्थिरं श्रुतगुणं वाणः सुअस्तिरत्नत्रयम् । परमार्थ वद्धलक्ष्यः नापि स्स्वलति मोक्षमार्गस्य ||
अर्थ -- जिस मुनि के पास मति ज्ञान रूपी स्थिर धनुष है जिस परश्रुत ज्ञान का प्रत्यञ्चा है, रत्नत्रय रूपी उत्तम वाण (तीर ) जिस पर चढ़ा हुवा है जिसने परमार्थ को लक्ष्य अर्थात निशाना बनाया हुवा है वह मुनि मोक्ष मार्ग से नहीं चूकना है ।
भावार्थ -- जो मति शानी शास्त्रों का अभ्यास करता हुआ रत्न त्रय संयुक्त होकर परमार्थ को खोजता है वह मोक्षमार्ग से नहीं डिगता है। सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णांणं च । सो देइ जस्स अच्छिदु अच्छो धम्मोयपवज्जा ॥२४॥ स देवो योऽर्थं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च ।
स ददाति यस्य अस्तितु अर्थः धर्मश्च प्रवृज्या ॥ अर्थ - - धन धर्म, काम और ज्ञान अर्थात केवल ज्ञान रूपी मोक्ष को जो देवै साहादेव है । जिस के पास धन धर्म और अर्थात् दीक्षा हो वही दे सक्ता है ।
प्रवृज्या
धम्र्मोदया विसुद्ध पवज्जा सव्त्र संग परिचत्ता । देवोaarयमोहो उदयकरो भव्व जीवाणं ||२५|| धर्मोदय विशुद्धः प्रवृज्या सर्वसंगपरित्यक्ता । देवो व्यपगतमोहः उदयकरो भव्यजीवानाम् ॥
अर्थ – जो दया करिके विशुद्ध है वह धर्म है, समस्त परिग्रह से रहित है वह देव है वही भव्य जीवों के उदय को प्रकट करने वाला है ।
बय सम्पत्त विसृद्धे पंचेंदिय संजदेणिरावेक्खे | नहाएओ मुणितिच्छे दिक्खासिक्खासु णहाणेण ॥ २६ ॥
व्रतसम्यकत्व विशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपक्षे | स्नातु मुनिः तीर्थ दीक्षाशिक्षासुनानेन ॥
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(
४३
)
अर्थ-व्रत ( महावत ) और सम्यकत्व में शुद्ध पाञ्च इन्द्रियों के मंयम सहित, निरपेक्ष अर्थात् इस लोक और परलोक सम्बन्धी विषय वांछा रहित ऐसे शुद्ध आत्म स्वरूप तीर्थ में दीक्षारुपी उत्तम स्नान से पवित्र होवो।
जणिम्मलं सुधम्म सम्पत्तं संजमं तवं गाणं । तं तिच्छं जिणमग्गे हवेइ यदि संतभावेण ॥ २७॥ ___ य निर्मल सुधर्म सम्यक्त्वं संयम तपः ज्ञानं ।
त तीर्थ जिनमार्गे भवति यदि शान्तमावेन ।।
अर्थ-निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म, सम्यग्दर्शन, संयम द्वादश प्रकार का तप, सम्यगज्ञान, यह तीर्थ जिन मार्ग में हैं यदि शान्त भाव अर्थात् कपाय रहित भाव से सेवन किये जाँय तो यह जैन धर्म के तीर्ध हैं।
णामवणहिंय संदव्येभावेहि सगुणपजाया । चउणागादि संपदिमं भावा भावंति अरहतं ॥ २८ ॥ नाम स्थापनायां हि च संद्रव्ये भावे हि सगुणपर्यायाः ।
च्यवणागति संपदइमेभावाः भावयन्ति अर्हन्तम् ।। अर्थ-~-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, इनसं गुणपर्याय सहित अईन्त जान जाते हैं तथा च्यवण अर्थात अवतार लेना आगति अर्थात भरतादिक क्षेत्रों में आना, सम्पत् अर्थात पंचकल्याणकाका होना यह मब अहन्तपन को मालूम कराते हैं।
दसण अणंत णाणे मोक्खो णदृढ कम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो अग्हनो एरिसो होई ॥ १९ ॥
दर्शने अनन्ते जाने मोक्षानष्टाष्टकमबन्धेन । निरूपमगुणमरूढः अर्हन् इदृशो भवति ॥
अर्थ – अनन्तदर्शन और अनन्त ज्ञान के विद्यमान होने पर अष्टकर्मा के वन्धका नाठा होनेसे मानो मोक्षही हो गये हैं और
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( ४४ ) उपमारहित अनन्तचतुष्टय आदि गुणांकर सहित हैं ऐसे अर्हन्त परमेष्टी होते है।
भावार्थ-यद्यपि अर्हन्तदेव के आयु, नाम, गोत्र, और वेदनीय इन चार अघातिया कर्मों का अस्तित्व है तौभी कार्यकारी न होने से नष्टवतही है । १३ में गुणस्थान में प्रकृति वा प्रदेश बंधही होता है स्थिति अनुभागबन्ध नहीं होता है इस कारण बन्ध न होने के ही समान हैं तथा समम्न कर्मों के नायक माइकर्म के नाश होजाने पर बाकीके कर्म कार्यकारी नहीं हैं इस अपेक्षा अहन्त भगवान मोक्षस्वरूपही है।
जरवाहिजम्म मरणं चउगइ गमणं च पुण्णपावं च । हंतूणदोसकम्मे हुउणाणमयं च अरिहंतो ॥ ३० ॥
जराव्याधि जन्ममरण चतुर्गतिगमनं च पुण्यपापं च । हत्वा दोषान् कर्माणि भूतः ज्ञानमयः अर्हन् ।
अर्थ-जरा अर्थात बुढापा व्याधि अर्थात गंग, जन्म मरण चतुर्गति गमन तथा पुन्य पाप आदि दोषों को तथा उनके कारण भूत कर्मों को नाश कर जो केवल ज्ञान मय हैं वह अर्हन्त दव हैं।
गुणठाण मग्गणेहिंय पज्जत्तीपाण जीवठाणहि । ठावण पंच विहेहि पणयव्वा अरहपुरुसस्स ॥३१॥
गुणस्थान मार्गणाभिश्च पर्याप्तिप्राण जीवस्थान. । स्थापन पञ्चविधै प्रणेतव्या अहत्पुरुषस्य ॥
अर्थ--१४ गुण स्थान, १४ मार्गणा ६ पर्याप्ति, प्राण, जीव स्थान इन पांच स्थापना से अर्हन्त पुरुष को प्रणाम करो।
तरहगुगटःणे पाजोयकेवालय होइ अरहंतो। च उतीस अइगयगुण तिहु तस्स टु पडिहारा ॥३२॥ त्रयोदशगुणस्थाने सयोगकवलिको भवति अर्हन् । चतुस्त्रिंशदतिशयगुण भवन्तिहु तस्यप्रातिहार्याणि ॥
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अर्थ-तेरह में गुण स्थान में संयोग केवली अर्हन्त होते हैं । जिन के ३४ अतिशय रूपी गुण और ८ प्रानिहार्य होते हैं।
गइ इंदियं च काए जोए वेए कषाय णाणेय । संयम दसण लेस्सा भविया सम्मत्तसण्णि आहारो ॥३३॥
गतिः इन्द्रियं च कायः योगः वेद कषाय ज्ञान च । संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यकत्व संज्ञि अहार ॥ अथे-गति ४ इन्द्रिय ५ काय ६ योग्य १५ वेद अर्थात् लिङ्ग३ कषाय २५ ज्ञान (कुझान३ सहित ) ८ संयम (असंयमादिक सहित) ७ दर्शन ४ लेश्या ६ भव्यत्व ( अभव्यत्वसहित ) २ संशी ( अमंज्ञीसहित ) २ आहार ( अनाहरकमहित ) २ इस प्रकार १४ मार्गणास्थान हैं मार्गणा नाम तलाश करने का है, चारों गतियों में से प्रत्येक मार्गणा में मालूम करना चाहिये कि प्रत्यक मार्गणा के भेदा में अहंत भगवान के कौन भेद होता है जैसे कि गतिमार्गणाके चार भेद हैं उनमें से अर्हतभगवान की मनुष्य गति होती है। इस प्रकार सर्बही मार्गणा में खोज करना।
आहारोय सरीरो इंदियमण आण पाण भासाय । पज्जत्तगुण समिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरिहो ॥३४॥
आहार: च शरीरम् इन्द्रियम् मनः आनप्राणः भाषा च । पर्याप्तिगुणसमृद्धः उत्तमदेवो भवति अर्हन् ।।
अर्थ-आहार पर्याप्ति १ शरीर पर्याप्ति २ इन्द्रियपर्याप्ति ३ स्वासोच्छ्वा स पर्याप्ति ४ भाषा पर्याप्ति ५ मन पर्याप्ति ६ इन सहित अर्हन्त उत्तम देव होते हैं।
भावार्थ-परन्तु जिस प्रकार साधारण मनुष्य आहार लेते हैं इस प्रकार अर्हन्त आहार नहीं लेते हैं बल्कि शरीर में नवीन परमाणुओं का आना जिनको नोकर्म कहते हैं वह ही उन का आहार है।
पंचवि इंदियपाणा मणवयकारण तिण्णिवलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउग पाणेण दहपाणा ।। ३५ ॥
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( ४६ )
पञ्चापि इन्द्रियप्राणाः मनोवचः कायै त्रयोवलप्राणाः । आनप्राणप्राणाः आयुष्कप्राणेण दश प्राणाः ||
अर्थ - पांच इन्द्रियमाण मनोबल वचनबल कायबल श्वासो - स्वास और आयु यह दश प्राण हैं । तिनमें से भाव अपेक्षा और कायवल वचनबल श्वासोच्छ्रवास और आयु यह ४ प्राण अर्हत के होते हैं और द्रव्य अपेक्षा दमही प्राण होते हैं ।
मयभवेपंचिमदिय जीवद्वाणे होइ चउदसमे | एदेगुणगणजुत्तो गुणमारुढो हवइ अरहो || ३६ ॥
मनुजभवे पञ्चेन्द्रिय जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशमे । एतद्गुणगणयुक्तो गुणमान्दढो भवति अर्हन् ।।
अर्थ - मनुष्य भव में पंचेन्द्रिय नामा १४वां जीवसथान में इन गुणों सहित गुणवान अरहंत होते हैं ।
भावार्थ - जीवसमा १४ हैं, अर्थात सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरंन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, असैनी और पंचेन्द्रिय सैनी, इस प्रकार सात हुवे, पर्याप्त और अपर्याप्त इनके दो दो भेद होकर १४ जीवसमास हैं इनमें श्री अहंत पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्त हैं ।
जरवाहिदुक्खरहियं आहारणीहार वज्जिय विमल । सिंहाणखेलसेओ णच्छि दुगंधा य दोसो य ॥ ३७ ॥ जराव्याधिदु.खरहित. अहारनीहारवर्जितः विमलः । सिंहाणः खेलः नास्ति दुर्गन्धश्च दोषश्च ॥
अर्थ -- अर्हन्तदेव जरा और व्याधि अर्थात शरीर रोग के दुःखों से रहित, आहार अर्थात भोजन खाना, नीहार अर्थात मलमूत्र करना इनसे वर्जित, निर्मल परमैौदारिक शरीरके धारक हैं, जिनके नामिका का मल अर्थात सिणक और थूक खकार नहीं है और उनके शरीर मैं दुर्गन्ध भी नही है और दोष अर्थात वात पित्त कफ भी नहीं है ।
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( ४७ ) दसपाणपज्जती असहस्सा लक्खणाभणिया । गोखीर संखधवलं मांसरुहिरं च सव्ंगे || ३८ ॥
दश प्राणाः पर्याप्तयः अष्टसहश्रं च लक्षणानां भणितम् । गोक्षीरसंखधवलं मांसं रुधिरं च सर्वाङ्गे ।।
अर्थ - अर्हन्तदव के द्रव्य अपेक्षा दश प्राण हैं षटपर्याप्ति आठ अधिक एक हजार १००८ लक्षण हैं और जिनके समस्त शरीर में जो मांस और रुधिर है वह दुग्ध और शंख के समान सुफेद है ।
एरिस गुणेहिं सव्वं अइसयवं तं सुपरिमलामोयं । ओरालियं च काओ णायव्वं अरुह पुरुसस्स ॥ ३९ ॥ इदृशगुणैः सर्व. अतिशयवान् सुपरिमलामोदः ।
औदारिकश्च कायः ज्ञातव्यः अर्हत्पुरुषस्य ||
अर्थ - एसे गुणांकर महित समस्तही देह अतिशयवान और अत्यन्त सुगन्धिकर सुगन्धित है ऐसा परमौदारिक शरोर अर्हन्त पुरुषका जानना ।
मयरायदोसरहिओ कसायमल वज्जओयसुविसृद्धो । चित्तपरिणामरहिदो केवलभावेमुणयन्त्रो ॥ ४० ॥
मदरागदोपरहितः कषायमलवर्जितः सुविशुद्धः । चित्तपरिणामरहितः केवलभाव ज्ञातव्यः ॥
अर्थ - केवल ज्ञानरूप एक क्षायिकभावक होने पर अर्हन्तदेव मद राग द्वेष से रहित कपाय और मलसे वर्जित शान्तिमूर्ति और मनके व्यापार से रहित होते है ।
सम्मइ दंसण पस्सइ जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया । सम्पत्तगुणविसुद्ध भावोअरहरूसणायव्वो || ४१ ॥
सम्यग्दर्शनेन पश्यति, जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वगुण विशुद्धः भावः अर्हतः ज्ञातव्यः ॥
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( ४८ ) अर्थ-सर्वज्ञ अर्हन्तदेवका भाव (स्वरूप ) ऐसा है कि सम्यस्वरूप दर्शन (सामान्यावलोकन ) कर स्वपर को देखें हैं और कानकर समस्त द्रव्य और उनकी पर्यायों को जाने हैं तथा क्षायिक सम्यक्त्व गुणकर सहित हैं।
भावार्थ-अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनन्तसुख और अनन्त वीर्य यह चार गुणघातिया कर्माके नाश से अर्हन्त अवस्था में प्रकट होते हैं।
मुण्णहरे तरुहि उज्जाणे तहमसाणवासे वा। गिरिगुह गिरिसिहरेवा भीमवणे अहव वासते वा ॥४२॥
शून्यग्रहे तरुमूले उद्याने तथा श्मशानवासे वा। गिरिगुहायां गिरिसिखिरेवा भीमवने अथवा वसतौवा ।।
अर्थ-शून्यग्रह, वृक्ष की जड़, बाग, श्मशान भूमि, पर्वतो की गुफा, पवर्ती के सिखिर, भयानक बन, अथवा वसति का (धर्मशाला ) में दीक्षित (प्रतधारी) मुनी निवास करते हैं।
सवसासत्तंतित्थं वच चइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अहवेजे जिणमगे जिणवराविति ॥ ४३ ॥
स्ववशाशक्तं तीर्थ वचश्चैत्यालय त्रयं च । जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विन्दन्ति ।
अर्थ-म्वाधीनमुनिकरआशक्त स्थान में अर्थात ऐसे स्थान में जहां मुनि तप करत है और निर्वाणक्षेत्र आदि तीर्थ स्थान में शब्दागम परमागम युक्त्यागम यह तीनों ध्यान करने योग्य हैं तथा जिन मन्दिर ( कृत्रिम आकृत्रिम लोकत्रय में स्थित जिनालय ) भी ध्यान करने योग्य हैं एसा जिन शास्त्रा में जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
पंचमहव्वयजुत्ता पंचेंदिय संजया निरावेक्खा । सञ्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहाणि इच्छति ॥४४॥
पञ्चमहाब्रतयुक्ता पञ्चेन्द्रियसंयता निरापेक्षा । खाध्यायध्यानयुक्ता मुनिवरवृषभानीच्छन्ति ।।
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अर्थ-जा पञ्च महाव्रतधारी, पांचों इंद्रियों को वश करनेवाले वांछारहित और स्वाध्याय तथा ध्यान में लवलीन रहते हैं वह प्रधान मुनिवर ध्येय पदार्थों को विशेषता कर वांछत हैं।
गिह गंथ मोह मुका वावीस परीसहा जियकसाया। पावारंभ विमुक्का पन्वज्जा एरिसा भणिया ॥४॥
ग्रह अन्य मोह मुक्ता द्वाविंशति परीषहाजिद अक्षाया । पापारम्भ विमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भाणिता ॥
अर्थ-ग्रह निवास, वाह्य अभ्यन्तर परिग्रह और ममत्व परिणाम से रहित होना, २२ परीषहाओं का जीतना, कषाय तथा पापकारी आरम्भ से रहित होना ऐसी प्रव्रज्या (मुनिदीक्षा) जिन शासन में कही है।
धणधण्ण वच्छदाणं हिरण्णसयणासणाइछत्ताई। कुदाणविरहरहिया पञ्चज्जा एरिसा भणिया ॥४६॥
धन धान्य वस्त्रदानं हिरण्य शयनासनादि छत्रादि ।
कुदान विरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।
अर्थ-वस्त्र (धाती दुपट्टा आदि ) हिरण्य (सिका) शयन (खाट पलँग) आसन (कुरसी मूढा आदि) तथा छत्र चमर आदि कुदानों के दान देन से रहित हो।
सत्तमित्तेयसमा पसंसर्णिदा अलदि लद्धिसमा । तणकणए समभावा पवज्जा एरिसा भणिया ॥४७॥
शत्रुमित्र च समा प्रशंसा निन्दायां अलब्धि लब्धौ । तृण कणके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ अर्थ-जहां शत्रु मित्र में, प्रशंसा निन्दा में, लाभ अलाभ में, तृण कंचन में, समान भाव (रागद्वेष न होना) है ऐसी प्रवज्या जिन शासन में कही है।
उत्तममझिमगेहे दारिदे ईसरे निरावेक्खा । सम्वच्छ गिहदिपिंडा पवजा एरिसा भणिया ॥४८॥
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( ५० ) उसम मध्यमग्रेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा। सर्वत्र ग्रहीतपिण्डा प्रव्रज्या ईदृशी भाणता ॥
अर्थ--उत्तम मकान ( राजमहल ) मध्यम मकान (साधारण घर) दरिद्र पुरुष, धनी पुरुष इन में विशेष अपेक्षा रहित अर्थात् यह उत्तम मकान है इसमें भोजन अच्छा मिलंगा यह साधारण घर है यहां भोजन करने से हमारी मान्यता बढेगी यह निधन है यहां न जावं यह राजा है यहां जावं इत्यादि विशेष अपेक्षाओं से रहित हो (किंतु ) सर्वत्र सुयोग्य सदग्रस्था के घरो में आहार ग्रहण किया जावे एसी प्रव्रज्या जिन शासन में कही है।
णिग्गंथा णिसंगा णिम्माणासा अराय णिदोसा । णिम्मम णिरहंकारा पन्चज्जा एरिसा भाणया॥४९॥ निग्रन्था निस्सना निर्मानाशा अरागा निर्दोषा ।
निममा निरहंकारा प्रव्रज्या इदृशी भाणता ॥
अर्थ-परिग्रह रहित, स्त्री पुत्रादिककों के संग से रहित, मान कपाय तथा आशा (चाह ) से रहित, राग रहित दोषरहित, ममकार अहंकार रहित ऐसी प्रव्रज्या गणधर दवा न कही है।
णिण्णहा णिल्लोहा, णिम्मोहा णिब्वियार्गणकलुसा। णिब्भय निरास भावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५०॥
निस्नेहा निल्लोपा निर्मोहा निर्विकारानि :कलुषा । निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥
अर्थ-जहां पर स्नेह, ( राग ) लोभ, मोह, विकार, कलुषता, भय और आशा परिणाम नहीं है ऐसी जिन शासन में प्रव्रज्या (दीक्षा ) कही है।
जह जाय रुप सरिसा अवलंविय भुअ निराउहा संता। परकिय निलय निवासा पवजा एरिसा भणिया ॥५१॥
यथा जात रूप सदृशा अवलम्बित भुजा निरायुधा शान्ता । परकृत निलय निवासा प्रव्रज्या ईदृशी भाणता ॥
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अर्थ-~तत्काल के जन्मे हुवे बालक के समान निर्विकार चेष्टा कायोत्सर्ग वा पद्मासन ध्यान, किमी प्रकार के हथियार का न होना शान्तिता, और दूसरों की बनाई हुई वासतिका (धर्म शाला आदिक) में निवास करना, ऐसी प्रवज्या कही है।
उवसम खप दम जुत्ता, सरीर सत्कार वजिया रूखा । मयराय दोस रहिया पन्चज्जा एरिसा भणिया ॥५२॥
उपशम क्षमादम युक्ता शरीर सत्कार वर्जिता रुक्षा । मद राग द्वेष रहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ।।
अर्थ-जो उपसम, क्षमा, दम अर्थात इन्द्रियों को जीतना इन कर युक्त शरीर के संस्कारो अर्थात स्नानादि से रहित, रुक्ष अर्थात नैलादिक के न लगाने से शरीर में रूखापन, मद, राग द्वष न होना ऐसी प्रत्रज्या जिनन्द्र देव ने कही है।
वियरीय मूढ भावा पण? कम्मट्ट मिछत्ता । सम्मत्त गुण विमुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥२३॥ विपरीत मूढ भावा प्रणष्ट कर्माप्टा नष्ट मिथ्यात्वा । सम्यक्त्व गुण विशुद्धः प्रत्रज्या ईदृशी भणिता ।।
अर्थ- मूढ ( अज्ञान ) भाव न होना जिससे आटों कर्म नष्ट होते हैं, । मिथ्यात्व का न होना जो सम्यक्त्व गुण सं विशुद्ध है एसी प्रत्रज्या अहंन्न भगवान ने कही है।
जिणमगे पयजा छहमंधणये मुभणियणिग्गंथा। भावति भव्य पुरुसा कम्पक्खय कारणे भणिया ॥५४॥ जिनमार्गे प्रव्रज्या पट संहननेषु भणिता निग्रन्था ।
भावयन्ति भव्य पुरुषा कर्म क्षय कारणे भणिता ॥ अर्थ-वह निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या जैन शास्त्र विशेछ हो महननों में कही है जिसका भव्य पुरुष ही धारण करते हैं जोकि कर्मों के क्षय करने में निमित्त भूत कही है।
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भावार्थ-वर्षभ नाराच, वज्रनाराय, नाराष, अर्धनाराच, कोलिक, अप्रामासृपाटिक इनमें से किसी एक संहनन वाले भव्यजीवों के जिनदीक्षा होती है । इससे हे भव्यो इस पश्चम काल में इसको कर्म भय का कारण जाम अङ्गीकार करो।
तिल तस मत्त णिमित्तं समवाहिर गंथ संगहो णच्छि । पावज हवइ एसा जह भणिया सन्न दरसीरि ॥२५॥
तिलतुषमात्र निमित्त समं वाह्य ग्रन्थ संग्रहो नास्ति ।
प्रव्रज्या पतति एषा यथा मणिता सर्व दर्शिभिः ।।
अर्थ-जहां तिल के तुष मात्र (छिलके के खरावर ) भी वाह्य परिग्रह नहीं हैं ऐमी यथा जात प्रव्रज्या सर्वत्र देवन कही है।
उपसग्ग परीसह सहा णिज्जणदेसहि णिच्च अच्छेइ । सिल कट्टे भूमि तले सव्वे आरुहइ सव्व च्छ ॥५६॥
उपसर्ग परीषहसहा निर्जन देश नित्यं तिष्टति । शिलायां काष्टे भूमि तले सर्वे अरोहयति सर्वत्र ॥ अर्थ-उपसर्ग और परीषद समभाव से सही जाती हैं निर्जन शुम्य वनादिक शुद्ध स्थानों में निरन्तर निवास करते हैं शिला पर काष्ट पर और भूमि तल में सर्वत्र तिष्ट हैं शयन करते हैं, बैठे हैं। सो प्रवज्या है।
पसुपहिलं सदं संगं कुंसालसंगणकुणइ विकहाओ। सम्झाण झाणजुत्ता पव्यज्जा एरिसा भणिया ॥५७।।
पशु महिलाषण्ढ संग कुशील संगं न करोति विकथाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रवज्या ईदृशी भणिता ।। अर्थ-जहां पशु, स्त्री और नपुंसकों का संग (साथ में रहना) और कशील (व्यभिचारियों के साथ रहने वाले ) जनों का संग नहीं करते हैं तथा विकथा ( राजकया स्त्री कथा भोजन कथा चौर कसा नहीं करते हैं, किंतु स्वाध्याय और ध्याम में लगे है ऐसी प्रव्रज्या जिनागम में कही है।
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( ५३ ) नव वय गुणेहि मुद्धा संजमसम्पत्तगुण विमुदाय । मुदगुणहि सुदा पवजा एरिसा भणिया ॥२८॥ तपोबत गुणैः शुद्धा संयम सम्यक्त्वगुण विशुद्धा च ।
शुद्धगुणैः शुद्धो प्रवज्या ईदृशी माणता ॥ अर्थ-जो १२ तप ५ व्रत और ८४००००० उत्तर गुणों कर शुद्ध हो, संयम (इन्द्रिय संयम प्राणसंयम ) और सम्यग्दर्शन कर विशुद्ध हो तथा प्रव्रज्या के जो गुण और कहे थे तिन कर सहित हा ऐसी प्रव्रज्या जिन शासन में कही है।
एवं आयत्तगुण पज्जत्ता वहुविसुद्ध सम्मत्ते । णिग्गंथे जिणमग्गे संखे वेण जहा खादं ॥५९।।
एवम् आत्मतत्वगुण-पर्याप्ता बहु विशुद्ध सम्यक्त्वे । निग्रन्थे जिनमोर्ग संक्षेपेण यथाख्यातम् ।।
अर्थ - अत्यन्त निर्मल है सम्यग्दर्शन जिसमें जिन मार्ग में ऐसी निर्ग्रन्थ अवस्था जो आत्म तत्व की भावना में पूर्ण हो एसी प्रव्रज्या है तिसको म ने संक्षेप से वर्णन किया है।
रूपत्थं सुद्धच्छं जिमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भवजण वोहणत्यं छक्काय डियंकरं उत्तं ॥३०॥
रूपस्थं शुद्धार्थ जिनमार्गे जिनवरै यथा गणितम् ।
भव्य जन वोधनार्थ षट्काय हितकरम् उक्तम् ।।
अर्थ-शुद्ध है अर्थ जिसमें ऐसे निग्रन्थ स्वरुप के भाचरणों का वर्णन जैमा जिनेन्द्र देवने जिनमार्ग में किया है तैसाही षटकायिक जीवों के लिये हितकारी मार्ग निकट भव्य जनों को संबोधन के लिये मैं ने कहा है।
सद वियागे हुओ भासामूत्तेसु जंजिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीमेणय भद्दवाहुस्स ॥६॥
शब्द विकारो भूतः भाषा सूतेषु यत् जिनन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रवाहो ॥
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( ५४ ) अर्थ-शब्दों के विकार से उत्पन्न हुवे ( अक्षर रुप परणय) में ऐसे अर्धमागधी भाषा के सूत्रों में जो जिनेन्द्र देवने कहा है सो तैसाही श्री भद्रबहु के शिष्य श्री विसाखाचार्य आदि शिष्य परम्परायने जाना है तथा स्वशिष्यों को कहा है उपदेशा है। वही संक्षेप कर इस ग्रन्थ में कहा गया है।
वारस अंगवियाणं च उदस पूव्वंगविउलविच्छरणं । सुयणाण भद्दवाहु गमय गुरुभयवउ जयउ ॥६२॥ द्वादशाङ्ग विज्ञानः चतुर्दश पूर्वाङ्ग विपुल विस्तरणः ।
श्रुतज्ञानी भद्रवाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु ||
अर्थ- - जो द्वादश अङ्गों के पूर्ण शाता हैं और चौदह पूर्वाङ्गों का बहुत है विस्तार जिनके गमक (जैसा सूत्र का अर्थ है तैसाही वाक्यार्थ होवे तिस के ज्ञाता ) के गुरु ( प्रधान ) और भगवान् (इन्द्रादिक कर पूज्य ) अन्तिम श्रुतशानी ऐम श्री भद्रवाहु स्वामी जयवन्त होहु उनको हमारा नमस्कार होवो।
पांचवीं पाहुड। भाव प्राभृतम् ।
मङ्गला चारणम् णमिऊण जिणवरिंदे परसुर भवाणंद दिए सिद्धे । घोच्छामि भाव पाहुड मवसंसे संजदे सिरसा ॥१॥
नमस् त्वा जिनवरेन्द्रान् नर सुर भवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतम्-अवशेषान् संयतान् शिरसा ।।
अर्थ- नरेन्द्र सुरेन्द्र और भवनेन्द्र ( नागेन्द्र ) कर वन्दनीय (पज्य ) ऐसे जिनेन्द्रदेव को सिद्ध परमेष्ठी को तथा आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्टी को मस्तक नमाय नमस्कार करिक भाव प्राभृत को कहूंगा (कहता हूं)
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(५५)
भावोहि पढमलिंग ण दव्वलिंगं च जाण परमर्छ । भावो कारणभूदो गुण दोसाणं जिणा विति ॥ २ ॥
भावोहि प्रथमलिङ्गं न द्रव्यलिङ्गं च जानत परमार्थम् । भावः कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विंदन्ति ॥
अर्थ-जिन दीक्षा का प्रथम चिह्न भाव ही है द्रव्य लिङ्ग को परमार्थ भूत मत जानो क्योंकि गुण और दोषों का कारण भाव ( परिणाम ) ही है ऐसा जिनेन्द्र देव जानें हैं क हैं 1
भाव विशुद्धणिमित्तं वाहिरगंथस्स कीरए चाओ । वहिर चाओ चिलो अन्भन्तर गंथ जुत्तस्स ॥ ३ ॥
भाव विशुद्धि निमित्तं वाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः । वाह्मत्यागो विफलः अभ्यन्तर ग्रन्थ युक्तस्य ॥
अर्थ- आत्मीक भावों की विशुद्धि ( निर्मलता ) के लिये वाह्य परिग्रहों (वस्त्रादिकों ) का त्याग किया जाता है, जो अभ्यन्तरपरिग्रह ( रागादिभाव ) कर सहित है तिसके वाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है ।
भावरहिओ ण सिज्झइ जइवितवंचरइ कोंडि कोंडी ओ । जम्मंतराइवहुसो लंबियहच्छो गलिय वच्छो ॥ ४ ॥
भावरहितो न सिद्धन्ति यद्यपि तपश्चरति कोट कोटी । - जन्मान्तराणि बहुशः लम्बितहस्तो गलितवस्त्रः ||
अर्थ -- आत्म स्वरुप की भावना रहित जो कोई पुरुष भुजाओं को लम्बा छोडकर, और वस्त्र त्याग कर अर्थात वाह्य दिगम्बर भेष धारण कर कोटा कोटी जन्मों में भी बहुत प्रकार तपश्चरण करें तो भी सिद्धि को नहीं पाता है। अर्थात भावलिङ्ग ही मोक्ष का कारण है।
परिणामम्मि असुदे गंथे मुचेइ बाहरेय जइ ।
बाहिर गंथचाओ भाव विहूणस्स किं कुणइ ॥ ५ ॥
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( ५६ )
परिणामे अशुद्धे प्रन्थान मुञ्चति वाह्यान यदि । वाह्यप्रन्थ त्यागः भाव विहीनस्स किं करोति ॥
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अर्थ — अन्तरङ्ग परिणामों के मलिन होने पर जो बाह्यपरिग्रह (वस्त्रादिकों ) को छोड़े है सो वाह्य परिग्रह का त्याग उस भावहीन सुनि के वास्ते क्या करे है ? अर्थात निष्फल है ।
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहियेण । पथिय शिवपुरि पथं जिण उवइद्वं पयत्तेण ॥ ६ ॥
जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिङ्गेण भावरहितेन । पथिक शिवपुरपिथः जिनेन। पदिष्टः प्रयत्नेन || अर्थ - हे भव्य ? भाव ( अन्तरङ्ग परिणामों की शुद्धता ) को
मुख्य (प्रधान) जानो तुम्हारे भावरहित वाह्य लिङ्ककर क्या फल है ? (कुछ नहीं है) पथिक अर्थात हे मुसाफिर मोक्ष पुरी का मार्ग जिनेंद्र देवने भाव ही उपदेशा है इस कारण प्रयत्न से इसको ग्रहण करो ।
भावरहिण स उरिस अणाइ कालं अनंत संसारे । गहि उज्झयाओ बहुसो बाहिर णिग्गंथ रुवाइ ॥ ७ ॥ भावरहितेन सत्पुरुष अनादिकालम् अनन्त संसारे | ग्रहीता उज्झिता बहुशः वाह्यनिर्मन्थरुपाः ||
अर्थ - हे सत्पुरुष तुमने अनादि काल से इस अनन्त संसार में बहुत बार भावलिङ्ग विना बाह्य निर्मन्थ रूप को धारण किया और छोडा परन्तु जैसे के तैसे ही संसारी बने रहे ।
भीसण णरय गईए तिरयगईए कुदेव मणुगइ ए ।
पत्तो सित्ती दुक्खं भावहि जिण भावणा जीव ॥ ८ ॥ भीषण नरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेव मनुष्यगतौ ।
प्राप्तोसि तीव्र दुःखं भावय जिन भावनां जीव ||
अर्थ - हे जीव ! तुमने भावना विना भयानक नरक गति में, तिर्यञ्च गति में, कुदेव और कुमानुष गति में अत्यन्त ( तीव्र ) दुःखं को पाया है इससे तुम जिन भावना को भाबों चिन्तवो ।
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सत्तम गरयावासे दारुणभीसाइ असहणीयाए । भुत्ताई मुइरकालं दुक्खाई पिरंतर हि सहियाई ॥ ९ ॥ सप्तसुनारकवासे दारुण भीष्मणि असहनीयानि ।
भुक्तानि मुचिरकालं दुःखानि निरन्तरं सहितानि ॥ अर्थ-हे जीव तुमने सातो नरक भूमियों के आवास (बिल) में तीब्र भयानक असहनीय ऐसे दुःखों को बहुत काल तक निरन्तर भागे और सहे।
खणणुतावण वालण वेयण विच्छेयणाणि रोहं च । पत्तोसिभावरहिओ तिरयगइए चिरं कालं ॥१०॥
खननोत्तापन ज्वालम व्यसन विच्छेदन निरोधनं च । प्राप्तोसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरकालम् ।। अर्थ-हे आत्मन् ? भावना विना तिर्यच गति में पहुत काल अनेक दुःख पाये हैं, जब पृथिवी कायिक भया तब कुदाल फावडर्डा आदि से खोदने से, जब जल कायिक हुवा तय तपाने से, जब अग्नि कायिक हुवा तब बुझावने से, वायु कायिक हुवा तब हिलाने फटकने सं, जब बनस्पति हुवा तब काटने छेदने रांधने से, और जब विकलत्रय हुवा तब राकने ( बांधने ) से महादुःख पाये ।
आगंतुक माणसियं सहजं सरीरयं च चत्तार । दुक्खाई मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ॥१२॥
आगन्तुकं मानकिं सहज शारीरकं च चत्वारि । दुःखानि मनुजनन्मनि प्राप्तोसि अनन्तकं कालम् ॥
अर्थ-हे जीव ? तुमको इस मनुष्य जन्म में आगन्तुक आदि अनेक दुःख अनन्त काल पर्यन्त प्राप्त हुवे है ।
भावार्थ-जो अकस्मात बज्रपात ( विजली ) आदि के पड़ने से दुःख होय सो आगन्तुक है इच्छित वस्तु के न मिलने पर जो चिन्ता होती है उसको मानसीक दुःख कहते हैं, वात पित्त कफ से
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ज्वरादिक व्याधियों का होना सहज दुःख है, शररि के छेदने भेदने भादि से जो दुःख हो उनको शारीरक कहते हैं । इत्यादिक अनेक दुःख मनुष्य भव में प्राप्त होते है इससे मनुष्य गति भी दुःख से खाली नहीं है।
मुरणिलएम सुरच्छर विओय काळे य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस दुःखं मुह भावणारहिओ ॥१२॥
सुरनिलयेषु मुराप्सरा वियोग काले च मानसं तीबम् । संप्राप्तासि महायशः दुःखं शुम भावना रहितः ।।
अर्थ-देवलोक में भी प्रियतम देवता(प्यारीदेवी वाप्यारादेव) के वियोग समय का दुःख और बड़ी ऋद्धि धारी इन्द्रादिक देवताओं की विभूति देख कर आप को हीन मानना एसा तीब मानसीक दुःख शुभ भावना के बिना पाया।
कंदप्पमाइयाओ पंचविअमुहादि भावणाईय । भाऊण दव्वलिंगी पणिदेवो दिवे जाउ ॥१३॥ कान्दी त्यादयः पञ्चअपि अशुभ भावना च ।
भावयित्वा द्रव्यलिङ्गी प्रहीणदेवः दिविजातः ॥
अर्थ-हे भव्य ? तू द्रव्यलिङ्गी मुनि होकर कन्दपी आदि पांच अशुभ भावनाओं को भाय कर स्वर्ग में नीच देव हुवा।
पासच्छ भावणाओ अणाय कालं अणेय वारायो । भाऊण दुईयत्तो कुभावणा भाववीएहिं ॥१४॥
पाश्वस्थभावना अनादिकालम् अनेकवारान् ।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुमावना भाववीजैः ।।
अर्थ-पार्श्वस्थ आदिक भावनाओं को भाय कर अनादि काल से कुभावनाओं के परिणामरुपी वीजों से अनेक बार बहुत दुःख पाये।
भावार्थ-जो वसतिका यनाय आजीविका करै और अपने को मुनि प्रसिद्ध करे सो पार्श्वस्थ मुनि है, जो कषायवान होकर
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प्रतों से भ्रष्ट होय संघ का अधिनय करे वह कुशील है, ज्योतिष मन्त्र तन्त्र से आजीविका करै राजादिक का सेवक होवै वह संसक्त है, जिन आज्ञा से प्रतिकूल चारित्र भ्रष्ट आलसी को अवसन्न कहते है, गुरु कुल को छोड़ अकेला स्वछन्द फिरता हुवा जिन बचन को दूषित बतानेवाला मृगचारी है, इसी को स्वछन्द भी कहते हैं । यह पांचों श्रमणाभास (मुनिसमान हात होते हैं पर मुनि नहीं)जिनधर्म बाह्य हैं।
देवाण गुण विहूई रिदिमाहप्प बहुविहं दहुँ । हो जण हीणदेवो पत्तो वहुमाणसं दुःखं ॥१५॥
देवानां गुण विभूति ऋद्धि महात्म्यं वहुविधं दृष्ट्वा । मूत्वा हीनदेवो प्राप्त वहुमानसं दुःखम् ॥
अर्थ-हे जीव जब तू हीन ऋद्धि देव भया तब तूने अन्य महर्धिक देवों के गुण ( अणिमादिक) विभूति (स्त्री आदिक)
और ऋद्धि के महत्व को बहुत प्रकार देख कर अनेक प्रकार के मानसीक दुःखों को पाया।
चउविह विकहासत्तो मयमत्ता असुह भाव पयडच्छो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेय वाराओ ।।१६।।
चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशभभावप्रकटार्थः ।
भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तोसि अनेकवारान् ।। अर्थ-हे आत्मन् ? तुम (द्रव्यलिङ्गीमुनि होय ) चार प्रकार की विकथा ( अहार, स्त्री, राज, चोर, ) आठ मदों कर गर्वित तथा अशुभ परिणामों को प्रकट करने वाले होकर मनेक वार कुदेव (भवनवासी आदि हीन देव) हुवे हो।
अमुई वाहत्थे हिय कलिमळ बहुला हि गभ वसहीहिं । बसिओसिचिरं कालं अणेय जणणीहिं मुणिपवर ॥१७॥
अशुचिषु वीमत्सासु कलिमलवहुलामु गर्मवसतिषु । उपितोसि चिरकालं अनेका जनन्यः हि मुनिप्रवर ॥
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अर्थ-भो मुनिश्वर (मुनिप्रधान) आप अपवित्र, घिणावणी पाप के समान अप्रिय, अत्यन्त मलीन ऐसी अनेक माताओं के गर्भ में बहुत काल रहे हो।
पीओसि यणछीरं अणंत जम्मतराय जणणीणं । अण्णण्णाण महाजस सायर सलिलादु अहियतरं ॥१८॥ पीतोसि स्तनक्षीरं अनन्तजन्मान्तरेषु जननीनाम् ।
अन्यान्यासाम् महायशः सागरसलिलात्तु अधिकतरम् ॥ अर्थ-हे यशस्वी मुनिवर आपने अनन्त जन्मों में न्यारी म्यारी मताआ के स्तनोका दुग्ध इतना पीया जो यदि एकत्र किया जाय तो समुद्र के पानी से बहुत अधिक होजावे ।
तुह मरणे दुक्खेण अण्णण्णाणं अणेय जणणीणं । रुण्णाण णयणणारं सायर सलिलादु अहियतरं ॥१९॥
तव मरणे दुःखेन अन्यान्यासाम् अनेक जननीनाम् ।
रुदितानां नयन नीर सागर सलिलातु ( त् )अधिकतरम् ॥
अर्थ-तेरे मरने के दुःख में अनेक जन्म की न्यारी न्यारी माताओं के रोने से जो आंखों का पानी गया यदि वह इकट्ठा किया जावै तो समुद्र के जल से अधिक होजावै
भवसायरे अणंते छिण्णुज्झिय केसणहरणालथि । पुंजइ जइ कोवि जिय हवदि य गिरिसमाधियारासी॥२०॥
भवसागरे अनन्त छिन्नानि उज्झितानि केशनखनालास्थीनि । पुञ्जयति यदि कश्चित् एव भवति च मिरिसमधिका राशिः ।।
अर्थ-इस अनन्त संसार समुद्र में तुमारे शरीरों के केश मख माल अस्थि (हडी ) इतने कटे तथा छूटे जो प्रत्येक का पुञ्ज (ढेर ) किया जाय तो सुमेर पर्बत से भी अधिक ऊंचे ढेर हो जावें ।
जल थल सिह पवणंवर गिरिसरिदरि तरुवणाइ सव्वत्तो। बसिओसि.चिरं कालं तिहुवण मज्झे अणप्पवसो ॥२२॥
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( ६१ )
अल स्थलशिखिपवनांवर गिरिसरिद्दरी तह बनेषु सर्वत्र । उषितोसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः ||
अर्थ - तुम ने शुद्धात्म भावना बिना इस तीन लोक में सर्वत्र अर्थात् जल में थल में अग्नि में पवन में आकाश में तथा पर्वतां पर मदियों में पर्वतों की गुफाओं में वृक्षों में और बनों में बहुत काल निवास किया है।
गसियाइ पुग्गलाई भवणोदर वित्तियाइ सव्वाई । पत्तोसि ण तत्ति पुण रुत्तं ताई भुजंतो ॥२२॥ प्रसिता पुद्गला भुवनोदर वर्तिनः सर्वे ।
प्राप्तोसि न तृप्तिः पुनरुक्तं तान् भुज्जन् ॥
अर्थ -- तीन लोक में जितने पुल हैं वह सर्व ही तुमने ग्रहण
किये भक्षण किये, तथा तिनको भी पुन पुनः भोगे परन्तु तृप्त न हुवे । तिहूण सलिलं सयलं पीयं तिराहाए पीडिएण तुमे । तोविण तिणहा छेओ, जायउ चिंतह भवमहणं ||२३|| त्रिभुवनसलिलं सकल पीतं तृष्णाया पीडितेन त्वया । तदपि न तृष्णा छेदः जातः चिन्तय भवमधनम् ॥ अर्थ- इस संसार में तृष्णा ( प्यास ) कर पीडित हुवे तुमने तीन जगत का समस्त जल पीया तौ भी तृष्णा का नाश न हुवा अब तुम संसार का मधन करने वाले सम्यग्दर्शनादिक का विचार करो ।
गहि उझियाई मुणिवर कलवराई तुमे अणेयाई ।
ताणं णच्छिपमाणं अणन्त भव सायरे धीर ॥ २४ ॥ गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि । तेषां नास्ति प्रमाणम् अनन्त मवसागरे धीर ? ॥
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अर्थ - भो धीर ? भो मुनिवर ! इस अनन्त संसार सागर में अनन्ते शरीरे महे और छोड़े तिनकी कुछ गणती नहीं ।
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विसवेयण रक्खय भयसच्छगहण सङ्कलेसाणं ।
आहारुस्सासाणं गिरोहणा खिज्जए आज ॥ २५ ॥ हिम जलण सलिल गुरुयर पव्वय तरुरूहाणपडणभङ्गेहिं । रसविज्जजोयधारण अणय पसझेहि विवहेहिं ॥ २६ ॥. इय तिरिय मणुय जम्मे सुइरं उवउज्जिऊण वहुवारं । अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पतोसि तं मित्त ॥ २७ ॥ विषवेदना रक्तक्षय भयशस्त्रग्रहण संक्लेशानाम् ।
आहारोच्छासानां निरोधनात् क्षीयते आयुः ॥ हिम ज्वलन सलिल गुरुतरपर्वत तरु रोहणपतनः मङ्गैः। रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः विविधैः ॥ इति तिर्यङ् मनुष्य जन्मनि सुचिरम् उपपद्यवहुवारम् ।
अपमृत्युमहादुःखं तीव्र प्राप्नोसि त्वं मित्र ? ॥ अर्थ--हे मित्र तिर्यञ्च और मनुष्य गति में उत्पन्न होकर अनादिकाल से वहुत बार अकालमृत्यु से अति तीव्र महादुःख पाये. हैं। आयु की स्थिति पूर्ण विना हुवे उसका किसी वाह्य निमित्त से नष्ट हो जाना अकालमृत्यु है, यह मनुष्य, और तिर्यश्चों के ही होती है अकालमृत्यु के निमित्त कारण ये हैं। विष भक्षण, तीव्र वेदना, रक्तक्षय (रुधिर का नाश ), भय, शस्त्रघात, संक्लेशपरिणाम, आहार का न मिलना, श्वास उच्छास का रुकना तथा वर्फ शीत अग्नि जल तथा अंचे पर्वत या वृक्ष पर चढ़ते हुवे गिर पड़ना, शरीर का भङ्ग होना रस (पारा आदि धातु उपधातु ) के भस्म करने की विद्या का संयोग अर्थात कुश्ता बनाते हुवे किसी प्रकार की भूल हो जाने से और अन्याय अर्थात परधन परखी हरण आदिक के कारण राजा से फांसी पाना इत्यादि अनेक कारण हैं।
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छत्तीसं सिण्णिसया छावहि सहस्सवार मरणानि । अन्तो मुहत्तमझे पत्तोसि निगोद* वासम्मि ॥ २८ ॥
षट् त्रिंशत्रिशत षट् यष्टि सहस्रवारान् मरणानि । __ अन्त मुहूर्त मध्ये प्राप्तोसि निकोत वासे ॥
अर्थ-तुमने निकोत अवस्था में अर्थात अलब्ध पर्याप्तक अवस्था में अन्तर्मुहूर्त में ६६३३६ (छासठि हजार तीन से छत्तीस) थार मरण किया है।
वियलिन्दिए असीदि सही चालीसमेव जाणेह । पश्चेन्दिय चउवीसं खुद्दभवन्तोमुहूत्तस्स ॥ २९ ॥ विकलेन्द्रियाणाम् अशीतिः यष्टिः चत्वारिंशदेव जानीत ।
पञ्चेन्द्रियाणां चतुर्विंशतिः क्षुद्रभवा अन्तर्मुहूर्तस्य । अर्थ--अन्तर्मुहूर्त में विकलत्रय के ( द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय क्रम से ८० अस्सी ६० साठि और ४० चालीश क्षुद्रभव हैं तथा पञ्चन्द्रिय के २४ चौवीस होते हैं ऐसा जानो । अर्थात अन्तर्मुहूर्त में दो इन्द्री जीव अधिक से अधिक ८० और तेइन्द्रीय ६० चौइन्द्रिय ४० और पञ्चेन्द्रिय जीव २४ जन्म धारण कर सक्ता है
* प्राकृत में जो निगोद शब्द है उसकी संस्कृत प्रकृति निकोत है निगोद नहीं है । निगोद तो एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय का भेद प्रभेद है। और निकोत त्रसों की भी पर्याय का वाचक है । तदुक्तं श्री अमृतचन्द्रसूरिभिः पुरुषार्थसिद्ध्युपाये आमास्वपि पक्कास्वपि विपच्यमानासु मांस पेशीषु सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निकोता. नाम् ६ ७ । इहां पर भी “निकोत" शब्द का अर्थ अलब्ध पर्याप्तक है । क्षुद्र भवों की संख्या इस प्रकार है। सूक्ष्मपृथिवीकायिक १ वादरपृथिवीकायिक २ सूक्ष्म जलकायिक ३ वादरजलकायिक ४ सूक्ष्मतेजस्कायिक ५ वादरतेजकायिक ६ सूक्ष्म वायुकायिक ७ वादरवायुकाविक ८ सूक्ष्मसाधारणनिगोद ९ वादरसाधरणनिगोद १० सप्रतिष्ठित वनस्पति ११ इन प्रत्यक के ६०१२ मरण हैं सर्वमिलकर एकेन्द्रिय के (६०१० ४ १ = २६१३२ हुवे । द्विन्द्रीय के ८० त्रीन्दिय के ६० चतुरिन्द्रिय के ४० और पञ्चन्द्रिय के - ४ । सर्व मिलकर (६६१३२+ ८०+६+ + २४-) ६६३३६ छासठि हजार तीन से छत्तीस हुवे ।
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( ६४ ) रयणतेमु अलदे एवं भमिओसि दीहसंसारे । इयजिणवरेहि भणिये तं रयणतयं समायरह ॥ ३० ॥
रत्नत्रये स्वलब्धे एवं भ्रमितोसि दीर्घसंसारे ।
इति जिनवरैमाणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ॥ अर्थ--तुमने रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र) के न मिलने पर इस अनन्त संसार में उपर्युक्त प्रकार भूमण किया है ऐसा श्री अर्हन्तदेव ने कहा है इस से रत्नत्रय को धारण करो।
अप्पा अप्प म्मिर ओ सम्माइट्ठी हवेफुड जीवा । जाणइ तं सराणाणं चरदिह चारित्त मग्गुत्ति ॥ ३१ ॥
आत्मा आत्मनिरतः सम्यग्दृष्टि भवति स्फुटं जीवः । जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं माग इति ॥
अर्थ--रत्नत्रय का वर्णन दो प्रकार है, निश्चय और व्यवहार निश्चय यहां निश्चयनयकर कहते है। जो आत्मा आत्मा मलीन होअर्थात यर्थाथ स्वरूप का अनुभव करे तद्रूप होकर श्रद्धान कर सो सम्यगदृष्टि है। आत्मा को जाने सो सम्यगशान है। आत्मा में लीन होकर
ओ आचरण करे रागद्वेष से निवृत्त होवे सा सम्यकचारित्र है। इस निश्चय रत्नत्रय का साधन व्यवहार रत्नत्रय है। सच देव गुरु
और शास्त्र का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है, जीवादिक सप्त तत्वों का जानना व्यवहार सम्यग्ज्ञान है तथा पाप क्रियाओं से विरक्त होना सम्यक्चारित्र है।
अण्णे कुमरण मरणं अणेय जम्म तराइ मरिओसि । भावय सुपरण मरणं जरमरण विणासणं जीव ॥ ३२ ॥
अन्यस्मिन् कुमरण मरणम् अनेक जन्मान्तरेषु मृतोसि । भावय सुमरण मरणं जन्ममरण निशानं जीव १ ॥
अर्थ- हे जीव? तुम अनेक जन्मों में कुमरण मरण से मरे हो अब तुम जन्म मरण के नाश करने वाले सुमरण मरण को भावा।
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सो त्यि दव्यसवणे परमाणु पमाणे मेतो मिलो। जस्थ ण जाओण मओ तियलोय पमाणि ओ सव्वो ॥३॥
स नास्ति द्रव्य श्रमण परमाणु प्रमाणमात्रो निलयः । ___यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणः सर्वः ।।
अर्थ-इस त्रिलोक प्रमाण समस्त लोकाकाश में ऐसा कोई परमाणु प्रमाण (प्रदेश ) मात्र भी स्थान नहीं है जहां पर द्रव्यलिङ्ग धारण कर जन्म और मरण न किया हो।
कालपणतं जीवो जम्म जरामरण पीडिओ दुक्खं । निणलिंगेण विपत्तो परंपरा भावरहिएण ॥३४॥
कालमनन्त जीयः जन्म जरामरण पीडितः दुःखम् । जिनलिङ्गेन अपि प्राप्तः परम्परा भावरहितेन ॥ अर्थ-श्री वर्धमान सर्वच देव से लेकर केवली श्रुत केवली और दिगम्बराचार्य की परम्परा द्वारा उपदंश किया हुवा जो यथार्थ जिनधर्म उससे रहित होकर बाह्य दिगम्बर लिङ्ग धारण करके मी अनन्त काल अनेक दुःखों को पाया और जन्म जरा मरण पीडित हुवा । अर्थात् संसार में ही रहा और मुक्ति की प्राप्ति न हुवी।
पडिदेससमय पुग्गल आउग परिणाम णाम कालदं । गहि उज्झियाई वहुसो अणंत भव सायरे जीचो ॥३५॥
प्रनिदेश समय पुद्गल-आयुः परिणाम नाम कालस्थम् ।
ग्रहीतोज्झितानि वहुशः अनन्त भव सागरे जीवः ॥
अर्थ-इस जीव ने इस अनन्त संसार समुद्र में इतने पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण किया और छोडा जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं और एक एक प्रदेशों में शरीर को ग्रहण किया और छोडा, तथा प्रत्येक समय में प्रति परमाणु तथा प्रत्येक आयु और सर्व परिणाम (क्रोधमान माया लोभ मोह रागद्वेषादिको के जितने अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं उतने ) समस्त ही नाम ( नार्म कर्म जितना होता है उतना) और उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में स्थित पुदल परमाणुमहे और छोड़े।
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( ६६ ) तेयाला तिण्णसया रज्जुर्ण लोय खेत्त परिमाणं । मुत्तूह पएसा जच्छ ण टुरुटुल्लिो जीवो ॥३६॥ त्रिचत्वारिंशत्रिशत रज्जूनां लोक क्षेत्र प्रमाणं ।
मृत्त्वाऽप्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ।।
अर्थ-तीन से ततालीमगजु धनाकार लोकाकाश का प्रमाण है जिस के मध्यवर्ती आठ प्रदेशों को छोड़ कर अन्य सर्व प्रदेशों में यह जीव भ्रमा है अर्थात् जन्म और मरण किये हैं।
एकेकंगुलवाही छण्णवदि हुँति जाण मणुयाणं । अवसेसेय सगरे रोया भणि केत्तिया भणिया ॥३७॥ एकैकाङ्गलौ व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानीहि मनुष्यानाम् ।
अवशेषे च शरीरे रोगा भग कियन्तो मणिताः ॥ अर्थ-मनुष्य के शरीर विषे एक अजुगुल स्थान में छयानवे ९६ रोग होते हैं तो कहिये समस्त शरीर में कितने रोग हैं ? जब एक अङ्गुल में ९६ रांग है तो समस्त मनुष्य शरीर में कितन ऐमा त्रैरासिक कर और फिर समस्त शरीर की लम्बाई चौड़ाई उंचाई नाप कर पोल ( शून्यस्थानी ) को घटाय घनफल निकाल उसका ९६ से गुणा कर जा संख्या आवे तितन राग इस मनुष्य शरीर मे है।
ते राया वियसयला सहिया ते परवसेण पुचभवे । एवं सहसि महाजस किंवा वहुएहिं लविएहिं ॥३८॥
ते रोगा अपिच सकला सोदा त्वया परवशेन पूर्वभवे ।
एवं सहसे महाशयः किंवा वहुभिः लपितैः ॥ अर्थ- पूर्वोक्त सर्वही रांग पूर्व भवों में कर्मों के आधीन होकर तुमने सहे अव अनुभव (विचार)कग बहुत कहने कर क्या ?
पित्तंत मृत्त फेफस कालिजय रुहिर खरिस किमिजाले । उयरे वसिओसि चिरं णवदश मासहिं पत्तहिं ॥३९॥ पित्तान्त्रमूत्र फेफस कालिज रुधिर खरिस ऋमिजाले । उदरे वसितोसि चिरं नवदश मासै पूर्णैः ।।
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( ६७ )
अर्थ - तुमने ऐसे उदर में पूरे नौ २ दश २ महीने अनन्तवार निवास किया। जिस में पित्त आंतड़ी मूत्र फेफस (जो रुधिर बिना मेदा के फूल जाता है ) कालिज ( रुधिर विकृति) खरिस (श्लेष्मा ) और क्रमि ( लट सदृशजन्तु ) समूह विद्यमान हैं ।
दिय संगहिय मसणं आहारियमाय भुत्तमण्णंते । छदिखरसाण मझे जठरे वसिओसि जणर्णाए ॥४०॥ द्विज शृङ्गस्थित मशन माहृत्य मातृभुक्तमन्नन्ते । छर्दिखरसयोर्मध्ये जठरे उपितासि जनन्याः ॥
अर्थ - तुमने माता के गर्भ में छर्दि ( माता कर खाया हुआ झूठा अन्न) और खरिस (अपक्क और मल रुधिर मे मिली हुई वस्तु) के मध्य निवास किया जहां पर माता कर खाये हुवे अन्न को जो कि उसके दांतों के अग्र भागों से चबाया गया है खाया ।
हुवा
भावार्थ -- जो अन्न माता ने अपने दांतों मे चबायकर निगला है उस उच्छिष्ट को खाकर गर्भाशय में मल और रुधिर में लिपटे हुवे संकुचित होकर वसे हो ।
सिसु कालय अयाणे अमुई मज्झम्मिलोलिओसि तुमं ।
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अमु असिया बहुशो मुणिवर वालत्तपत्तेण || ४१ ।। शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लुठितोसि त्वम् ।
अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर वालत्व प्राप्तेन ||
अर्थ - भो मुनिवर अज्ञानमयी वाल्य अवस्था में तुम अपवित्र स्थानों में लोटे | और बालपने में बहुत बार अनेक भवों में अशुचि विष्टा आदि खा चुके हो।
संसद्वि सुक्क सोणिय पित्तं तसवत्त कुणिम दुग्गन्धं । खरिस वस पूइ खिब्भि स भरियं चिन्तेहि देह उर्ड ||४२ ॥ मांसास्थिशुक्रश्रोणित पित्तान् श्रवत् कुणिम दुर्गन्धम् । खारस वशापूति किल्विष भरितं चिन्तय देहुकुटम् || अर्थ--भो यतीश्वर ? इस देह कुटी के स्वरूप का विचारों,
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( १८ ) इस में मांस,हडि, शुक्र, रुधिर, पित्त, आंते जिनमें झरती हुवी अत्यन्त दुर्गन्धि है तथा अपक्कमल मेदा पूति (पीव) और अपवित्र (सड़ा हुवा) मल भरा हुवा है।
भाव विमुत्तो मुत्तो गय मुत्तो वन्धवाइमित्तेण । इय माविजण उन्म मु गन्धं अब्भं तरं धीर ।। ४३ ॥ __ भावविमुक्तो मुक्तः नच मुक्तः बान्धवादिमात्रेण ।
इति भावयित्वा उज्झय गन्धमभ्यन्तरं धीर ? ॥ अर्थ-जो भाव ( अन्तरङ्गपरिग्रह ) से छूट गया है वही मुक्त है। कुटम्बी जनों से छूट जाने मात्र से मुक्त नहीं कहते हैं ऐसा विचार कर हे धीर अन्तरङ्ग वासना को (ममत्व को ) त्याग ।
देहादि चत्तसको माणकसायेण कलुसिओ धीरो। अत्तावणेण जादो वाहुवली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥ देहादि त्यक्त सङ्गः मानकषायेन कलुषिता धीरः ।
आतापनेन जातः वाहुवलिः कियन्तं कालम् ।। अर्थ-देह आदि समस्त परिग्रहों से त्याग दिया है ममत्व परिणाम जिसने ऐसा धीर वीर वाहुवली संज्वलन मान कषायकर कलुषित होता हुवा आतापन योग से कितनेही काल व्यतीत करता भया परन्तु सिद्धि को न प्राप्त भया । जव कषाय की कलुषता दूर हुई तब सिद्धि प्राप्त हुई।
भावर्थ-श्री ऋषभदेव स्वामी के पुत्र वाहुवलि ने अपने भाई भरत चक्री के साथ युद्ध किये । नेत्रयुद्ध जलयुद्ध और मल्लयुद्ध में बाहुबलि से पराजित होकर भरत ने भाई के मारने को सुदर्शनचक्र चलाया परन्तु वाहुवली चरमशरीरी एकगोत्री थे इससे चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर भरतेश्वर के हस्त में आगया । वाहुवलि ने उसी समय संसार देह और भोगो का स्वरूप जानकर द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तवन किया और यह पश्चाताप भी कि मेरे निमित्त से बड़े भाई का तिरस्कार हुवा । पश्चात जिनदीक्षा लेकर एक वर्ष का कायोत्सर्गधारणकर पकान्त बन में ध्यानस्थ हुवे जिनके शरीर पर बेलें लिपट गई सर्पो ने घर बना लिया। परन्तु में भरतेश्वर की भूमि
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( ६९ )
पर तिष्टा हूं ऐसा संज्वलन मान का अंश बना रहा । जब भरतेश्वर ने एक वर्ष पीछे उनकी स्तुति की तब मान दूर होते ही जगत् प्रकाशक केवल ज्ञान प्रक हुवा और मुक्ति पधारे। इससे आचार्य कहैं हैं कि ऐसे २ धीर वीर भी विना भाव शुद्धि के मुक्त नहीं हुवे तो अन्य को क्या कथा इससे भो मुनिवर भाव शुद्धि करो । महपिंगो नाम मुणी देहाहारादि चत्तवावारो । सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्रोण भवियणुय ॥ ४५ ॥ मधुपिङ्गो नाम मुनिः देहाहारत्यक्तव्यापारः ।
श्रमणत्वं न प्राप्तः निदान मात्रेण भव्यनुत ? ||
अर्थ- - भव्य पुरुषों से नमस्कार किये गये हे मुनि शरीर और भोजन का त्याग किया है जिसने ऐसा मधुपिङ्गलनामा मुनि निदान मात्र के निमित्त से श्रमणपने को ( भावमुनिपने को ) न प्राप्त हुवा | मधुपिङ्गल की कथा पद्मपुराण हरि वंश पुराण में वर्णित है ।
अण्णं च वसिणि पत्तो दुक्खं नियाण दोसेण । सो णच्छिवास ठाणो जच्छ ण टुरुटुल्लिओजीवो ॥ ४६ ॥ अन्मच्च वशिष्टमुनिः प्राप्तः दुःखं निदान दोषेण । तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रान्तो जीवः ॥
अर्थ - और भी एक वशिष्टनामा मुनि ने निदान के दोषकर दुःखों को पाया है । है भव्योत्तम ? ऐसा कोई भी निवास स्थान नहीं है जहां यह जीव भ्रमा न हो । वशिष्ट तापसी ने चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधित होकर जिन दीक्षा ली और अनेक दुद्धर तप किये परन्तु निदान करने से उग्रसेन का पुत्र कंस हुवा और कृष्णनारायण के हाथ से मृत्यु को पाकर नरक गया ।
सो णच्छितं परसो चउरासीलक्खजोणि वासम्मि | भाव विरओवि सवणो जच्छ ण टुरुटिल्लिओ जीवो ||४७ || स नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीति लक्षयोनि वासे । भावविरतोऽपि श्रवण यत्र न भ्रान्तः जीवः ॥
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( ७० ) अर्थ संसार में चोरासी लाख ८४००००० योनियों के स्थान में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहां पर भाव लिङ्ग रहित मुनि होकर न भ्रमा हाय ? अर्थात सर्व स्थानों में समस्त योनि धारण की हैं।
भावेण होइ लिंगी णहुलिङ्गी होई देव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज्जावं किं कीरइ दवलिङ्गेण ॥ ४८ ॥
भावेन भवति लिङ्गी न स्फुटं भवति द्रव्यमात्रेण । तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिङ्गेन ॥
अर्थ-भाव लिङ्ग से ही जिन लिङ्गी मुनि होता है, द्रव्यलिङ्ग से ही लिङ्गी नहीं होता इससे भावलिङ्ग को धारण करो द्रव्यलिङ्ग से क्या हो सक्ता है।
दण्डय जयरं सयलं दहिओ अभंतरेण दोसेण । जिण लिङ्गेण विवाहु पडिओ सो उरयं णग्यं ॥ ४९॥
दण्डक नगरं सकलं दग्धा अभ्यन्तरेण दोपेण । जिनलिङ्गनापि वाहुः पतितः स रौरवं नरकम् ॥
अर्थ--वाह्यजिनलिडधारी वाहनामा मुनि ने अभ्यन्तर दोष से ( कषायों से ) समस्त दण्डक राज्य को और उसक नगर को भस्म किया और आप भी सप्तम नरक के रौरव नरक म नारकी हुवा।
दक्षिण भरतक्षेत्र में कुम्भकारक नगर का स्वामी दण्डक राजा था जिसकी सुब्रता नामा रानी थी और वालक नामा मन्त्री था किसी समय अभिनन्दन आदि ५०० मुनि आय तिनकी बन्दना को समस्त नगर निवासी गए और राजा भी गया । बिद्याभिमानी पालक मन्त्री ने खण्डकमुनि के साथ बाद आरम्भ किया । परास्त होकर मन्त्री ने वहरुपिया भाडा से सुव्रता रानी और दिगम्बरमुनि का स्वांग बनवाकर उनको रमते हुवं दिखाये राजा ने क्रोधित होकर समस्त मुनि घाणी में पले । वे मुनि उस उपसग को सहकर उत्तम गति को प्राप्त भये । पश्चात् एक वाहुनामकमुनि आहार के वास्ते नगर जाते थे तिनको लांका ने रोका और राजा की दुष्टता वर्णन
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( ७१ )
की, इस बात से क्रोधित होकर वाहमुनि ने अशुभतैजस से समस्त नगर को, राजा को मन्त्री को और अपने को भी भस्म किया। राजा मन्त्री और आप सप्तम नरक के गौरव नामा बिलमें नारकी हुवा द्रव्यलिङ्ग से वाहुनामामुनि भी कुर्गात कोही प्राप्त भये । इससे भो मुन भाव लिङ्ग को धारण करो ।
अवरोविदव्व सवणो दंसण वर णाण चरणपभट्टो | दीवाणुत्ति णामो अनंत संसारिओ जाओ ||२०|| अपरोपि द्रव्यश्रमण दर्शन वरज्ञान चरण प्रभृष्टः । दीपायन इति नामा अनन्तसंसारिको जातः ॥
अर्थ - वाहुमुनि के समान और भी द्रव्य लिङ्गी मुनि हुवे हैं तिन में एक दीपायन नामा द्रव्यलिङ्गी मुनि दर्शन ज्ञान चारित्र से भ्रष्ट होता हुवा अनन्त संमारी ही रहा । केवल ज्ञानी श्रनिमिनाथ स्वामी मे वलभद्र ने प्रश्न किया कि स्वामिन् ? इस समुद्रवर्तिनी द्वारिका की अवस्थिति कब तक है । भगवान् ने कहा कि रोहणी का भाई तुमारा मातुल द्वीपायन कुमार द्वादशमं वर्ष में मदिरा पीने वालों से काधित होकर इस नगर को भम्म करेगा, ऐसा सुनकर द्वीपायन जिनदीक्षा लेकर पूर्वदशों में चलागया, और वहां तप कर द्वादश वर्ष पूर्ण करना प्रारम्भ किया, वलभद्र ने द्वारिका जाय मद्य निषेध की घोषणा दिवाई और मदिरा तथा मंदिरा के पात्र मदिरा बनाने की सामिग्री सर्व ही नगर बाहर फिंकवादी । वह द्वीपायन १२ वर्ष व्यतीत हुवे जान और जिनेन्द्र वाक्य अन्यथा होगया ऐसा निश्चय कर द्वारिका आय नगर वाहिर पर्वत के निकट आतापन यांगधर तिष्टा, इसी समय शम्भु कुमार आदि अनेक राजकुमार बन क्रीड़ा करते थे तृषातुर होय उन जलाशयों का जल पीया जिन में फेंकी हुई वह मदिरा पुरानी होकर अधिक नशीली होगई थी उसके निमित्त मे सर्वही उन्मत होकर इधर उधर भागने लगे, और द्वीपायन को देख कहते भये कि यह द्वारिका को भस्म करने वाला द्वीपायन है इसे मारो निकाला और पत्थर मारने लग जिन से घायल होकर द्वीपायन भूमि पर गिरा और क्रोधित होकर द्वारिका को भस्म किया ।
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( ७२ )
भाव सवणोयधीरो जुवई यणवेदिओवि सुद्धमई । णामेण सिवकुमारो परीतसंसारिओ जादो ||५१
भाव श्रमणश्चधीरो युवतिजन वेष्टितो विशुद्धमतिः । नाम्ना शिवकुमारः परीत संसारिको जातः ।।
अर्थ --- भाव लिङ्गके धारक धीर वीर अनेक युवति जनोकर चलायमान किये हुवे भी शुद्ध ब्रह्मचारी ऐसे शिवकुमार नामा मुनि अल्प संसारी हो गए । अर्थात् भावलिङ्ग से संसार का नाशकर अनन्त सुख भोक्ता हुवे ।
अर्थात् ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्माली नामा महार्धिक देव हुआ और वहां से चयकर जम्बू स्वामी अन्तिम केवली होय मुक्त हुवे । अङ्गइं दसय दुणिय चउदस पुव्वाई सयल सुयणाणं । पठियोय भव्वसेणोणभावसवणतणं पत्तो ॥ ५२ ॥
अङ्गानि दशच द्वेच चतुर्दश पूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । पठितश्च भव्यसेनः न भावश्रवणत्वं प्राप्तः ॥
अर्थ - एक भव्यसेन नामा मुनि ने वारह अङ्ग और चौदह पूर्व समस्त श्रुतज्ञान को पढ़ा परन्तु भावरूप मुनिपने को नहीं प्राप्त हुवा | जैनतत्वों का श्रद्धान बिना अनन्त संसारी ही रहा। तुसमासंघोसंतो मावविमृद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य शिवझर केवलिणाणी फुडं जाओ || ५३ ॥ तुषमासं घोषयन् भावविशुद्धो महानुभावश्च ।
नाम्ना च शिवभूतिः केवल ज्ञानी स्फुटं जातः ।।
अर्थ - एक शिवभूतिनामा मुनि महान प्रभाष के धारक विशुद्ध भाव वाले " तुप मास" इस पद्को घोषते हुवे केवल ज्ञानी हुवे । शिवभूति गुरु से जिनदीक्षा को ग्रहणकर महान तप करता था परन्तु अष्ट प्रवचन मात्रा को ही जानता था अधिक श्रुत नहीं जानता था किन्तु आत्मा को शरीर और कर्म पुंज से भिन्न समझता था, उसको शास्त्र कण्ठ नहीं होता था, एक दिन गुरु ने आत्मतत्व
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का वर्णन करते हुवे यह ष्टान्त कहा कि "तुषात्माषो मिनो यथा" (जैसे छिलका से उग्द भिन्न है तैसे आत्मा भी शरीर से भिन्न है)। शिवभूति इस वाक्य को घोषता हुवा भी भूल गया पर अर्थ को म भूला । एक दिन एकाकी नगर में गप, वह उस वाक्य के विस्मगण स क्लशित थ, एक घर पर कोई सी उरद की दाल धो रही थी उससे किसी ने पूछा कि क्या कार्य कर रही हो । उस स्त्री ने कहा कि"जल में डूब हुये उर्द की दाल को छिलका से अलग कर रही हूं" इस वाक्य को सुनकर और उस क्रिया को देखकर मुनि भन्य स्थानको गए और किसी उत्तम स्थान पर बैठे उसी समय भन्तमुईत में केवल ज्ञानी हो गये।
भावेण होइ णग्गो वाहरलिङ्गेण किं च णग्गेण । कम्पपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण ॥ ५४ ॥
भावन भवति नग्नः वहिलिंगन किं च नग्नेन ।
कर्मप्रकृतीनां निकरः नश्यति भावेन द्रव्येण ।।
अर्थ-जो भाव सहित है सोही नग्न है, वाह्यलिङ्ग स्वरूप नग्नता कुछ भी फल नहीं है, किन्तु कर्मप्रकृति आ का समूह (१४८ कम प्रकृति) भावलिङ्ग माहत द्रव्यलिङ्ग करक नष्ट हाता है । ५४ ।
भावार्थ-बिना द्रव्यलिङ्ग के केवल भावलिङ्गकर भी मिद्धि नहीं होती और भालिङ्ग बिना द्रव्यलिङ्गकर भी नहीं। इससे द्रव्यचरित्र व्रतादिकों को धारणकर भावा का निर्मल करो एमा आभप्राय " भावण दवण" कर श्रीकुन्दुकुन्द स्वामी ने प्रकट दर्शाया है।
णग्गत्तणं अकजं भावरहियं जिणेहि पण्णत्तं । इय णाऊणयणिचं भाविजहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥
नग्नत्वम् अकार्य भावरहितं जिन प्राप्तम् । इति ज्ञात्वा च नित्यं भावयः आत्मानं धार ।
अर्थ-भावहित नग्नपना अकार्यकारी है एस जिनेन्द्र देवों ने कहा है ऐसा जानकर भी धीर पुरुषो ? नित्य आत्मा का भावो ध्यावा।
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( ७४ )
अथ भावलिङ्ग स्वरूप वर्णनम् ।
देहादि संग रहिमो माणकमाएहि सयलपरिचसो । अप्पा अप्पम्मिरओ सभावलिङ्गी हवे साहू ॥ ५६ ।। देहादि संगरहितः मानकषायैः सकलं परित्यक्तः ।
मात्मा आत्मनिरतः स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ।। थर्थ-जो शरीरादिक २४ प्रकार के पारग्रह से रहित हो और मानकपाय से सर्व प्रकार छूटा हुवा हो और जिसका आत्मा मात्मा में लीन हो सो भावलिङ्गी साधु है।
ममति परिवज्जामि णिम्ममतिमुवहिदो । भालंवणं च मे आदा अवसेसा इवोस्सरे ॥ ५७ ॥
ममत्वं परिवर्नामि निर्ममत्वमुपस्थितः ।। __ आलम्बनं न मे आत्मा अवशेषाणि व्युन्मृनाभि ॥
अर्थ-मैं ममत्व (ये मेरे हैं. मैं इनका हूं ) को छोड़ता हूं निर्ममत्व परिणामों में उपस्थित होता हूं। मेरा आश्रय आत्मा ही है आत्म परिणामी से भिन्न रागद्वप माहादिक विभाव भावों को छोड़ता हूं।
आदाखु मज्झणाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदायञ्चक्खाणे आदा मे संवरे जोग ॥ ५८ ॥
आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
मात्मा प्रत्याख्यान आत्मा मे संवरे योगे । अर्थ-भावलिङ्गी मुनि ऐसी भावना करते हैं कि मेरे ज्ञानही में आत्मा है मेरे दर्शन में तथा चारित्र में आत्मा है प्रत्याख्यान में (परपदार्थ परित्याग में ) आत्मा है । संवर में आत्मा है और योग ( ध्यान ) म आत्मा है।
भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, ध्यान भादि जितने आत्मीक अनन्त भाव है तिन स्वरूपही मैं हूं और
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येही हानादिक मेरे स्वरूप हैं। अन्य स्वरूप में नहीं हूं और न अन्य मेरा स्वरूप है।
एगो मे सास्सदोअप्पा णाणं दसण लक्खणो । सेसा मे पाहिराभावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ५९ ।।
एको मे शास्वत आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षणः ।
शेषा मे वाह्या भावा सर्वे संयोग लक्षणाः ।। अर्थ-भावलिङ्गी मुनि विचार करते हैं कि मेरा मात्मा एक है शाम्वता है और शानदर्शन ही उसका लक्षण है । रागद्वेषादिक अन्य समस्तही संयोग लक्षण वाले भाव वाह्य है।
भावेह भाव सुद्धं अप्पासुविसुद्ध णिम्मलं चेव । लाहु चउगइ चइजणं जइ इच्छह सासयं मुक्खं ॥ ६० ॥
भावयत भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धं निर्मलं चैव । लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शास्वतं सुखम् ॥
अर्थ-भो मुनीश्वरो ? जो आप यह यांछा करते हो कि शीघ्र ही चारों गतिओं को छोड़कर अविनाशी सुख को प्राप्त करो तो भाव शुद्ध करके जैसे तैस कर्ममल रहित निर्मल आत्मा को भावो चिन्तवो ध्यावो।
जो जीवो भावतो जीव सहावं मुभाव संजुत्तो। सो जर मरण विणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥६॥
यो जीवो भावयन् जीवस्वभाव समावसंयुक्तः । ___स जन्म मरण विनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वानम् ।।
पर्थ-जो भव्य जीव शुद्ध भाव सहित आत्मा के स्वभावों को भाव है वह ही जन्म मरण का विनाश करै है और अवश्य निर्वाण को पावै है।
जीवो जिणपण्णत्तो णाण महाभोय चेयणा सहिो । सो जीवो गायव्यो कम्मक्खय कारण णिमित्ते ॥२॥
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( ७६ ) जीवो जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभाश्च चेतना सहितः ।
स जीवो ज्ञातव्य कर्मक्षय कारणनिमित्तः ॥
अर्थ-जीव ज्ञान स्वभाव वाला चेतना सहित है ऐमा जिनेन्द्र देव ने कहा है, ऐसाही जीव है एसी भावना कर्मों के क्षय करने का कारण है।
जेसि जीवसहावो णच्छि अभावोय सव्वहा तच्छ । ते होंति भिन्न देहा सिद्भा वचिगोचर मतीदा ।। ६३ ॥
येषां नीवस्वभाव नास्ति अभावश्च सर्वथा तत्र । ते भवन्ति मिन्नदहा मिद्धा व चोगोचरातीताः ॥ अर्थ-जिन भव्य जीवों के आत्मा का अस्तित्व है, सर्वथा मभाव स्वरूप नहीं है, ते पुरुपही शरीर आदि से भिन्न हात हुय मिद्ध होते हैं, वे सिद्धात्मा वचन कं गोचर नही है, अर्थात् उनका गुण पचनों से बर्णन नहीं किया जा सकता।
अरस मरुव मगन्धं अव्वभं चेयणा गुण मसई । जाण मलिङ्गग्गहणं जीव मणिहिट्ट संहाणं ।। ६४ ॥
अरसमरुपमगन्धम्-अव्यक्तं चेतनागुण समृद्धम् । जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीव मनिर्दिष्ट संस्थाना ।।
अर्थ-भो मुने ? तुम आत्मा का स्वरूप एसा जाना कि वह रम रूप और गन्ध से रहित है, अव्यक्त ( इन्द्रियों के अगोचर ) है चेतनागुणकर समृद्ध ( परिणत ) है जिमम कार्ड लिंग (स्त्रीलिंग पुलिंगि नपुंसक लिंग ) नहीं है और न कोई जिसका संस्थान ( आकार ) है।
भावहि पंच पयारं गाणं अण्णाण णासणं सिम्यं । भावण भावय सहिओ दिवसि वमुह भायणो होई ॥६५॥
भावय पश्चप्रकारं ज्ञानम् अज्ञाननासनं शीघूम् ।।
भावना भावित सहित: दिवशिवसुखभाजनं भवति । अर्थ-तुम उस पांच प्रकार के ज्ञान को अर्थात् मति श्रुत
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( ७७ ) अवधि मनः पर्यय और केवल ज्ञान को शीघ्रही भावो जो कि अज्ञान के नाश करने वाले हैं। जो कोई भावना कर भावित किये हुवे भावों (परिणामां) कर सहित है साई स्वर्ग मोक्ष के सुख का पात्र बनता है।
पढिएणवि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण । भावो कारण भूदो सायार णयार भूदाणं ।। ६६ ।। पठितेनापि किं क्रियते किंवा श्रुतेन भावरहितेन ।
भावः कारणभूतः सागारा नगार भूतानाम् ।। अर्थ-भाव हित पढ़न वा सुनने से क्या होता है ? सागार भावक धर्म और अनगार ( मुनि ) धर्म का कारण भावही है।
दम्बेण सयल जग्गा णारयतिरियाय संघाय । परिणामेण अशुद्धा ण भाव मवणत्तणं पत्ता ॥ ६७ ॥
द्रव्येण सकला नग्ना नारकातियञ्चश्व सकलसंघाश्च । परिणामेण अशद्धा न भाव श्रमणत्वं प्राप्ताः ।।
अर्थ ~ द्रव्य [ वाह्य ] कर ता समस्त ही प्राणी नग्न [ वस्त्र रहित ] हैं, नारकीतिर्यंच तथा अन्य नर नारी [वालक वगैराः ] वस्त्रर्गहत ही हैं,परन्तु वमपरिणामी म अशुद्ध हैं अर्थात् भावलिंगी मुनि नही हो गय है अर्थात् विना भाव के वस्त्र रहित होना कार्यकारी नहीं है।
णग्गो पावर दुक्खं णगो संसारसायरे भमई । णग्गो ण लहइ वोहिं जिण भावण वजिओ मुरं ॥६८॥ नग्नः प्राप्नोति दःख नग्नः संमार सागरे भ्रमति ।
नग्नो न लभते बोधि जिन भावना वर्जितः ॥ अर्थ-जिन भावना रहित नग्न प्राणी नाना प्रकार के चतु. गति सम्बन्धी दुखों को पाता है। जिन भावना रहित नग्न प्राणी संमार सागर में भ्रमता है और भावना रहित नग्न प्राणी [वाधिरत्नत्रयलब्धि ] को नहीं पाता है।
अयसाण भायणेणय किन्ते णग्गेण पाप मकिणेण । पैमुण्णहासमच्छर माया बहुलेण सवणेण ।। ६९ ।।
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अयशसा भाजनेन च किते नग्नेन पापमलिनेन । पैशून्य हास्य मत्सर माया वहूलेन श्रमणेन ॥
अर्थ-ऐसे नग्नपने वा मुनिपने से क्या होता है जो कि अपयश [अकीर्ति] का पात्र है और पैशुन्य दूसरों के दोषों का कहना] हास्य, मत्सर [ अदेषका भाव ] मायाचार आदि जिसमें बहुत ज्यादा है और जो पाप कर मलिन है।
भावार्थ-मायाचारी मुनि होकर क्या सिद्ध कर सक्ता है उससे उलटी अपकीर्ति होती है और उससे व्यवहार धर्म की भी हंसी होती है इससे भावलिंगी हानाही योग्य है।
पयडय जिणवरलिङ्गं अभंतर भावदोसपरिसुद्धो। भावमलेणय जीवो वाहिर संगम्मि मइलियइ ॥ ७० ॥
प्रकटय जिनवरलिङ्गम् अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः। ___ मावमलेन च जीवा वाह्यसङ्गे मलिनः ।।
अर्थ--अन्तरंग भावों में उत्पन्न होने वाले दोषों से रहित जिनवर लिंग को धारणकर । यह जीव भाव मल [अन्तरंग कषाय मादिक ] के निमत्त स वाह्य परिग्रह म मैला हो जाता है।
धम्मम्मि निप्पवासो दोसावासोय इच्छुफुल्लसमो। णिप्फलीणग्गुणयारो णड सवणो णग्गरवेण ॥ ७१ ।।
धर्मे निप्रवासो दोषावासश्च इक्षपुष्पसमः । निष्फलनिगुणकारो न तु श्रमणो नग्नरूपेण ॥
अर्थ-रत्नत्रयरूप, आत्मस्वरूप, उत्तम क्षमादिरूप अथवा वस्तु स्वरूप धर्म म जिसका चित्त लगा हुवा नहीं है बल्फि दोषा का ठिकाना बना हुवा है वह गन्ने के फूलक समान निष्फल और निर्गुण होता हुवा नग्न वेष धारण कर नटवा ( बहुरुपिया ) बना हुवा है।
जेण्य संगजुत्ता जिण भावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं वोहिं जिण सासणे विमळे ॥७२॥
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(७९) येरागसंगयुक्ता निनमावन रहितद्रव्यनिग्रन्थाः । न लभन्ते ते समाधि बोधिं जिनशासने बिमले ॥
अर्थ--जो रागादिक अन्तरङ्ग परिग्रह कर सहित है और जिन भावना रहित द्रव्य लिङ्ग को धार कर निर्घन्ध बनते हैं वे इस निर्मल ( निर्दोष ) जिन शासन में समाधि ( उत्तम ध्यान) और बोधि ( रत्नत्रय ) को नहीं पाते हैं।
भावेण होइ णग्गे पिच्छत्ताइंय दोस चइऊण । पच्छादव्वेण मुणि पयडदिलिंगं जिणाणाए ।।७।।
भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादींश्चदोषान् त्यत्तवा । पश्चाद् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिङ्ग निनाज्ञया ।
अर्थ-मुनि प्रथम मिथ्यात्वादि दोषा को त्याग कर भाव ( अन्तरंग ) से नग्न होवे, पीछे जिन आशा के अनुसार नम स्वरूप लिंग को प्रकट करै।
भावार्थ--पहले अंतरंग परिग्रह को त्याग कर अंतरंग को नग्न करै पीछे शरीर को नंगा करै--
भावोचि दिव्व सिव सुख भायणो भावन्जिओसमणो। कम्ममल मालिण चिंत्तो तिरियालय भायणो पावो ||७४॥
भावापि दिव्यशिव सुख भाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्म मलमलिन चित्तः तिर्यगालय भाजनं पापः ।।
अर्थ-भाव लिंग ही दिव्य ( स्वर्ग ) और शिव सुख का पात्र होता है । और जो भाव रहित मुनि है उसका चित कर्ममल करमलिन है वह पापाश्रव करता हुवा तियञ्च गति का पात्र होता है ।
खयरामरमणुयाणं अंजालमालाहिसंथुया विउला । चकहर रायलच्छी लब्भइ वोहि सभावेण ॥७॥
खचरामरमनुजानाम् अजुलिमालाभिः संस्तुताविपुला । चक्रधरराज लक्ष्मीः लभ्यते बोधि स्व भावेन ॥ अर्थ-आत्मीक भावों के निमित्त से यह जीव चक्रवर्ती की
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( ८० ) ऐसी उत्तम राजलक्ष्मी को पाता है जो विद्याधर देव और मनुष्यों के समूह से संस्तुत की जाती है पूजी जाती है चक्रवर्ती की लक्ष्मी ही नहीं किंतु बांधि ( स्नत्रय ) का भी पावे है।
भावंत्तिविहिपयारं सुहासुहं शुद्धमेव णायव्यं । अमुहं च अहरुदं सुहधम्मं जिणवरिंदेहिं ॥७६॥ भावं त्रिविधिप्रकारं शुभाशुभं शुद्धमेव ज्ञातव्यम् ।
अशुभं च तरौद्रं शुभं धर्म जिन वरेन्द्रः ॥ अर्थ-जिनेन्द्रदेव ने भाव तीन प्रकार का कहा है शुभ, अशुभ और शुद्ध, तिन में आर्तरौद्र तो अशुभ और धर्म भाव शुभ जानना
सुद्धं मुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तच्चणायव्वं । इदि जिणवरेहि भणियं जं सेयं तं समारुयह ॥७७॥
शुद्धं शुद्ध स्वभावं आत्माआत्मनि तच्च ज्ञातव्यम् ।
इति मिनवरंभणितं यत् श्रयः तत् समारोहय ।। __ अर्थ-जो शुद्ध ( कर्म मल रहित ) है वह शुद्ध स्वभाव है वह आत्मम्वरूप में ही है एस जिनवरदेव का कहा हुवा जानना । भी भव्या ? तुम जिम का उत्तम जाना उसका धारण करो । अर्थात् । आर्तरौद्र रूप अशुभ भावों को छोड़ कर धर्म ध्यान रूपी शुभ भावों का अवलम्बन कर शुद्ध होवा ॥
पयलियमाणकसाओ पयलिय मिच्छत्त मोहसमचित्तो। पावइ तिहुयण सारं बोहिं जिण सासणे जीओ ॥७८॥
प्रगलिनमान कषाय. प्रगलितमिथ्यात्व माहसमचित्तो।
प्रामोति त्रिभुबनसारां बोधिं जिन शासने जीवः ॥ अर्थ-जिसने मान कपाय दूर कर दिया है मान कषाय और समचित्त होकर अर्थात् महल मसान और शत्रु मित्र आदिक को समान गिनत हुवे अत्यन्त नष्ट किया है मिथ्यात्व तथा माह जिस ने वह जीव एमी बांधिको प्राप्त करता है जो त्रिलोक में उत्तम है ऐसा जिन शास्त्रों में कहा है।
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( ८१ ) विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइ भाऊण । तित्थयरणामकम्म बंधइ अइरेण कालेण ॥७९॥
विपयविरक्तः श्रमणः षोडशवर कारणानि भावयित्वा ।
तीर्थकरनाम कर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ॥
अर्थ --मुनि विषयों से विरक्त मोलह कारण भावनाओं को भायकर थाड़ कालमें ही तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध करता है सोलहकारण भावना इस प्रकार हैं।
दर्शनविशुद्धि १ विनय संपन्नता २ शीलवतेश्वनीतीचार ३ अर्भाषणशानोपयोग ४ संवेग ५ शक्तिस्त्याग ६ शक्तितस्तप ७ साधुममाधि ८ वैयावृत्यकरण ९ अर्हद्भक्ति १० आचार्यभक्ति ११ बहुश्रुतभक्ति १२ प्रवचनभक्ति १३ आवश्यकापरिहाणि १४ मार्गप्रभावना १५ प्रवचनवत्सलत्व १६ ।
वारस विहतवयरणं तेरसकिरियाओ भाव तिविहेण । धरहि मण मत्त दुरियं णाणांकुसएण मुणियवरं ।।८०॥
द्वादशविध तपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन ।
धारय मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिवर ॥ अर्थ-भो मुनिवर ? तुम वारह प्रकार के तपश्चरणको और तेरह प्रकार की क्रियाओं को मन वचन और काय कर धारण करो
और मन रूपी पापिष्ट हस्ती को ज्ञानरूपी अंकुश कर बश करो। ___ पांच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गुप्ति यह १३ प्रकार की क्रिया है।
पञ्चविहचेलचायं खिदिसयणं दुविह संजमं भिक्खं । भावं भाविय पुव्वं जिणलिङ्गं णिम्मलं सुद्धं ॥८॥
पञ्चविध चल त्यागः क्षितिशयनं द्विविध संयम भिक्षा । भावं माविन पूर्व निनलिङ्ग निमलं शुद्धम् ।।
अर्थ-जिसमें पांचों प्रकार के अर्थात रेशम, कई, ऊन, छाल चमड़ा, आदिक सब प्रकार के वस्त्रां का त्याग है, पृथिवी पर शयन
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। ८२ ) होता है दोनों प्रकार का संयम होता है और भिक्षा से पर घर भोजन किया जाता है और सब से पहले आत्मीक भावों को भावना रूप किया जाता है ऐसा निर्मल शुद्ध जिनलिङ्ग है।
जहरयणाणं पवरं वजं जहतरुवराण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाव भवषहणं ।।८२॥
यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुवराणां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्म भावय भवमथनम् ।। अर्थ-जैस समस्त रत्नों में अत्युत्तन बज्र । हीरा) है जैम समस्त वृक्षा में उत्तम चन्दन है तैमही समस्त धर्मा में अत्युत्तम जिनधर्म है जो कि संसार का नाश करने वाला है । उसको तुम भावो धारण कगे।
पूयादि मुवयसहियं पुण्णहिजिणेहिं सासाणे भणियं । मोह क्खोह विहीणो परिणामो अपणो धम्मो ॥ ८३ ॥
पूजादिषुत्रत सहितं पुण्यं हि जिनैः शासने मणितम् ।
मोह क्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो धर्मः ॥
अथे-ब्रत (अणुव्रत) सहित पूजा आदिक का परिणाम पुण्य पन्ध का कारण है, ऐसा जिनन्द्र देवन उपामकाध्ययन (श्रावकाचार ) में कहा है, और जो माह अर्थात् अहंकार ममकार वा गगद्वेष तथा क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है वह धर्म है अर्थात माक्ष का साक्षात कारण है।
सद्दहदिय पत्तेदिय रोचेदिय तहपुणोवि फासेदि । पुण्णं भोयणिमित्तं णहुसो कम्मक्खयाणिमित्तं ॥८४॥
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति ।
पुण्यं भोगनिमित्तं न स्फुटं तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।
अर्थ---जो पुण्य को धर्म जान श्रद्धान करता है अर्थात उसको माक्ष का कारण समझ कर उसी में रुचि करता है और तैसेही आचरण करै है तिसका पुण्य भांग का निमित है कर्मक्षय होने का निमित्त नहीं है।
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( ८३ ) अप्पा अप्पम्पिरओ रायादिमुसयलदोस परिचित्तो। संसार तरणहेदु धम्मोत्ति जिणेहिं णिहिटो ॥८॥
आत्मा आत्मनि रतः रागादिषु सकलदोष परित्यक्तः । संसार तरण हेतुः धर्म इति निनैः निद्दिष्टः ॥ अर्थ-~-गग द्वेषादिक समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में ही लीन होना धर्म है और संसार समुद्र से तरणे का हेतु है एमा जिनेंद्र देव ने कहा है।
अहपुण अप्पाणिच्छदि पुण्णाई करोदि णि र वसेसाई । तहविण पावदि सिद्धिं संसारत्थोपुणो भणिदो ॥८६॥ ___ अथ पुन.आत्मा नेच्छति पुण्यानि करोति निर वशेषाणि ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनमीणतः ।। अथे-अथवा जो पुरुष आत्मा को नहीं जाने है और समस्त प्रकार के पुण्या को अर्थात् पुण्य बन्ध के साधना को करता है वह मिद्धि ( मुाक । को नहीं पाता है संसार में ही रहै है एसा गणधर देवा न कहा है।
एएण कारणेणय तं अप्पां सद्दहेहतिविहेण । जणय लहेह मोदखं तं जाणिजह पयत्तेण ॥८७।।
एतन काणेन च तमात्मानं श्रद्धनत्रिविधेन । येन च लमध्वं मोक्षं तं जानीथ प्रयत्नेन ॥
अथ---आत्माही समस्त धर्मों का स्थान है इसी कारण तिस सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यक चारित्रमय आत्मा का मन बचन काय से श्रद्धान करा और उसको प्रयत्नकर जाना जिसस माक्ष पावो।
मच्छोवि सालिसिच्छो अमुद्धभावो गओ महाणरयं । इयणाउं अप्पाणं भावह जिण भावणा णिचं ॥८८॥
मत्स्योपि शालिशिच्छु अशुद्ध मावगतः महानरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनानित्यम् ॥
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( ८४ )
अर्थ-भो भव्य ? तुम देखो कि तन्दुलनामा मछ निरन्तर अशुपरिणामी होता हुआ सप्तम नरको में गया ऐसा जान कर अशुभ परिणाम मत करो, किन्तु निज आत्मा के जानने के लिये जिन भावना को निरन्तर भावो ।
काकन्दी नगरी में शूरसेन राजाथा उसने सकल धार्मिक परिजनों के अनुरोध से श्रावकों के अष्टमूल गुण धारण किये पीछे वेदानुयायी रुद्रदत्त की सङ्गति से मांस भक्षण में रुचि की, परन्तु लोका पवाद से डरता था, एक दिन पितृ प्रिय नामा रसाइदार को मांस पकाने को कहा, और वह पकाने लगा, परन्तु भोजन समय में अनेक कुटम्बी और परिजन साथ जीमते थे इससे राजा को एकबार भी मांस भक्षण का अवसर न मिला, किंतु पितृप्रिय स्वामी के लिये प्रतिदिन मांस भोजन तैय्यार रखता था, एक दिन पितृप्रिय को सर्प के बच्चे ने डसा और वह मर कर स्वयंभूरमण द्वीप में महामत्स्य हुवा, । और मांसाभिलाषी राजा भी मरकर उसी महामत्स्य के कान में शालिसिक्थु मत्स्य हुवा || जब वह महामत्स्य मुख फैला कर सोता था तब बहुत से जलचर जीव उसके मुख में घुसते और निकलते रहते थे, यह देख कर शालिमि कथु यह विचारता था कि "यह महामत्स्य भाग्यहीन है जो मुख में गिरते हुवे भी जलचरों को नहीं खाता है यदि एसा शरीर मेरा होवे तो सर्व समुद्र को खाली कर देऊं । इस विचार से वह शालिसिक्थु समस्त जलचर जीवों की हिंसा के पापों से सप्तम नरक में नारक हुवा इसमे आचार्य कहे हैं कि अशुद्ध भाव सहित वाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही परंतु वाह्य हिंसादिक पाप किये विना केवल अशुद्ध भाव भी उसी समान हैं इससे अशुभ भाव छोड़ शुभ ध्यान करना योग्य है ।
वाहिर सङ्गच्चाओ गिरिसरिदार कंदराइ आवासो । सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ॥ ८९ ॥
वाह्य सङ्गत्यागः गिरिसरिद्दरीकन्दरा दिआवासः । सकलं ज्ञानाध्ययनं निरत्यको भावरहितानाम् ||
अर्थ- शुद्ध भाव रहित पुरुषों का समस्त वाह्य परिग्रहों का त्याग, पर्वत नदी गुफा कन्दराओं में रहना और सर्व प्रकार की विद्याओं का पढ़ना व्यर्थ है मोक्ष का साधन नहीं है ।
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. ( ८५ ) मंजसु इदियसेणं भंजसु मणमक्कणं पयत्तेण । माजण रंजण करणं वाहिर वय वेसमाकुणसु ॥१०॥ __ भङ्ग्धि इन्द्रियसेनां भङ्ग्यि मनोमर्कटें प्रयत्नेन ।
मा जनरञ्जन करणं वाह्यव्रतवेश ? माकाः ।।
अर्थ-~-भो मुन ? तुम स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और कर्ण इन्द्रिय रूपी सना को वश करा और मनरूपी बन्दर को प्रयत्न से ताड़ना करो वश करा, भा वाह्य ही व्रतों को धारण करने वालो अन्य लोकों के मन को प्रसन्न करने वाले कार्यों का मत धारण करो।
णव णोकसायवगं मिच्छत्तंचय सुभाव सुद्धिए । चेइय पवयणगुरुणं करोहिं भत्तिं जिणाणाए ॥२१॥ नवनोकपाय वर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धय ।
चैत्य प्रवचन गरूणां कुरु भक्ति निनाज्ञया ।
अर्थ--भो माधा ? तुम आत्मीक भावों को निर्मल करने के लिये हाम्यादिक ९ ना कपायों के समूह को और ५ मिथ्यात्व को त्यागो, और जिन प्रतिमा, जैन शास्त्र और दिगम्बर साधु जिन आशानुसार इनकी भक्ति वन्दना पूजा वैयावृत्य कंग।
तित्थयर भाभियत्थं गणहरदेबेहि गंथियं संम्म । भावहि अणुदिण अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं ॥२२॥ तीर्थकर भाषितार्थ गणधरदवैः ग्रन्थिनं सम्यक् ।
मावय अनुदिनम् अतुलं विशुद्ध भावन श्रुत ज्ञानम् ॥
अर्थ--उस अनुपम श्रुतज्ञान को तुम शुद्ध भाव कर निरन्तर भावो जिसमें श्री अर्हन्त देव का कहा हुवा अर्थ है और जिसको गणधर देवों ने रचा है
पाऊण णाणसलिलं णिम्मह तिसडाह सोसउम्मुक्का । होति सिवालयवासी तिहुवण चूडामणि सिद्धा ॥९॥ प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्या तृषादाह शोषोन्मुक्ताः । भवन्ति शिवालय वासिनः त्रिभुवन चूडामणयः सिद्धाः॥
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( ८६ )
अर्थ - श्रुतज्ञान रूपी जल को पीकर जीव सिद्ध होते हैं, और तृषा ( विषयाभिलाषा ) दाह ( संताप ) शोष ( रसादिहानि ) जो कठिनता से नाश होने योग्य है इन से रहित हो जाते हैं तीन लोक के चूड़ामणि और शिवालय ( मुक्त स्थान ) के निवासी होते हैं I दसदस दोड़ परीसह सहहिमुणी सयलकाल कारण । सुत्तेणं अय्यमत्ता संजयवादं पमोत्तॄण ||२४|| दशदशौ सुपरीषा सहस्त्र मुने सकलकाल कायेन | सूत्रेण अप्रमतः संगमघातं प्रमोच्य ॥
अर्थ-भां मुने ? तुम प्रसाद ( कपायादि ) रहित होते हुवे
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जिन सूत्रों के अनुकूल सर्वकाल संयम के घात करने वाली बातों का छोड़ कर वाईस परीषाहों को काया में महो ।
जहपच्छरोण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकाल मुद्रण । तह साहुण विभिज्जइ उवसग्ग परीमदेहिता ॥ ९५ ॥ यथा प्रस्तरो न भिद्यते परिस्थितो दीर्घकल उदकेन । तथा साधुर्न विभिद्यते उपमर्ग परीषहेभ्यः ||
अर्थ - जैसे पत्थर बहुत काल पानी में पड़ा हुवा भी पानी से गीला नहीं होता है, जैसे ही रत्नत्रय के धारक साधु उपसर्ग और परीषाओं से क्षोभित नहीं होते हैं 1
भावहि अणुपेक्खाओ अवरेपण वीस भावणा भावि । भावरहिण किंपुण वाहर लिङ्गेण कायव्वं ॥९६॥
भाव अनुप्रेक्षा अपरा पञ्चविंशति भावना भावय । भावरहितेन किंपुनः वहिर्लिङ्गेन कार्यम् ॥
अर्थ---भो साधो ? तुम अनित्यादि १२ भावनाओं को भावो, और पच्चीस भावनाओं को ध्यावो, भाव रहित वाह्य लिङ्ग कर क्या होता है अर्थात कुछ नहीं हो सक्ता
सव्व विरओवि भावहि णवय पयत्थाइ सत्ततच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदश गुणठाण णामाई ।। ९७॥
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( 29 }
सर्व विरतोपि भावय नवचपदार्थान् सप्ततत्वानि । जीवसमासान् मुने ? चतुर्दश गुणस्थान नामानि ||
अर्थ - भां मुने ? तुम सर्व प्रकार हिमादिक पापों से विरक्त हो तब भी नव पदार्थ, सप्ततत्व, चौदह जीव समास और चौदह गुणस्थानों के स्वरूप को भावो ( विचारो )
नवविहं वंपयदि अब्वंमंदसविहं पमोत्तृण । मेहुण सणासत्तो भमिओसि भवणवे भीमे ॥ ९८ ॥ नवविधं ब्रह्मचर्य प्रकटय अत्रह्मदशविधं प्रमुच्य । `मैथुन संज्ञाशक्तः भ्रमितोसि भवार्णवे भीमे ॥
अर्थ- मां साधो ? तुम दश प्रकार की काम अवस्था को छोड़ कर नव प्रकार से ब्रह्मचर्य को प्रकट करो, तुमने मैथुन लम्पटी होकर इस भयानक संसार में बहुत काल भ्रमण किया है स्त्री चिन्ता, स्त्री के देखने की इच्छा, निश्वास, ज्वर, दाह, भोजन में अरुचि, बेहोशी प्रताप, जीन में संदेह और मरण यह दम अवस्था काम बेदना की है स्त्री विषयाभिलाषा त्याग १ अङ्ग स्पर्श त्याग २ कामां दीपकरसों का न खाना ३ स्त्री संवित स्थान आदि पदार्थों को सेवन न करना ४ स्त्रियों के कपोलादिकां को न देखना ५ स्त्रियों का आदर सत्कार न करना ६ अतीत भांगों का स्मरण न करना ७ आगामी के लिये वांछान करना ८ मनोभिलिषित विषयों का न सेवना ९ नौ प्रकार ब्रह्मचर्य ग्रहण के हैं
यह
भावसहिदय मुणिणो पावइ आराहणा चउकंच । भावहियो मुणिवर भमइ चिरं दीह संसार ॥९९॥
भावमहितश्च मुनीनः प्राप्नोति अराधना चतुष्कं च । भावरहितो मुनिवरः भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ॥
अर्थ -- जां मुनिपुङ्गव भावना सहित हैं ते चारों ( दर्शन शान चरित्र और तप ) आगधनाओं को पावे हैं ( अर्थात ) मोक्ष पाव हैं । और जो मुनिवर भाव रहित हैं ते इस दीर्घ (पंच परिवर्तन रूप ) संसार में बहुत काल भ्रम हैं ।
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( ८८ )
पावंति भावसवणा कल्लाणपरं पराइ सुक्खाई । दुक्खाई दव्व समणा णरतिरिय कुदेव जोणीए ॥ १०० ॥ प्राप्नुवन्ति भावश्रमणाः कल्याण परम्पराय सुखानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यङ्कदेवयोनौ ॥
अर्थ-भाव मुनिद्दी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और कल्यान रूपी पाञ्च कल्याणों के सुखों को पाते हैं और द्रव्य मुनि मनुष्यतिर्यंच और कुदेवों की योनि (गति) में दुःखों को पाते हैं ।
छादाल दोपदूसिय असणं गसिक असुद्धभावेण । पत्तोसि महावसणं तिरिय गईए अणष्पवसो ||१०१ || पट्चत्वारिंशद्दोप दूषित मशनं ग्रसित्वाऽशुद्ध भावेन । प्राप्तोसि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ||
अर्थ - भो मुनं ! ४६ दोषयुक्त अशुद्ध भावों से आहार ग्रहण करने से तुमने तिर्यञ्च गति में परवश होकर छेदन भेदन भूख प्यास आदि महान दुःख उठाये हैं
सचित्त भत्तपाणं गिद्धीदप्पणी पभुनूण ! पत्तोसि तिव्वदुःखं अणाइकालेण तं चित्त ।। १०२॥ सचित्त भक्तपानं गृद्ध्यादर्पण अधीप्रभुक्त्वा । प्राप्तोसि तदुःखं अनादिकालेनत्वं चिन्तय ॥
अर्थ - भो मुनिवर ? विचार करो कि तुमने अज्ञानी होकर अत्यन्त अभिलाषा तथा अभिमान अर्थात उद्धत पने के साथ सचित्त ( सजीव ) भोजन पान करके दुःखों को अनादि काल से अनेक तीव्र दुःख उठाये हैं ।
कंदंवीयं मूलंपुष्कं पत्तादि किं सचित्तं ।
असिऊण माणगव्वे भमिऊसि अनंत संसारे || १०३ || कन्दं वीजं मूलं पुष्पं पत्रादि किंच स चित्तम् । अशित्वा मानेन गर्वेण भ्रमितोसि अनन्तसंसारे ॥
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अथे-कन्द मूल बीज फूल पत्र इत्यादि सधित वस्तुओं को मान और गर्व से खाकर तुम अनन्त संसार में भ्रमे हो।
विणयं पंचपयारं पालहि मणबयण कायजोगेण । अविणय णरामुविहियं तत्तोमुत्तिं पावंति ॥१०४॥
विनयं पञ्चप्रकारं पालय मनोवचन काययोगेन । __ अविनतनरा सुविहितां ततोमुक्तिं न प्राप्नोति ॥
अर्थ--तुम मन वचन काय से पांच प्रकार के विनय को धारण करो क्योंकि अविनयी मनुष्य तीर्थंकर पद और मुक्ति को नहीं पाता है!
णिय सनिए महाजस मत्तिरागेण णिच कालम्मि । तं कुण जिणभत्तिपरं विजावच्चं दसवियप्पं ॥१०॥ निनशक्त्यामहायशः भक्तिरागण नित्यकाल ।
त्वं कुरु जिनमक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ॥
अर्थ- भो महाशय ? तुम सर्वदा अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति भाव के राग सहित दश प्रकार की वैयावृत को पालो जिस से तुम जिनेन्द्र की भक्ति में तत्पर होओ । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शेक्ष्य, गलान, गण, कुल, मंघ और साधु यह दश भेद मुनियों के हैं इनकी वैय्यावृत्त करने से वैय्यावृत्त के दस भद है।
जं किश्चिकयं दोसं मणवयकाएहि असह भावेण । त गरह गुरु सयासंगारवमायं च मोत्तूण ॥ १०६ ॥ ___ यः कश्चित् दोषः मनवचनकायैः अशुभ भावेन । ___तं गर्हय गुरुशकासे गारवं मायां च मुक्त्वा ॥
अर्थ-- मन बचन काय से वा अशुभ परिणामों से जो कोई दोष किया गया हो तिसे गुरु के समीप बड़प्पन और मायाचार को छोड़ कर कहे अर्थात् किय हुए दाषा की निन्दा करै ।
दुजण वयण च डकं निठुर कड्डयं सहति सप्पुरिसा । कम्मपलणासणहूँ भावेणय णिम्ममा सवणा ॥ ॥ १०७॥
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( ९० )
दुर्जन वचन चपेटां मिष्ठुर कटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः । कमल नाशनार्थं भावेन च निर्ममा श्रमणाः ॥
अर्थ - सज्जन मुनीश्वर निर्ममत्व होते हुए दुर्जनों के निर्दय और कटुक बचन रूपी चपेटों को कर्म रूपी मल के नाशने के अर्थ सहते हैं ।
पावं खवइ असतं खमाइ परिमण्डि ओय मुणिप्पवरो । खेयर अमर णराणं पसंसणीओ धुवं होई || १०८ ॥ पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमण्डितश्च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयो ध्रुवं भवति ॥
अर्थ - जो मुनिवर क्षमा गुण कर भूषित है वह समस्त पाप प्रकृतियों का क्षय करें हैं और विद्याधर देव तथा मनुष्यों कर अवश्य प्रशंसनीय होता है ।
इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं । चिर संचय को सिहीं वरखमसलिलेणसिंचेह ॥ १०९ ॥
इति ज्ञात्वा क्षमागुण क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् । चिर संचित क्रोध शिखिनं वरक्षमा सलिलेन सिञ्च ॥
अर्थ- हे क्षमा धारक ऐसा जान कर मन वचन काय से समस्त जीवों पर क्षमा करो, और बहुत काल से एकी हुई क्रोध रूप अग्नि को उत्तम क्षमा रूप जल से बुझाओ ।
दिक्खा कालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो । उत्तम वोहिणिमित्तं असार संसार मुणि ऊण ॥ ११० ॥ दीक्षाकालादीयं भावय अविचार दर्शन विशुद्धः ।
उत्तम वोधि निमित्तम् असार संसारं ज्ञात्वा ॥
अर्थ- हे निर्विकीतुन सम्यग्दर्शन सहित हुए संसार की असारता को जान कर दीक्षा काल आदि में हुए विराग परिणामों को उत्तम बांधि की प्राप्ति के निमित्त भाषो । भावार्थ मनुष्य दीक्षा
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के ग्रहण समय तथा रोग और मरण के समय संसार देह भोगों से अत्यन्त वैरागी होता है उन वैराग्य परिणामों को सदा चिंतवम रखना चाहिये।
संबहि चउविहलिङ्गं अब्भन्तरं लिङ्ग सुद्धिमावण्णो । वाहिर लिङ्गगज होइ फुरमावरहियाणं ।। १११ ॥
सेवस्व दार्वियं लिङ्गम् अभ्यन्तर लिहाशद्धिमापन्नः । वाटिकायं भवति स्फुटं भावरहितानां ॥
अर्थ- मनि सत्तम ? अन्तरङ्ग लिङ्ग शुद्धि को प्राप्त हुए तुम चार प्रकार के लिङ्ग को धारण करो, क्योंकि भाव हितों को वाह्य लिङ्ग अकार्य कारी है।
अहार भयपरिग्गह मेहुणसण्णहि मोहि ओसि तुमं । भमिओ संसार वर्ण अणाइ कालं अणप्प वसो ॥ ११२।।
आहार भयपरिग्रह मैथुन संज्ञाभिःमोहितोसि त्वम् ।
भ्रमितः संसार वने अनादिकालमनात्म वशः ॥ अर्थ-भो मुनिवर ! तुम आहार भय मैथुन और परिग्रह इन संशाओं में मोहित और पराधीन हुए अनादि काल से संसार बन में भ्रम हो सो स्मरण करो।
वाहिरसयणातावण तरुमलाईणि उत्तर गुणाणि | पालाहे भावविशुद्धो पयालाभं ण ई हन्तो ।। ११३ ॥
वहिःशयनातापन तरुमलादीन् उत्तरगुणान् ।
पालय भावविशुद्धः प्रनालाभ न इहमानः ।। अर्थ-भो साधो ! तुम भाव शुद्ध होकर पूजा, प्रतिष्ठा, लाभ, आदि को न चाहते हुए चौड़े मैदान में सोना बैठना आतापन योग वृक्ष की जड़ में तिष्ठना आदि उत्तर गुणों को पालो । भावार्थ शीत काल में नदी सरोवरों के किनारं ग्रीष्म ऋतु में आतापन योग अर्थात् पर्वतों के शिखरों पर ध्यान करता और वर्षा काल में वृक्षा के नीचे तिष्ठना, तीनों उत्तर गुण है।
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( १ ) मावहि पढमं तचं विदियं तिदियं चउत्थ पश्चयं । तियरणसुद्धो अप्पं अणाहि णिहणं तिवग्गहरं ॥ ११४ ।।
भावय प्रथमं तत्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थ पञ्चमकम् । त्रिकरणशुद्धः आत्मानम् अनादि निधनं त्रिवर्गहरम् ॥
अर्थ-भो मुने ? तुम प्रथम तत्त्व जीव का द्वितीय तत्त्व अजीव को तृतीय तत्व आश्रव का चतुर्थ तत्त्व वन्ध को पञ्चम तत्त्व संवर को तथा निर्जरा और मोक्ष तत्त्व को भावां इनका स्वरूप विचारो और मन बचन काय सम्बन्धी कृत कारित अनुमोदना को शुद्ध करते हुए अनादि निधन और त्रिवर्ग को अर्थात् धर्म अर्थ काम कोनाशने वाले मोक्ष स्वरूप आत्मा को ध्याओ।
जावण भावइ तच्चं जावण चिन्तेइ चिन्तणीयाई । तावण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥ ११५॥
यावन्न भावयति तत्वं यावन्न चिन्तयति चिन्ननीयानि ।
तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरण विवर्जितं स्थानम् ।। अर्थ-यह जीव जब तक सप्त तत्त्वों को नहीं भावे है और अब तक चिन्तने योग्य अनुप्रेक्षादिका का नहीं चिन्तक है तब तक जरा मरण रहित स्थान का अथात् निवाण का नहीं पाव है।
पावं हवइ अमेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणापा । परिणामादा बन्धो मोक्खोनिणसामणे दिछो ॥ ११६ पाप मवति अशेषं पुण्यमशेषं च भवति परिणामात् । परिणामाद बन्धः मोक्षो जिमशासने दृष्टः ॥
अर्थ-समस्त पाप वा समस्त पुण्य परिणामों से ही होते हैं तथा बन्ध और मोक्ष भी परिणामों से ही होता है ऐसा जिन शाम्रो में कहा है।
मिच्छत्त तह कसाया संजमनोगेहिं अमुहलेसेहि । बंधा अमुहं कम्मं जिपवयणपरम्मुहो जीवो ॥ ११७ ॥
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मिथ्यात्वं तथा कषयाऽसंयम योगैरशुभलेश्यैः । बध्नाति अशुभं कर्म निनवचनण्ण्मु खो जीवः ।।
अर्थ-जिन बचनों से पराङ्मुख हुआजीव मिथ्यातत्व, कषाय मसंयम, और योग और अशुभ लक्ष्या से पाप कर्मों को बांधते हैं।
सविपरीओ बंधइ मुहकम्मं भावमुद्धिमावण्णो । दुविह पयारं बंधइ संखपेणैव बजरियं ।। ११८ ।।
तद्विारीतः बध्नानि शुभकर्म भावशुद्धिमापन्नः । द्विविधप्रकारं वध्नाति संक्षेपेणैव उच्चरितम् ॥
अर्थ-जिन बचनों के सम्मुख हुआ जीव भावों की शुद्धता सहित होकर दोनों प्रकार के बन्ध को बांधे है । एसा जिनेंद्र देव ने संक्षप से वर्णन किया है । अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि पाप पुण्य कर्म दोनों को बांधे हैं ? तथापि पाप प्रकृतियों में मन्दरस पड़ता है।
णाणावरणादीहिय अहि कम्मेहि वेदिओय अहं । दहि ऊण इण्हिपयडमि अणंत णाणाइ गुणचिन्ता ॥ ११९।।
ज्ञानावरणादिभिश्च अष्टाभिः कर्मभिः वेष्टितश्चाहम् । दग्ध्वा ३मा प्रकृतीः अनन्तज्ञानादि गुण चेतना ॥
अर्थ-भो मुनिवर ? तुम ऐसा विचार करो कि मैं शाना बरणादिक अष्ट कर्मों में और १४८ उत्तर प्रकृतियों से तथा असंख्याते उत्तरोत्तर प्रकृतियों से ढका हुआ हूँ। इन प्रकृतियों को भस्म कर अनन्त शानादि गुण मयी चेतना को प्रकट करूं।
सीलसहस्सहारस चउरासी गुणगणाण लक्रवाई। भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलापेण किं वहुणा ॥१२०॥
शीलसहश्राष्टादश चतुरशीति गुणगणानां लक्ष्याणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं वहुना ।। अर्थ भो साधो ? तुम १८००० शीलों को और ८४००००० उत्तर गुणों को प्रति दिन ध्यावो अधिक ब्यर्थ कहने से क्या मिलता
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( ९४ ) है अर्थात् यह सारांश हम ने कह दिया है। भावार्थ--पर द्रव्य का प्रहण करना कुशील है। और स्वस्वरूप मात्र का ग्रहण शील है। इस के भेद अठारह हजार हैं । मन बचन काय को कृत कारित अनुमत से गुणों (३४३९ ) तिन को आहार भय मैथुन परिग्रह का त्याग इन ४ संशाओ से गुणों ( ९४४३६ ) तिन को पञ्चेन्द्रिय जय से गुणों ( ३६ ४५- १८०) तिन को पृथिवी, जल, तेज, वायु, कायिक प्रत्येक, साधारण द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रय पञ्चेन्द्रिय इन १० प्रकार के जीवों की हिंसादि रूप प्रवर्तन के परिणामा का न करना तिन से गुणों (१८०x१० - १८०० ) तिन को उत्तम क्षमादि दश धर्मों से गुणों ( १८००x१०)- १८००० अठारह हजार इये उत्तर गुणों के भेद ८४००००० हैं। ये गुण विभाव परिणामों के अभाव से होते हैं इस से उन विभाव परिणामों की संख्या कहते हैं। हिंसा १ अनृत २ स्तय ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ९ जुगुप्सा१० भय ११ अरति १२ रति १३मनो दुष्टता १४ वचन दुष्टता ५काय दुष्टता१६ मिथ्यात्व १७ प्रमाद १८ पेशून्य १९ अक्षान २० इन्द्रियों का अनिग्रह २१ यह दोष है । इन को अतिक्रम १ व्यतिक्रम २ अतीचार ३ अनाचार ४ स गुणो ( २१४४८८४) । इनको पृथिवी १ अप २ तेज ३ वायु ४ प्रत्येक ५ साधारण ६ द्वीन्द्रिय ७ त्रीन्द्रिय ८ चतुरिन्द्रिय ९ पञ्चन्द्रिय १० इनका परस्पर आरम्भ जनित घात १०० से गुणों ( ८४४ १००% ८४०० ) इनका १० शील विराधना से अर्थात् स्त्री संमर्ग १ पुष्ट रस भोजन २ गन्धमाल्य ग्रहण ३ शयना. सन ग्रहण ४ भूषण ५ गीत संगीत ६ धन संप्रयोग ७ कुशीलों का संसर्ग ८ राज सेवा ९ रात्रि संचरण १० स गुणों ( ८४०० x १० = ८४००० ) इनको १० आलांचना दोषां से अर्थात् आकम्पित १ अनुमित २ दृष्ट ३ बादर ४ सूक्ष्म ५ छन्न ६ शब्दाकुल ७ बहुजन ८ अन्य क्त ९ तत्सेवी १० से गुणों ( ८४.००४ १०- ८४०००० ) इनको उत्तम क्षमादि १० धर्मों से गुणा ( ८४००००४१०= ८४०००००) चौरासी लाख उत्तर गुण होत हैं।
झायहि धम्मं मुकं अई रउदं च झाणमुत्तूण । रुद्दद्द झाइयाई इमेण जीवेण चिरकालं ॥१२१॥
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( ९५ ) ध्याय धयं शुक्लम् आत रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा ।
आतेरौद्रे ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ।। अर्थ-भो साधा ? तुम आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़ कर धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्यावो क्योंकि इस जीवने अनादि काल स आत और रौद्र ही ध्यान किये हैं।
जेकेवि दव्वमवणा इंदिय सुह आउला पछिंदति । छिदंति भावसमणा झाण कुठारहिं भवरुक्ख ॥ १२२॥
ये केपि द्रव्यश्रमणाः इन्द्रियसुखाकुलानछिन्दन्ति । छिन्दन्ति भावश्रमणाः ध्यान कुठारेण भववृक्षम् ॥
अर्थ-जो इन्द्रिय सुख की अभिलाषा से आकुलित हुवे द्रव्य मुनि हैं वह संसार रूपी वृक्ष को नहीं छदते हैं और जो भावलिडी मुनि है वह धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान रूपी कुठार से संसार रूपी वृक्ष को छेदते हैं
जह दीवो गब्धहरे मारुयवाहाविवज्जओ जलइ । तह रायाणिल रहिओ झाणपईवो पवज्जलई ॥ १२३ ॥
यथा दीपः गर्भग्रहे मारुतबाधा विवर्जितो ज्वलति ।
तथा गगानिलरहितः ध्यानपदीपः प्रज्वलति ।। अर्थ-जैसे गर्भ ग्रह अर्थात् भीतर के कोठे में रक्खा हुवा दीपक पवन की वाधा से वाधित नहीं होता हुवा प्रकाश करता है तेसही मुनि के अन्तरङ्ग में जलता हुवा ध्यान दीपक राग रूपी पवन से रहित हुवा प्रकाशित होता है । भावार्थ । जैस दीपक को पवन बुझा देती है तैसेही ध्यान को राग भाव नष्ट कर देते हैं । इससे ध्यान के वाञ्छकों को राग भाव न करना चाहिये।
झायहि पंचवि गुरवे मंगल चउ सरण लोय परिपरिए । णर सुरखेयर महिए आराहण णायगे वीरे ॥ १२४ ।। ध्याय पञ्चापिगुरून् मङ्गल चतुःशरण लोकपरिवारितान् । नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान् ।।
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( ९६ )
अर्थ-भो साधो ? तुम पाँचो परमेष्ठी को ध्यावो जो कि मंगल स्वरूप सुख के कर्त्ता और दुःख के इर्ता है, चारशरण रूप हैं और लोकोत्तम हैं तथा मनुष्य देव विद्याधरों कर पूजित हैं और आराधनाओं अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप के स्वामी और कर्म शत्रुओं के जीतन में बीर हैं ।
णाणमय विमल सीयल सलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहि जरमरण वेयण डाह विमुक्का सिवा होन्ति ॥ १२५ ॥ ज्ञानमय विमल शीतल सलिलं प्राप्य भव्याः भावेन ।
व्याधि जरामरणवेदना दाह विमुक्ता शिवा भवन्ति ॥ अर्थ - भव्यजीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल को उत्तम भावां से पीकर रोग जरा, मरण, वेदना, दाह और संताप से रहित होकर सिद्ध होते हैं। भावार्थ । जैसे मनुष्य किसी उत्तम कूप के निर्मल ठंडे अल को पीकर शांत हो जाते हैं तैसे ही भव्यजीव ज्ञान को पाकर जन्म जरा मरण से रहित अविनाशी सिद्ध हो जाते हैं 1
जह वीयम्मिय दट्टे विरोहइ अंकुरोय महीवीटे । तह कम्मवीय दट्ठे भवंकुरो भाव सवणाणं ॥ १२६ ॥
यथा वीजे दग्ध नैव रोहति अंकुरश्च महीपीठे | तथा कर्मवीज दग्धे भवांकुरो भावश्रमणाणाम् ||
अर्थ-जैसे बीज के दग्ध हो जाने पर पृथिवी पर अंकुर नहीं उगता है तैसेही भाव लिङ्गी मुनि के कर्म बीजों का नाश दग्ध हो जाने पर फिर संसार रूपी अंकुर पैदा नहीं होता है ।
भाव सवणोवि पावर सुक्खाइ दुक्खाइ दव्व सवणोय । इय णाऊ गुण दोसे भावेणय संजुदो होहि ॥ १२७ ॥ भावश्रमणेोपि प्राप्नोति मुखानि दुःखानि द्रव्यश्रमणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतो भव ।
अर्थ - भावलिङ्गी ही मुनि और श्रावक परमानन्द निराकुल सुख को पाता है, और द्रव्यलिङ्गी साधु दुःखों को ही पावै है, इनके गुण दोषों को जान कर भाव सहित होवो !
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( ९७ ) तित्थयरगणहराई अब्भुदय परं पराई मुक्खाई। पावंति भावसहिआ संख च जिणेहिं बजारियं ॥ १२८॥ तीर्थ करगणधरादीनि अभ्युदय परम्पराय सुखानि । प्राप्नुवन्ति भावसहिताः संक्षेपः जिनः उच्चरितः ॥
अर्थ-भाव लिङ्गी मुनि ही तीर्थकर गणधर आदि अभ्युदय की परम्परा के सुखों को पाता है ऐसा संक्षेप रूप वर्णन जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
ते धण्णा ताण णमो दसण वरणाण चरणसुद्धाणं । भाव सहियाण णिचं तिविहेणय णहमायाणं ॥ १२९ ।। ते धन्या तेभ्योनमः दर्शनवरज्ञान चरणशुद्धेभ्यः ।
भाव सहितभ्योनित्यं त्रिविधेन च नष्ट मायेभ्यः ॥ अर्थ-वे ही धन्य हैं उन्हीं को मन बचन काय से हमारा नमस्कार होवे जो दर्शन शान और चारित्र में शुद्ध हैं, भाव लिङ्गी हैं और मायाचार रहित हैं।
रिद्धि मतुलां विउव्विय किंणर कुिंपुरुसअमरखयरेहिं । तेहिं विण जाइ मोह जिण भावण भाविओ धीरो ॥१३०॥
ऋद्धि मतुलां विकृतां किंनरकिम्पुरुषामर खचरैः ।
तैरपि नयाति मोहं जिनभावनामावितो धीरः ।। अर्थ-जिनेन्द्र भावना अर्थात् सम्यक्त्व भावना में बसे हुए धीर पुरुष, किन्नर किंपुरुष कल्पबासी और विद्याधरों की विक्रिया रूप विस्तारी हुई अनुपम ऋद्धि को दखि मोहित नहीं होते हैं। अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष इन्द्रादिकी की विभूति को नहीं बांधे हैं।
किं पुण गच्छइ मोहं परसुरसुक्खाण अप्पसाराण। जाणन्तो पस्सन्तो चिन्तन्तो मोक्खमुणिधवलो ॥१३१॥ किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानामल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्ष मुनिधवलः ॥
१३
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( ९८ ) अर्थ-वह उत्तम मुनि जो मोक्ष के स्वरूप को जानते हैं देखे हैं और विचारते हैं किसी प्रकार के संसारिक सुख को नहीं चाहते हैं तो भल्पसार वाले मनुष्य और देवों के सुख की चाहना कैसे करें ।
उच्छरइ जाण जरओ रोयग्गी जाण उहइ देह उडि । इंदिय वलं ण वियलइ ताव तुमं कुणइ अप्पहिअं ॥१३२॥
आक्रमति यावन्न जरा रोगाग्निः यावन्न दहति देह कुटिम् । इन्द्रिय वलं न विगिलते तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ।।
अथ भी मुन ! जब तक बुढ़ापा नहीं आवे रांग रूपी अग्नि जब तक देह रूपी घर को न जलावे और इन्द्रियों का बल न घटे तब तक तुम आत्महित करो।
छज्जीव छडायदणं णिचं मण वयण काय जोएहिं । कुण दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं ॥१३३॥
षट्जीवपड़नायतनानां नित्यं मनो वचन काययोगैः । कुरु दयां परिहर मुनिवर ! भावय आर्थे महासत्व ॥
अर्थ--भो मुनिवर ? भो महासत्व ? तुम मन बचन काय से । सर्वदा छै काय के जीवों पर दया करो, और षट अनायतनों को . छोड़ो तथा उन भावों को चिन्तवो जो पहले नहीं हुए हैं ।
दस विह पाणाहारो अणंत भवसायरे भमंतेण । भोयसुह कारणलं कदोय तिविहेण सयल जीवाणं ॥१३॥
दशविधप्राणाहारः अनन्त भवसागरेभ्रमता।
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानाम् ।
अर्थ-भो भव्य ? अनन्त संसार में भ्रमण करते हुए तुम ने भोग सम्बन्धी सुख करने के लिये मन बचन काय से समस्त त्रसस्थावर जीवों के दश प्रणों का आहार किया।
पाणि वहे हि महाजस चउरासी लक्ख जोणि मज्झम्मि । उप्पं जंत परंतो पत्तोसि णिरं तरं दुक्खं ॥ १३५ ॥
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प्राणिबधेहि महायशः चतुरशीति लक्षयोनिमध्ये । उत्पद्यमानो म्रियमाणः प्राप्तोसि निरन्तरं दुःखम् ।।
अर्थ-हे महायशसी तुम प्राणि हिंसा के निमित्त से चौरासी लाख योनियों में उपजते मरते हुए निरन्तर दुःखों को प्राप्त हुए हो।
जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणि भूदसत्ताणं । कल्लाण मुह णिमित्तं परम्परा तिविह सुद्धाए । १३६ ।।
जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभृतमत्वानाम् । कल्याणमुखनिमित्तं परम्पत्रिीवधसुद्ध्या ॥
अर्थ-भी मुन ? तुम सर्व जीवा को मन बचन काय की शुद्धि से अभय दान देवा एमा करना क्रम स तीर्थकर सम्बन्धी पक्ष कल्याणा के मुख का निमित्त है ।
असिय सयं करिय वाई अकिरियाणं च होइ चुलसीदी । सत्तही अण्णाणी वैणइया होन्ति वत्सा ॥ १३७ ॥
अशीति शतं क्रियावादिनामक्रियाणां च भवति च चतुरशीतिः। सप्तपष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवन्ति द्वात्रिंशत् ॥
अर्थ-मिथ्यात्व दो प्रकार है ग्रहीत और अग्रहीत । ग्रहीत के ४ भेद है, क्रियावादी १ अक्रियावादी २ अज्ञानी । और वेनेयिक ४ तिनके भी क्रमसे १८०१८४६७ और ३२ भद हैं यह सर्व ३६३ पाखण्ड ग्रहीत मिथ्यात्व हैं । और जो मिथ्यात्व अनादि काल से जीव को लगा हुवा है वह अग्रहीत है
णमुयइ पयडि अभव्यो मुट्ठवि आयण्णिऊण जिणधम्म । गुणदुदंविपिवंता णपण्णया णिव्विसा होन्ति ॥ १३८ ॥
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्टुअपि आकर्ण्य जिनधर्मम् । गुडदुग्धमपि पिवन्तः न पन्नगा निर्विषा मपन्ति ।।
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( १०० ) अर्थ-अभव्यजीव जिनधर्म को उत्तम प्रकार सुन कर भी अपनी प्रकृति को अर्थात् मिथ्यात्व को नहीं छोड़ता है । जैसे शक्कर से मिले हुवे दूध को पीता हुवा भी सर्प ज़हर नहीं छोड़ देता है।
मिच्छतछण्णदिट्ठी बुद्धीए रागगहगहिय चितेहिं । धम्मं जिणपणत्तं अभव्यजीवो ण रोचेदि ॥ १३९ ॥ मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुद्धी रागग्रहग्रहीत चित्तैः ।
धर्म जिनप्रणीतम् अभव्यजीवो न रोचयति ॥ अर्थ-मिथ्यात्व से ढका हुआ है दर्शन जिसका ऐसा दुर्बुद्धि अभव्य जीव राग रुपी पिशाच से पकड़े हुवे मन के कारण जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में रुचि नहीं करता है।
कुच्छिय धम्मम्मिरओ कुच्छिय पाखण्डिभत्ति संजुत्तो। कुच्छिय तपं कुणन्तो कुच्छिय गइ भायणो होई ॥१४० ।।
कुत्सित धर्मेरतः कुत्सितपाखण्डि भक्ति संयुक्तः । कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगति माननं भवति ।
अर्थ-जो कुत्सित, निन्दित धर्म में तत्पर है, खोटे पाखण्डियों की भक्ति करता है और खोटे तप करता है वह खोटी गति पाता है।
इयमिच्छत्तावासे कुणय कुसच्छेहि मोहिओ जीवो । भमिओ अणाइ कालं संसार धीरे चिंतेहि ॥१४१॥ इति मिथ्यात्वावासे कुनय कुशास्त्रैः मोहितो जीवः ।
भ्रान्त : अनादि कालं संसारे धीर चिन्तय ॥
अर्थ-इस प्रकार कुनयों और पूर्वापर विरोधों से भरे हुवे कुशास्त्रों में माहित हुवे जीवने अनादि काल से मिथ्यात्व के स्थान रूपी संसार में भ्रमण किया सो हे धीर पुरुषों ? तुम विचारो
पाखंडीतिणिसया तिसहि भेयाउमम्ग मुत्तूण । रुंभाहि पण जिममग्गे असप्पलावणकि वहुणा ॥१४२॥
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( १०१ )
पाखण्डिनः त्रिणिशतानि त्रिषष्ठिः भेदा तन्मार्ग मुक्त्वा । रुन्द्धि मनो जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना | अर्थ - भो आत्मन् ? तुम ३६३ तीन से तिरेषठ पाखण्डी
मार्ग को छोड़कर अपने मन को जिन मार्ग में स्थापित करो यह संक्षेप वर्णन कहा है निरर्थक बहुत बोलने से क्या होता है।
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जीव विमुको सवओ दंसण मुक्काय होइ चलसवओ । सवओ लोय अपुज्जो लोउत्तरयम्मि चल सवओ ।। १४३ ।। जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवकः । शवको लोकापूज्यः लोकोत्तरे चलशवकः ॥
अर्थ - जीव रहित शरीर को शव (मुरदा ) कहते हैं और सम्यग्दर्शन रहित जीव चलशव अर्थात् चलने फिरने वाला मुरदा है, लोक में मृतक अनादरणीय अर्थात् पास रखने योग्य नहीं है उसको जला देते हैं या गाड़ देते हैं तैसे ही चलशव अर्थात् मिथ्या दृष्टि जीव का लोकोत्तर में अर्थात् परभव में अनादर होता है भावार्थ नीच गति पाता है ।
जह तारायण चंदो मयराओ मयकुलाण सव्वाणं । अहिओ तहसम्मत्तो रिसि सावय दुविहधम्माणं ॥ १४४ ॥ यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजो मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वम् ऋषिश्रावक द्विविधधर्माणाम् ॥ अर्थ-जैसे ताराओं के मध्य में चन्द्रमा प्रधान हैं और जैसे समस्त बन के पशुओं में सिंह प्रधान है तैसे मुनि श्रावक सम्बन्धी दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है।
जह फणिराओ रेहड़ फणमणि माणिक्ककिरण परिफिरिओं तह विमलदंसणधरो जिणभत्ती पवयणे जीवो ॥ १४५ ॥
यथा फणिराज राजते फणमणि माणिक्यकिरणपरिस्फुरितः तथा विमलदर्शनधरः जिनमक्तिः प्रवचने जीवः ॥
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( १०२ ) अर्थ-नांग कुमारी के इन्द्र को फणिराज कहते हैं उसके सहस्त्रफण हैं प्रत्येक फण में मणि हैं परंतु मध्य के फण में माणिक मणि सर्वोत्तम है उसकी किरणों से विस्फुटित हुआ फणिराज शोभायमान होता है तैसे ही निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जिनेन्द्रभक्त जीव जैनसिद्धान्त में शोभायमान होता है।
जहतारायणसहियं ससहरबिम्ब खपण्डले विमले । भाविय तव वय विमलं जिणलिङ्गं देसण विसुद्धं ॥१४६॥
यथा तारागणसहितं शशधरविम्बं खमण्डले विमले । भावित तपोव्रतविमलं जिनलिङ्गं दर्शन विशुद्धम् ।।
अर्थ-जैसे निर्मल आकाश में तारागण सहित चन्द्रमा का बिम्ब शोभायमान होता है तैसे ही जिनमत में तपश्चरण और व्रती से निर्मल तथा सम्यग्दर्शन से शुद्ध ऐसा जिन लिङ्ग (दिगम्बर वेष) शोभित होता है।
इयणाउं गुणदोसं दसणरयणं धरेह भावेण । सारंगुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥१४॥ इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरतभावेन ।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ अर्थ--भो भव्यजनो? आप इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के गुण और दोषों को जान कर सम्यग्दर्शन रुपी रत्न को भाव सहित धारण करो जो कि समस्त गुण रत्नों में सार (प्रधान) है और मोक्ष मन्दिर की प्रथम सीढी है।
कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणोय । दंसणणाणवउम्गो णिदिद्योजिणवरिंदेहि ॥१४८॥
कर्ती भोगीअमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनश्चः । दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टो जिनवरेन्द्रः ।।
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अर्थ-यह जीव शुभ अशुभ कर्मों का तथा आत्मीक भावों का कर्ता है, उन कर्मों के फलों का तथा आत्मीक परिणामों का भागने वाला है अमूर्तीक है शरीर प्रमाण है अनादिनिधन ( अनादि अनन्त ) है और दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग सहित है।
दसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिहविइभविय जीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ॥१४९।।
दर्शन ज्ञानावरणं भोहनीयमन्तररायं कर्म । निष्टापति भव्यजीवः सम्यग्जिनभावनायुक्तः ।।
अर्थ~ ममीचीन जिन भावना सहित भव्य जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय इन चारों घाति या कर्मों का नाश करते हैं।
वलसौक्ख णाणदंसण चत्तरिवि पायडागुणाहोति । पटेघाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ।।१५०॥
वलसौग्व्यं ज्ञानंदशनं चत्वारोपि प्रकटा गुणा भवन्ति ।
नष्टे वातिचतुप्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥
अर्थ-उन घातिया कर्मा के नाश होने पर अनन्तवल अनन्तसुख अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन यह आत्मीक चारागुण प्रकट होते हैं और उनके ज्ञान में लोक अलांक प्रकाशित होते हैं।
णाणीसिव परमेही सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो । अप्पोवियपरमप्पो कम्मविमुक्कोय होइफुडम् ॥१५१।। ज्ञानीशिवः परमेष्ठी सर्वज्ञाविष्णुः चतुर्मुखोबुद्धः ।
आत्मापि च परमात्मा कर्मविमुक्तश्च भवति स्फुटम् ।। अर्थ--यह संमारी आत्मा ही सम्यग्दर्शनादिक के निमित्त से कर्म बन्ध रहित होकर परमात्मा होता है जिसको ज्ञानी, शिव, परमष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध, कहते हैं।
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( १०४ )
इयघाइकम्ममुक्को अट्ठारसदोस वज्जिओ सयलो । तिहुवण भवण पईवो देउमम उत्तमं वोहं ।।१५२।। इतिघातिकर्ममुक्तः अष्टादशदोषवज्जितः सकलः । त्रिभुवन भवनप्रदीपः ददातु मह्यमुत्तमं बोधम् ॥
अर्थ - इस प्रकार घातिया कर्मों से रहित, क्षुधादिक अठारह दोषों से वर्जित परमौदारिक शरीर सहित और त्रिलोक रूपी मन्दिर के प्रकाशने में दीपक के समान श्रीअर्हत देव मुझे उत्तम बोध देवो ! जिणवर चरणांबुरुहं णमंतिजे परमभत्तिएएण | जम्पवेल्लिमूलं खणन्ति वरभावसच्छेण || १५३॥ जिनवर चरणाम्बुरुहं नमन्तिये परमभक्तिरागेन । जन्मवलीमूलं खनन्ति वरभावशस्त्रेण ||
अर्थ - जो भव्यजीव परम भक्ति और अपूर्व अनुराग से जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ते पुरुष उत्तम परिणाम रूपी हथियार से संसार रूपी बलि की जड़ को खोदते हैं अर्थात् मिथ्यात को नाश करते हैं ।
जहसलिलेण णलिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए ।
तह भावेण णलिप्प कसाय विसएहि सप्पुरुसो || १५४|| यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्र स्वभावप्रकृत्या | तथा भावना नलिप्यते कषायविषयैः सत्पुरुषः ॥
अर्थ - जैसे कमलिनी के पत्र को स्वाभाव से ही जल नहीं लगता है तैसे ही सत्पुरुष अर्थात् सम्यगदृष्टि जिन भक्ति भाव सहित होने से कषाय और विषयों में लिप्त नहीं होते हैं ।
तेविय भणामिदंजे सयल कलासीलसंजमगुणेहिं । वहुदोसाणावासो सुमलिण चित्तोणसावयसमोसो ॥ १५५ ॥ तेनापि भणामिअहं ये सकलकलाशील संयमगुणैः । वहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥
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( १०५ ) अर्थ-हम उनही को मुनि कहते हैं जो समस्त कला शील और संयम आदि गुणों सहित हैं। और जो बहुत दोषों के स्थान हैं और अत्यन्त मलिन चित्त हैं वे बहुरूपिये हैं श्रावक समान भी नहीं हैं।
ते धीर वीर पुरुसा खमदमखग्गेणविष्फुरतेण । दुजय पवळवलुद्धर कसायभडणिज्जिया जेहिं ॥१५॥
ते धीर वीर पुरुषाः क्षमादमखनेन विस्फुरता । दुर्जय प्रवलवलद्धर कषाय मटा निर्जिता यैः ।।
अर्थ-वही धीर वीर पुरुष हैं जिन्हों ने क्षमा, दम रुपी तीक्ष्ण खड (तलवार) से कठिनता से जीतेजाने योग्य बलवान और बल से उद्धत एस कषाय रूपी सुभटों को जीत लिया है । भावार्थ जो कषायों को जीतते हैं वह महान योधा है, संग्राम में लड़ने वाले योधा नहीं है
धण्णा भयवान्ता दसण णाणग्गपवरहच्छेहिं । विसय मयरहरपडिया भवियाउत्तरियाजेहिं ॥१५७॥
धन्यास्ते भयवान्ता दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्ताभ्याम् । विषयमकरधरपतिताः भव्याउत्तारितायैः ॥
अर्थ-विषय रूपी समुद्र में डूबे हुए भव्य जीवों को जिन्होंने दर्शन शान रूपी उत्तम हाथों से निकाल कर पार किया है वे भय रहित भगवान धन्य हैं प्रशंसनीय हैं।
मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्पिआरूढा । विसय विसफुल्लफुल्लिय लुणंति मुणिणाणसच्छेहिं ॥१५८॥
मायावल्लीमशेषां मोहमहातरुवरे आरुढाम् । विषय विषपुप्पपुष्पिता लुनन्तिमुनयः ज्ञानशस्त्रैः ।। अर्थ-दिगम्बर मुनि समस्त मायाचार रूपी बेलि को जो मोह रूपी महान वृक्ष पर चढ़ी हुई है और विषय रूपी जहरीले फूलों से कूली हुई है सम्यगवानरूपी श से काटते हैं।
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( १०६ ) मोहमयगारवेहिं यमुकाजे करुण भावसंजुत्ता। ते सचदुरियखंभ हणति चारित्तखग्गेण ॥१५९॥ मोहमदगारवैः च मुक्ताये करुणामावसंयुक्ताः ।
से सर्वदुरितस्तंभ धन्ति चारित्र खड्गेन ॥ अर्य-मोह अर्थात् पुत्र मित्र कलित्र धन आदि पर वस्तुओं में नेह करना । मद अर्थात् शान आदि के प्राप्त होने पर गर्व करना । गारव अर्थात् अपनी बड़ाई प्रकट करना, जो मुनिवर इन से अर्थात् मोह मद गारव मे रहित हैं और करुणा भाव सहित हैं वेही मुनि चारित्र रूपी खड्ग से समस्त पाप रूपी स्तम्भ को हने हैं।
गुणगणमणिमालाए जिणपयगयणेणि सायरमुणिदो। तारावलि परि काले ओ पुण्णिम इंदुव्च पवणयहे ॥१६०॥
गुणगण मणि मालया जिनमत गगने निशाकर मुनीन्द्रः ।
तारावलि परिकलितः पूर्णिमन्दुरिव पवनपथे ।। अर्थ-जैसे आकाश में तारा नक्षत्रों से वेष्टित पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभायमान होता है तैसे ही जिन शामन रुपी आकाश में गुण समूह अर्थात् २८ मूल गुण १० धर्म ३ गुप्ति ८४ लाख उत्तर गुण की मणिमाला से मुनीश्वर रुपी चन्द्रमा शोभायमान होते हैं।
चकहर राम केसव सुरवर जिण गणहराई सौक्खाई । चारण मुणिरिद्धिओ विसुद्ध भावाणरा पत्ता ॥१६॥
चक्रधरराम केशव सुरवर जिनगणधरादि सौख्वानि । चारण मणि ऋद्धी: विशुद्ध भावा नरा प्राप्ताः ॥
अर्थ- विशुद्ध भावों के धारक मुनिवर ही चक्रवर्ती, राम, वासुदेव, इन्द्र, अहमिन्द्र, अईन्त, गणधर, आदि उत्तम पदों के सुखों को तथा चारण मुनियों की ऋद्धि (आकाशगामिनी आदि ६४ ऋद्धि ) को प्राप्त हुव हैं।
सिव मजरामरलिंग मणेवम मुत्तमपरम विमलमतुलं । पत्तावर सिद्धिमुहं जिण भावण भाविया जीवा ।।१६२॥
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शिवमजरामर लिा-मनुपम मुत्तमं परमविमल मतुलम् ।
प्राप्ता वरं सिद्धिमुखं जिन भावना भाविता जीवाः ॥
अथ--जो जिन भावना सहित हैं ते ही जीव उस उत्तम मोक्ष मुख को पाते हैं जोकि कल्य ण स्वरुप हैं, जरा और मरण रहित होना जिसका चिह्न है, जो उपमा रहित है, उत्तम है अत्यन्त निर्मल और अनन्त है,
तेमे तिहुवण महिया सिद्धासुद्धाणिरंजणाणिचा । दितु वरभाव सुद्धिं दसणणाणे चरित्तेय ॥१६॥
ते म त्रिभुवन महिता सिद्धा शुद्धा निरज्जनानित्या ।
ददतु वरभावशुद्धिं दर्शनज्ञाने चारित्रे च ॥
अर्थ-जो कर्ममल से शुद्ध हो चुके हैं और नवीन कर्म बन्ध रहित हैं नित्य हैं और तीनों जगत में पूज्य है त जगत प्रसिद्ध सिद्ध परमेष्टी मरे दर्शन ज्ञान और चारित्र में उत्तम भावशुद्धि दव।
किं जंपिएण वहुणा अच्छोधम्मोय काममोक्खोय । अण्गेविय वावारा भावाम्म परिहया सुद्ध ॥१६४॥ किं जल्पितेन बहुना अर्थोधर्मश्च कामामोक्षश्च ।
अन्येपि च व्यापारः भावपरिस्थिताशुद्धे ।। अर्थ-बहुत कहने से क्या अर्थ [ धन संपत्ति ] धर्म [ मुनि श्रावकधर्म ] काम [पञ्चन्द्रिय सुख दायक इष्ट भोग] माक्ष [मस्त कर्मो का अत्यन्त अभाव] इत्यादि अन्य भी व्यापार त सर्व ही शुद्ध भावों में लिष्ट है अर्थात् शुद्ध भाव होने से ही सिद्ध हो सकते हैं अशुद्ध भावों से नहीं।
इयभावपाहुइमिणं सबबुद्धेहिं देसियं सम्मं । जो पढइ मुणइ भावइ सो पावइ अबिचलं ठाणं ॥१६॥ इति भावप्राभृतमिदं सर्वबुद्धैः देशितं सम्यक् । यः पठति शृगोति भवयति सप्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥
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( १०८ ) अर्थ-इस प्रकार यह भाव प्राभृत श्रीसर्वशंदवने सम्यक्प्रकार उपदेशा है तिसको जो भव्य जीव पड़े हैं सुने हैं भावना कर हैं वह मबिचल स्थान अर्थात् [ मोक्ष स्थान ] को पावे हैं।
छटा पाहुड़।
मोक्षप्राभृतम् । णाणमयं अप्पाणं उपळद्धं जेण झाडिय कम्मेण । चाऊणय परदव्वं णमोणपो तस्स देबस्स ॥ १ ॥
ज्ञानमय आत्मा उपलब्धो येन क्षितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमोनमस्तस्मै देवाय ॥
अर्थ-क्षय कर दिये हैं द्रव्यकर्म भावकर्म और नो कर्म जिस ने ऐसा जो आत्मा परद्रव्यों को छोड़कर ज्ञानमय आत्मस्वरूप को प्राप्त हुआ है तिस आत्मस्वरूप देव का मरा नमस्कार हावा।
णमिऊण य तं देवं अणन्तं धरणाण दंसणं सुदं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयंपरम जोईणं ॥ २ ॥
नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् ।
वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ अर्थ-अनन्त और उत्तम है शानदर्शन जिनमें, शुद्ध परमात्मस्वरूप और उत्कृष्ट है पद जिनका ऐसे देव को नमस्कार करके परमयोगियों के प्रति शुद्ध अनन्तदर्शन शानस्वरूप और उत्कृष्ट पदधारी ध्येयरूप परमात्मा का वर्णन करूंगा।
नं जाणऊण जोई जो अच्छो जोइऊणअणबरयं । अन्वावाहमणंत अणोवर्म हवइ णिव्याणं ॥३॥ यद् ज्ञात्वा योगी यमर्थ युक्त्वाऽनवरतम् । अन्याबाधमनन्तम् अनुपमं भवति निर्वाणम् ॥
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( १०९ ) अर्थ-- योगी जिस परमात्मा को जानकर और उस परमतत्व को निरन्तर ध्यान में लाकर निर्वाध अनन्त और अनुपम ऐसे निर्वाण (मोक्ष) को पाते है । अर्थात् उस परमात्म ध्यान से मुक्ति होती है।
ति पगारो सों अप्पा परमन्तर बाहिरोहु देहीणं । सच्छपरो माइज्जा अन्तोवारण चयहि वहिरप्पा ॥४॥ त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तरबहिः स्फुटं देहीनाम् ।
तत्र परं ध्यायस्व अन्तरुपायेन त्यज वहिरात्मनन् ।।
अर्थ-- आत्मा तीन प्रकार है परमात्मा १ अन्तरात्मा २ । और बहिरात्मा ३ । तिन में से अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा को ध्यावो और वहिरात्मा को छोड़ो।
अक्खाणि पहिरप्पा अन्तर अप्पाहु अप्पसङ्कप्पो । कम्पकलङ्कविमुको परमप्पा भण्णए देवो ॥५॥
अक्षाणि वहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसङ्कल्पः ।
कर्मकलङ्कविमुक्तः परमात्माभण्यते देवः ॥ अर्थ-आंख नाक आदि इन्द्रियां वहिरात्मा हैं अर्थात् इन्द्रियों को ही आत्मा मानने वाला वहिरात्मा है, आत्मसकल्प अर्थात् भेदशान अन्तरात्मा है।
भावार्थ-जो आत्मा को शरीर से भिन्न मानता है वह अन्तरात्मा है, और जो कर्मरूपी कलङ्क से रहित है वह परमात्मा है, वही देव है।
मळरहिओ कलचत्तो अणिन्दओ केवलोविमुद्धप्पा । परमेहीपरममिणो सिवको सासओ सिद्धो ॥६॥
मलरहितः कलत्यक्तः अनिन्द्रियः केवलोविशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवङ्करः शास्वतः सिद्धः ।
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( ११० )
अर्थ- वह परमात्मा कर्ममल रहित है, शरीर रहित है, इन्द्रिय ज्ञान रहित है अर्थात् जिसको बिना इन्द्रियों के ज्ञान होता है, अथवा निन्दारहित है अर्थात् प्रशंसनीय है, केवल ज्ञानमयी है, परम पद अर्थात् मोक्षपद में तिष्ठे है, परम अर्थात् उत्कृष्ट जिन है शिव अर्थात् मंगल तथा मोक्ष को करे है. अविनाशी और सिद्ध स्वरूप है
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आरुहावे अन्तरप्पा वहिरप्पा छण्डिऊणतिविद्देण । शाइज्जइ परमप्पा उवइयं जिणवरिं देहिं ॥ ७ ॥
आरुह्य अन्तरात्मनं वहिरात्मानं त्यक्त्वात्रिविधेन । ध्ययेत परमात्मानं उपदिष्ट जिनवरेन्द्रैः ||
अर्थ- ---मन वचन काय से वहिरात्मा को छोड़ाकर अन्तरात्मा का आश्रय लेकर परमात्मा को ध्यावो ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । वरित्थेरियमाणो इन्दिय दारेण णियसरुवचओ । णियदेहं अण्वाणं अज्जव सदि मूढादट्टीओ ॥ ८ ॥
वहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रिय द्वारेण निजस्वरूप च्युतः । निजदेहम् आत्मान अध्यवश्यति मूढदृष्टिः ॥
अर्थ – इन्द्रियों के निमित्त से स्त्री पुत्र धन धान्य ग्रह भूमि आदिक वाह्य पदार्थों में लगा हुवा है मन जिसका इसी से निज आत्मस्वरूप से छुटा हुषा यह मिथ्या दृष्टि पुरुष निज शरीर में हो आत्मा को निश्चय करे है अर्थात् शरीर को ही आत्मा समझें है । force सरिसं पछिऊण परविग्गदं पयत्तेण } अयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण ।। ९ ।। निजदेहसदृशं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयलेन । अचेतनमपि गृहीतं ध्यायते परमभेदेन ॥
अर्थ - चेतनारहित और शरीर से अत्यन्त भिन्न स्वरूप आत्मा कर ग्रहण किया एसे परपुरुषों के शरीर को अपनी देह (शरीर) के समान जानकर उसको (अनेक) प्रयत्नों कर ध्यावै है ।
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भावार्थ--मिथ्या दृष्टि (बहिरात्मा) जैसे अपने देह को आत्मा जान है तैसेही पर के देह को पर का आत्मा जाने है।
सपरज्यवसारण देहेसुय अविदियच्छ अप्पाणं । मुअ दराई विसए मणुयाणं वहए मोहो॥१०॥ स्वपराध्यचसायेन देहेषु च अविदितात्मनाम् ।
सुतदारादि विषये मनुजानां वर्तते मोहः ॥ अर्थ-पर पदार्थ अर्थात् शरीरादि में अपने आप को निश्चय करना सो स्वपराध्यवमाय है। नहीं जाना है जीवादि पदार्थों का स्वरूप जिन्होंने ऐसे मनुष्य का मोह उस स्वपराध्यवसाय से पुत्र कलित्र आदि विषयो म बढ़े है।
मिच्छाणाणेसुरओ मिच्छाभावेण भाकिओ सन्तो। मोहोदएण गुणरवि अङ्ग सं मण्णए मणुओ ॥ ११ ॥
मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन् ।
मोहोदयेन पुनरपि अङ्गं स्वं मन्यते मनुजः ॥ अर्थ-यह मनुष्य मिथ्याज्ञान में तत्पर होता हुवा, मिथ्याभाव अनुबासित अर्थात गन्धित होता है फिर मोह के उदय से शरीर को आपा जाने है।
भावार्थ-अग्रहीत मिथ्यात्व से ग्रहीत फिर ग्रहीत से अग्रहीत मिथ्यात्व होता रहता है।
जोदेहेणिवेक्खो णिदन्दो णिम्ममो णिरारम्भो । आदसहावेसुरओ जो इ सो लहहि णिव्वाणं ॥ १२ ॥
यः देहेनिरपेक्षः निद्वन्दः निर्ममः निरारम्भः । __ आत्मस्वभावे सुरतः योगीस लभते निर्वाणम् ॥
अर्थ--जो योगीश्वर देह में निरपेक्ष अर्थात उदासीन है कलह अर्थात लड़ाई झगड़े से रहित है अथवा स्त्री भोगादिक से रहित है परम पदार्थों में ममकार अर्थात अपनायत नहीं करता है और असि
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( ११२ ) मसि कृषि विद्या पणिज्य सेवा आदिक आरम्भों को भी नहीं करता है किन्तु आत्मस्वभाव में अत्यन्त लीन है वह निर्वाण को पावै है।
परदव्वरो बज्मइ विरओ मुच्चे विविहकम्पति। पसो मिण उपदेसो सयासओ वन्धमोक्खास्म ॥ १३ ॥
परद्रव्यरतः वध्यते विरतः मुश्चति विविधकर्मभिः ।
एष जिनोपदेशः समासतः बन्धमोक्षस्य ।। अर्थ-जो परद्रव्यों में प्रीति करता है वह कर्मों से बन्धता है और जो उनसे विरक्त रहता है वह समस्त कर्मों से छूटता है यह धन्ध और मोक्ष का स्वरूप संक्षेप से जिनन्द्रदेव ने उपदेश किया है।
सहब्बरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइणियमेण । सम्मत्त परिणदोपुण खवेइ दुदृढकम्माई ॥१४॥ स्वद्रब्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्ठिर्भवति नियमेन ।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षिपते दुष्टाष्टकर्माणि ॥
अर्थ-जो मुनि अपने आत्मीक द्रव्य में लीन है वह अवश्य सम्यग्दृष्टि है वही सम्यक्त्व के साथ परणत होता हुवा दुष्ट अष्ट कर्मा का क्षय करे है ॥१४॥
मो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहु । मिच्छत्त परिणदो पुण वज्झदि दुहकम्महि ॥ १५ ॥
यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिभवति स साधुः मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ।।
अर्थ-जो साधु परद्रव्यों में लीन है वह मिथ्या दृष्टि है और मिथ्यात्व से परणत हुवा दुष्ट अष्ट कर्मों से वन्धता है।
परदव्वादो मुगइ सहव्वादोहु मुगगह हबई । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरह इयरम्मि ॥१६
परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरति मितरस्मिन् ॥
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( ११३ ) . अर्थ-परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से सुगति ( मोक्ष ) होती है ऐसा जान कर अपने आत्मीक द्रव्य में प्रीति करो और अन्य (वाह्य ) पदार्थों में विरति अर्थात् बिरक्तता करो।
आदसहावा वणं सञ्चिताचित्तमिस्सियं हवादि । तं परदव्वं भणियं अविच्छिदं सव्वदरसीहिं ।। १७॥
आत्मस्वभादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भाणतम्-अवितथं सर्वदर्शिभिः ।।
अर्थ-जो आत्मस्वरूप से अन्य है ऐसे सचित्त अर्थात् पुत्र कलत्रादिक और अचित्त अर्थात् धन धान्य आदिक और मिश्रित अर्थात् आभूषण हित स्त्री आदिक पदार्थ सबही पर द्रव्य है एसा सर्वज्ञ दव ने सत्यार्थ वर्णन किया है।
दट्ट कम्म रहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच । सुद्धं जिणेहि कहियं अप्पाणं हवदि सहव्वं ।। १८ ।।
दुष्ठाप्ट कम रहितम् नपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् । शुद्ध निनैः कथितम्, आत्मा भवति म्वद्रव्यम् ।।
अथ दुष्ट शानावरणादिक आठ कर्मों से रहित अनुपम् झान ही है शरीर जिम्मका, अविनश्वर शुद्ध अर्थात् कर्म कलरहित कवल ज्ञानमयी आत्मा और स्वद्रव्य है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है।
जे झायंति सदव्वं परदव्वं परंमुहा दु सुचरित्ता। ते जिणवरा णमग्गं अणुलग्गा लहहि णिव्वाणं ॥ १९ ॥ _ये ध्यायन्ति स्वद्रव्यं परद्रव्य पराङ्मुखास्त सुचरित्राः ।
ते जिनवराणां मार्गमनुलग्ना लभन्ते निर्वाणम् ।। अर्थ---जो पर पदार्थों से परांमुख और उत्तम चारित्र के धारक साधु स्वद्रव्य को अर्थात् अपनी आत्मा को ध्यावं हैं वेजिनंद्र दव के मार्ग में लगेहुवे अवश्य निर्वाण को पाव है।
जिणवरमएण जोई शाणे झाएइ मुद्धमप्पाणं । .. जण लहहि णिवाणं ण लहहि किं तेण सुरलोयं ॥ २०
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( ११४ ) जिनवर मतेन योगी ध्यान ध्यायति शुद्धमात्मानम् ।
येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ॥
अर्थ-योगी ध्यानी मुनि जिनेन्द्र देव के मत के द्वारा ध्यान में शुद्ध आत्मा को ध्याकर निर्वाण पद को पावे हैं तो क्या उस ध्यान से स्वर्गलोक नहीं मिलता अर्थात् अवश्य मिलता है।
जो जाइ जोयणसयं दिय हेणेक्केण लेवि गुरु भारं । सो किं कोसद्धं पिह णसक्कए जाहु भुवणयले ॥ २१ ॥ । यो यति योजनशंन दिनैनकेन लात्वा गुरु भारम् ।
स किं क्रोशर्धमपि स्फुटं न शक्यते यातुं भुवनतले ॥
अर्थ-जो पुरुष भारी बोझ लेकर एक दिन में सौ १०० योजन तक चलता है तो क्या वह आधा कोश जमीन पर नहीं जा सकता है। इसी प्रकार जो ध्यानी मोक्ष को पा सकता है तो क्या वह स्वर्गादिक अभ्युदय को नहीं पा सक्ता है ?
जो कोडिएन जिप्पइ सुहटो संगाम एहि सम्वेहि । सो किं जिप्पई इकिं णरेण संगामए मुहडो ॥ २२ ॥ ___ यः कोटीः जीयते सुभटः संग्रामे सर्वैः ।
स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामें सुमटः ॥ अर्थ-जो सुभट ( यांधा ) संग्राम में समस्त करोड़ों योधाओं को एक माथ जीते है वह सुभट क्या एक साधारण मनुष्य से रण में हार सकता है ? अर्थात् नहीं । जो जिन मार्गी मोक्ष के प्रति बन्धक कर्मों का नाश करे है वह क्या स्वर्ग के रोकने वाले कर्मों का नाश नहीं कर सके है।
सगं तवेण सव्वो विपावए तहवि झाण जोएण। जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ॥ २३ ॥ स्वर्ग तपसा सर्वोऽपि प्राप्नोति तत्रापि ध्यान योगेन । यः प्राप्नोति स प्राप्नोति परलोके शास्वतं सौख्यम् ।।
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अथे तपश्चरण करके स्वर्ग को सर्व ही भव्य अभव्य तथा जिनधर्मी अन्य धर्मी भी पावे हैं तथापि जो ध्यान के योग से स्वर्ग पावे हैं वह परलोक में अविनश्वर मुख को पावें हैं।
अइसोहण जोएण सुद्धं हेमं हवेइ जह तह यं । कलाई लद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥ २४ ॥
अति शोभन योगेन शुद्धं हेम भवति यथा तथाच । कालादि लब्ध्वा आत्मा परमात्मा भवति ॥
अर्थ-जैसे सुवर्ण पाषाण उत्तम शोधन सामिग्री के निमत्त से निर्मल सुर्वण बनजाता है तैसे ही कालादिक लब्धिओं को पाकर यह संसारी आत्मा परमात्मा हो जाता है।
वर वयतवेहि सग्गो मादुक्खं होउ णिरय इयरेहिं । छाया तबहियाणं पडिवालं ताण गुरु भयं ॥ २५ ॥
वरं व्रत तपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतुनरके इतरैः । छाया तपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरु भेदः ॥ अर्थ-व्रत और तप से स्वर्ग होता है यह तो अच्छी बात है परंतु अव्रत और अतप से नरक विषे दुख नहीं होना चाहिये, छाया और धूप में बैठने वाला के समान व्रत और अव्रता के पालनेवालों में बड़ा भेद है।
भावार्थ-छाया में बैठने वाला मनुष्य सुख पावे है तैसे ही व्रत पालन करने वाला स्वर्गादिक सुख पावें है और धूप में बैठने वाला मनुष्य दुख पावे है तैसे ही अव्रतों को आचरण करने वाला अर्थात् हिंसा आदिक करनेवाला दुःख पावे है इन दोनों में बड़ा भारी भेद है। एसा समझ कर व्रत अङ्गीकार करो।
जो इच्छदि निस्सरिदुं संसार पहण्णवस्स रुद्दस्स । कम्मि धणाण डहणं सोझायइ अप्पयं सुदं ॥ २६ ॥ य इच्छति निस्मृतं संसार महार्णवस्य रुद्रस्य । मन्धनानां दहनं स ध्यायति भात्मानं शुद्धम् ।।
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( ११६ )
अर्थ- जो पुरुष अतिविस्तीर्ण ( अधिक चोड़ाई वाले ) संसार समुद्र से निकलने की इच्छा करे है वह पुरुष कर्म रुपी इन्धन को जलांन के लिये जैसे तैसे शुद्ध आत्मा को ध्यावे ।
सव्वे कसाय मुत्तं गारवमयराय दोस वामोहं । लोय विवहार विरदो अप्पा झाए झाणत्थो || २७ ॥ सर्वान् कषायान्मुक्त्वा गारवमदराग द्वेष व्यामोहम् । लोकव्यवहार विरतः आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ॥ समस्त क्रोधादिक कपायों को और वड़प्पन, मद, राग द्वेष व्यामोह अथवा पुत्र मित्र स्त्री समूह को छोड़कर लोकव्यबहार से विरक्त और आत्म ध्यान में स्थिर होता हुवा आत्मा को व्यावे ।
अर्थ
मिच्छत्तं अण्णाणं पात्रं पुण्णं चण्इ तिविण । मोणव्वएण जोई जोयच्छो जोयए अप्पा || २८ ॥
मिथ्यात्वमज्ञानं पापं पुण्यं च त्यक्त्वा त्रिविधेन । मौन व्रतेन योगी योगस्थो योजयति आत्मानम् ॥
अर्थ - योगी मुनीश्वर मिथ्यात्व अज्ञान पाप और पुण्य बन्ध के कारणा को मन बचन काय मे छोड़ि मौनव्रत धारण कर योग में ( ध्यान में ) स्थित होता हुवा आत्मा को ध्याव है।
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जं मया दिस्सरुवं तणजाणदि सव्वहा । गाणगं दिस्सदे तं तम्हा जयेमि केणहं ॥ २९ ॥ यन्मया दृश्यते रूपं तन्नजानाति सर्वथा ।
ज्ञायको दृश्यतेऽनन्तः तस्माज्जल्पामि केनाहम् ॥
अर्थ-जो रूप स्त्री पुत्र धनधान्यादिक का मुझे दीखे है मो मूर्तीक जड़ है तिसको सर्वथा शुद्धनिश्चय नय कर कोई नहीं जाने है और उन जड़ पदार्थों को में अमृतक अनन्त केवल ज्ञान स्वरुप वाला नहीं दीखू हूं फिर में किसके साथ वचना लाप करूं । भावार्थ । वार्ता लाप उसके साथ किया जाता है जो दीखता हो सुने और कई सो
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( ११७ )
मैं तो ज्ञानी अमूर्तिक वचन वर्गणा रहित हूं और ये स्त्री पुत्र शिष्य आदिकों का शरीर जो कि मुझे व्यवहार नय से दीखता है वह पुद्गल है मूर्तीक है तो इन से परस्पर कैसे वार्ता होसके इससे मौन धारण कर आत्म ध्यान करूंहूँ ।
सव्वा सव्वणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं । जायच्छो जाणए जोई जिण देवेण भासियं ॥ ३०॥ सर्वाश्रवनिरोधेन कर्म क्षिपति संचितम् ।
योगस्थो जानाति योगी जिनदेवेन भासितम् ॥
अर्थ — योग ( ध्यान ) में ठहरा हुवा शुक्ल ध्यानी साधु मिथ्या दर्शन अम्रत प्रमोद कषाय और योग ( मन वचन काय की प्रवृत्ति इन समस्त आश्रवों के निरोध होने से पूर्व संचय किय हुवे समस्त ज्ञानावरणादिक कर्मों का क्षय कर है और समस्त जानने वाले पदार्थों को जाने है एसा श्रीजिनेन्द्र देव ने कहा है ।
जो सुत्तो ववाहोरे सो जोई जग्गए सकज्जम्पि |
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥ ३१ ॥ यः सुप्तो व्यवहारे स योगी जागर्ति स्वकार्ये ।
यो जागर्ति व्यवहारे स सुप्तः आत्मनः कार्य ||
अर्थ – जो योगी व्यवहार में ( लौकिकाचार में ) सोता है। वह स्वकार्य में जागता है अर्थात् सावधान है और जायोगी व्यवहार में जागता है वह आत्मकार्य में सांता है।
इयजाणऊण जोई ववहारं चयइ सव्वा सव्व ।
झाइय परमप्पाणं जह भणियं जिणवरं देण ॥ ३२ ॥ इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् | ध्यायति पारमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रेण ॥
अर्थ - ऐसा जानकर योगी सर्वप्रकार से समस्त व्यवहार को छोड़े है और जैसा जिनेन्द्रदेव ने परमात्मा का स्वरूप कहा है उस स्वरूप को ध्यावे है ।
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( ११८ )
पंच महव्वय जुतो पंच समिदीसु तासु गुती । रयणत्तय संजुत्तो झाणं झयणं सया कुणह ॥ ३३ ॥ पञ्चमहाव्रत युक्तः पञ्च समितिषु तिस्टषु गुप्तिषु । रत्नत्रय संयुक्तयः ध्यानाऽध्ययनं सदा कुरु ||
अर्थ - भो भव्यो ? तुम पांच महाव्रतों के धारक होकर पांच समति और तीन गुप्ति में लीन होकर और रत्नत्रय कर संयुक्त होते हुवे ध्यान और अध्यायन सदाकाल करो ।
रयणत्तय माराह जीवो आराहओ मुणेयव्वो । आराहणा विहाणं तस्स फलं केवलं णाणं ॥ ३४ ॥ रत्नत्रय माराधयन् जीव आराधको मुनितव्यः । आराधना विधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम् ॥
अर्थ – जो रत्नत्रय को आराधे ( सेवें ) है वह आराधक है
ऐसा जानना और यही आराधना का विधान अर्थात सेवन करना है, तिसका फल केवल ज्ञान है ।
सिद्धो सुद्धो आदा सव्वराहू सव्च होय दरसीयं । सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुम केवलं जाणं ॥ ३५ ॥ सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्व लोक दर्शी च ।
स जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम् ॥
अर्थ - यह अत्मा सिद्ध है कर्म मलकर रहित होने से शुद्ध है सर्वश है और सर्वलोक अलोकको दखने वाला है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है इसी को तुम केवल ज्ञान जानो अर्थात अभेद विविक्षा कर आत्मा को केवल ज्ञान कहा है, ज्ञान और आत्मा के भिन्न प्रदेश नहीं हैं जो आत्मा है सोही ज्ञान है और जो ज्ञान है सोई आत्मा है । रयणत्तयपि जोई आराहइ जोहु जिणवर मएण ।
सो झायाद अप्पाणं परिहरदि परं ण संदेहो ।। ३६ ।। रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन । स ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः |
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( ११९ )
अर्थ -- जो योगी जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार रजश्य को आराध है वह आत्मा को ही ध्यावे है और पर पदार्थों को छोड़े है इसमें सन्देह नहीं है ।
जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपाचाणं || ३७ ॥ यज्जानाति तद् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् । तच्चारित्रं भणितं परिहारः पुण्य पापानाम् ॥
अर्थ - जो आत्मा जाने है सो शान, और जो देखे है सो दर्शन है, और वही आत्मा चारित्र है जो पुण्य और पाप को दूर करे है |
तच्च रुई सम्मत्तं तच्च गाणणं च हवइ स ण्णणं । चारितं परिहारो पयंपियं जिणवरिं देहिं ॥ ३८ ॥ तत्वरुचैिः सम्यकूत्वं तत्वग्रहणं च भवति सञ्ज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पित जिनवरेन्द्रैः ||
अर्थ - जीवादिक तत्वों में जो रुचि है सो सम्यक्त्व है, तत्वों का आनना सो सम्यग् ज्ञान है और पुण्य पाप का छोड़ना सो चारित्र है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
दंसण सुद्धो सुद्धो दंसण सुद्धो लहेइ णिव्वाणं ।
दंसण विहीण पुरुसो ण लहइ इच्छियं लाहं ॥ ३९ ॥ दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् । दर्शनेविहीनः पुरुषः न लभते इष्टं लाभम् ॥
अर्थ --- जो सम्यग् दर्शन से शुद्ध है वही आत्मा शुद्ध है, क्योंकि दर्शन शुद्ध आत्मा हों निर्वाण का पावे है और जो दर्शन रहित पुरुष है वह इष्ट ( अनन्त सुखमयी ) लाभ को नहीं पावें है ।
इय उवए संसारं जरमरण हरं खु मण्णए जंतु । तं सम्यत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि ॥ ४० ॥
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( १२० )
इति उपदेशसारं जन्ममरणहरं स्फुटं मन्यते यंतु । तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणाणं सावयाणं पि ॥ अर्थ - - -- यह उपदेश साररूप है जन्ममरण के हरने वाला है जो इसको माने है श्रद्धे है सोही सम्यक्त्व है यह सम्यक्त्व मुनियों को श्रावकों को तथा अन्य सर्वही जीवमात्र के वास्ते कहा है । जीवाजीव विहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएण ।
तं सण्णाणं भणियं अवियच्छं सव्वदरसीहिं ॥ ४१ ॥ जीवाजीव विभक्ति योगी जानाति जिनवरमतेन । तत् संज्ञानं भणितम् अवितथं सर्वदर्शिभिः ||
अर्थ - योगी जिनेन्द्र की आज्ञा के अनुकूल जीव और अजीव के भेद को जाने है यही सत्यार्थ सम्यग ज्ञान सर्वशंदव ने कहा है ।
जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपाचाणं । तं चारितं भणियं अवियप्पं कम्मरहिए ।। ४२ ।। यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम् । तत् चारित्रं भणितम् अविकल्पं कर्म्मरहितेन ||
अर्थ – जो मुनि भेदज्ञान को जानकर पुण्य पाप को छोड़े है सोई अविकल्प (संकल्प विकल्प रहित - यथाख्यात) चरित्र हैं ऐसा कर्मों कर रहित श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है ।
जो रयणत्तय जुत्तो कुणइ तवं संजदो ससतीए । सो पावर परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ॥ ४३ ॥ यो रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या । स प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम् ॥
अर्थ – जो रत्नत्रय सहित संयमी मुनि अपनी शक्ति अनुसार तप करे है वह शुद्ध आत्मा को ध्याता हुआ परम पद [ मोक्ष ] को पावे है।
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( १२१ )
तिहितिणि धरविणिचं तियरहिओ तहतिएण परियरिओ । दो दोसविमुको परमप्पा झायए जोई ॥ ४४ ॥
मैं
त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिकलितः । द्विदोष विप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी |
अर्थ
[-मन वचन काम कर तीनों ( वर्षा शीत उष्ण ) कालों सदा काल तीनों शल्यों ( माया मिथ्या निदान ) को छोड़ता हुआ और तीनों (दर्शन ज्ञान चरित) कर संयुक्त होकर दो दोषों ( रागद्वेष ) से छूटा हुवा योगी परमात्मा को ध्यावे हैं ।
मयमाय कोहरहिओ लोहेण विवर्जिओ य जो जीवो । जिम्मल सभावजुतो सो पावइ उत्तमं सौक्खं ॥ ४५ ॥
मदमाया क्रोध रहितः लोभेन विवर्जितश्च यो जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः स प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ||
अर्थ - जो जीव मद (मान) मायाचार क्रोध और लोभ से रहित है और निर्मल स्वभाव वाला है सोही उत्तम सुख को पावे है । विसय कसायेहि जुदो रुद्दोपरमध्य भावरडिय मणो । सोण कहहि सिद्धसुहं जिनमुद्द परम्मुडो जीवो ॥। ४६ ।।
बिषय काषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्म भावरहित मनाः । स न लभते सिद्धसुखं जिनमुद्रा पराङ्मुखो जीवः ॥
अर्थ – जो विषय और कषायों से सहित है और परमात्मा की भावना से रहित है मन जिसका और जिनमुद्रा (दिगम्बर भेष ) से विमुख है ऐसा रुद्र सिद्ध सुख को नहीं पावे हैं ।
reमुद्दे सिद्धि हवेई नियमेण जिणवरुद्दिद्वा । सिविणेषिणु रुच्चइपुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥ ४७ ॥ जिनमुद्रा सिद्धसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा । स्वमपि न रोचते पुनः जीवा तिष्ठन्ति भवगइने ||
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( १२२ )
अर्थ - जिन मुद्रा अर्थात दिगम्बर ही नियम कर मोक्ष सुख है यहां कारण में कार्य का उपचार कहां है अर्थात जिन मुद्रा के धारण करने से मोक्ष का सुख मिलता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा हैं, जिसको यह जिनमुद्रा स्वप्न में भी नहीं रुचे है वह पुरुष संसार रूपी बनही रहे हैं । अर्थात् जिसको जिन मुद्रा से कुछ भी प्रीत नहीं है वह संसार से पार नहीं हो सकता ।
परमप्पय झायंतो नोई मुच्चे मलदलोहेण ।
नादियदि वं कम्पं णिद्दिहं जिणवरिंदेहिं ॥ ४८|| परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलद लोभेन । नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः ||
अर्थ
--परमात्मा के ध्यान करने वाला योगि पापों के उत्पन्न करने वाले लाभ से छूट जाता है इसी से उसके नवीन कर्मबन्ध नहीं होता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ।
होऊण दिढ चरित्तो दिढ सम्मत्तेण भाविय मदीओ ! झायंतो अप्पाणं परमपयं पात्रए जोई ।। ४९ ।।
भूत्वा दृढ़चरित्रः दृदुसम्यक्त्वेन भावितमतिः । ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ।।
अर्थ - जो योगी दृढ़ सम्यक्त्वी और दृढ़ चारित्रवान् होकर आत्मा को ध्यावे है वह परमपद को पावे है ।
चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सोहवइ अप्पसमभावो । सोणारोस रहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥ ५० ॥ चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः स भवति आत्मसमभावः । स रागरोष रहितः जीवस्य अनन्य परिणामः ||
अर्थ – चारित्र ही आत्मा का धर्म है वह धर्म सर्व जीवों में समभाव स्वरुप है और वह समभाव रागद्वेष रहित है यही जीव का अनन्य ( एकस्वरूप - अभिन्न ) परिणाम है !
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( १२३ ) जह फलिहमणिविसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अण्णण्णविहो ।। ५१॥
यथा म्फटिकमणिविशुद्धः परद्रव्यजुतो भवति अन्यादृशः। तथा रागादिवियुक्तः जीवो भवति स्फुटमन्योन्य विधः ॥
अर्थ-जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है परन्तु हरित पीत नील मादि पर द्रव्य के संयुक्त होने से अन्यरूप अर्थात हरित नील आदि के रूप वाली होजाती है तैसे ही रागादि परिणामों से सहित आत्मा भी अन्य अन्य प्रकार का होजाता है।
भावार्थ-जैसे स्फटिकमणि में नील डाक लगने से वह नील होजाती है और पीत से पीत तथा हरित से हरित होजाती है तैसे ही आत्मा स्त्री में गग रूप होने स रागी और शत्रु में द्वेष करन से दुषी तथा पुत्र में माह करने से माही होता है।
देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजदेसु अणुरत्तो । सम्मत्त मुव्वहंतो झाणरओ हवदि जोई सो ।। ५२ ॥
देवगुरौ च भक्तः साधर्मिक संयतेषु अनुरक्तः । सम्यक्त्व मुहहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥
अर्थ-जा देव गुरु का भक्त है तथा साधर्मी मुनियों से वात्मल्य अर्थात प्राति कर है और सम्यक्त्व को धारण कर है साई योगी ध्यान में रत होता है।
भावार्थ-जिम गुण म जिमकी प्रीति होती है उस गुण वाल से उमकी अवश्य प्रीति होती है, जो मिद्ध ( मुक्त) होना चाहता है उसकी प्रीति ( भक्ति) मिद्धों में तथा सिद्ध होने वाला में और सिद्धा के भक्तों में अवश्य होगी।
उग्ग तवण्णण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहिं वहुएहिं । तं गाणी तिहिगुत्तो खवेइ अंतो मुहुरोण ॥ ५३॥
उग्रतपसाऽज्ञानी यत्कर्म क्षपयति भवैर्वहुभिः । सत् ज्ञानी त्रिभिगुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्तेन ॥
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( १२४ ) अर्थ-अज्ञानी पुरुष अनेक भव में उम्र (तीव्र ) तपश्चरण से जितने कर्मों को क्षय करता है हानी पुरुष उतने कर्मों को तीनों गुप्तिकर अन्तर्मुहूर्त में भय कर देता है।
मुभ जोगेण मुभावं परदव्वे कुणइ राग दोसाहू । सो तेणदु अण्णाणी गाणी एत्तो दुविपरी दो ॥५४॥
शुभ योगेन सुभावं पर द्रव्ये करोति राग द्वेषौ स्फुटम् ।
स तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्माहिपरीतः॥
अर्थ--जो योगी मनोज इष्ट प्रिय वनितादिक में प्रीति भाव करे है और पर द्रव्यों में राग द्वेष करे है वह साधु अज्ञानी और जो इससे विपरीत है अर्थात रोग द्वेष रहित है वह हानी है।
आसव हेद्य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवाद । सो तेण दु अण्णाणी आदसहावस्स विचरी दो ॥ ५५ ॥
भाश्रव हेतुश्च तथा भावं मोक्षस्य कारणं भवति ।
स तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ।। अर्थ-जैसे इष्ट वनितादि विषयों में किया हुआ राग आश्रव का कारण है तैसे ही निर्विकल्प समाधि के विना मोक्ष सम्बन्धी भी राग आश्रय का कारण है इसी से मोक्ष को इष्ट मानकर उसमें राग करने वाला भी अज्ञानी है क्योंकि वह आत्म स्वभाव से विपरीत है अर्थात वह आत्म स्वभाव का शाता नहीं है।
जो कम्म जादमइओ सहाव णाणस्स खंट दोसयरो। सो तेण दु अज्ञानी जिण सासण दूसगो भणि ओ ॥५६॥ ___ यः कर्म जात मतिकः स्वभाव ज्ञानस्य खण्ड दोष करः ।
स तेन तु अज्ञानी जिनशासन दूषको मणितः ॥ अर्थ--इन्द्रिय अनिन्द्रिय (मन) अनित ही शान है जो पुरुष ऐसा माने है वह स्वभाव ज्ञान (केवल शान) को खण्ड शान से दूषित कर है। इसी से बह अक्षानी है जिन आशा का दृषक है ।
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( १२५ ) णाणं चारितहीणं दसणहीणं तवण संजुत्तं । अण्णेमु भाव रहियं लिंगगहणेण कि सौक्खं ॥५७॥ ज्ञानं चारित्र हीनं दर्शन हीनं तपोभिः संयुक्तम् ।
अन्येषु भावरहितं लिङ्ग ग्रहणेन किं सौख्यम् ।
अर्थ-जहां चारित्र हीन तो भान है यद्यपि तपकर सहित है परन्तु सम्यगदर्शन कर हीन है तथा अन्य धर्म क्रियाओं में भी भाव रहित है ऐसे लिङ्ग अर्थात मुनि वंश धारण करने से क्या सुख है ? अर्थात मोक्ष सुख नहीं होता।
अचेयणम्मि चेदा जोमण्णइ सो हवेइ अण्णाणी । सो पुण णाणी भणिओ जो भण्णइ चेयणो चेदा ॥५८॥
अचेतने चेतयितारं यो मनुते स भवति अज्ञानी । स पुन ज्ञानी भणितः यो मनुते चेतने चेतयितारम् ॥
अर्थ-जो अचेतन में चेतन माने है सो अज्ञानी है। वह शानी है जो चेतन में ही चेतन मान है।
तव रहियं जं गाणं णाण विजुत्तो तओवि अकयत्यो । तम्हा णाण तवेण संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥ ५९॥ तपो रहितं यत् ज्ञानं ज्ञान वियुक्तं तपोपि अकृतार्थः ।
तस्मात् ज्ञान तपसा संयुक्तः लभते निर्वाणाम् ।।
अर्थ-जो तप रहित शान है वह निरर्थक व्यर्थ है तैसे ही ज्ञान रहित तप भी व्यर्थ है इससे ज्ञान सहित और तप सहित जो पुरुष है वही निर्वाण को पावे है।
धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाण जुदा करेइ तब यरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं गाण जुत्तोचि ॥६०॥
ध्रुवसिद्धिस्तीर्थकर चतुष्क ज्ञान युतः करोति तपश्चरणम् । ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञान युक्तोपि ।। अर्थ-चार मान ( मति शान श्रुत शान अवधि शान और
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मनः पर्यय ज्ञान ) के धारी श्री तीर्थंकर परम देव भी तपश्चरण को करै हैं एसा निश्चय स्वरूप जान कर शान सहित होते हुवे भी तपश्चरण को करो।
भावार्थ ~बहुत से पुरुष स्वाध्याय करने से तथा व्याकरण तर्क साहित्य सिद्धान्तादिक के पटन मात्र ही मे मिद्धि समझ लेते हैं उनके प्रबोध के लिये यह उपदेश है कि द्वादशांग के शाता और मन पर्यय झान कर भूषित तथा मति ज्ञान और अवधि शान धारी श्री तीर्थंकर भी वेला तला आदि उपवास कर के ही कर्म को भस्म करे हैं इससे शानवान पुरुष व्रत तप उपवासादि अवश्य करें।
वाहरलिंगेणजुदो अब्भंतर लिंगरहित परियम्मो । सो सगचरित्तभट्टो मोक्त्वपहविणासगो साहू ।। ६१ ॥ वहिलिङ्गेनयुतः अभ्यन्तरलिङ्गरहित परिका ।
स स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः ॥ अर्थ-जो वाह्य लिङ्ग ( नग्नमुद्रा ) कर महित है और जिसका चारित्र आत्मस्वरूप की भावना म हित है वह अपन आत्मीक चरित्र से भ्रष्ट है और मोक्षमार्ग को नष्ट कर है
सुहेण भाविदंणाणं दुक्खे जादे विणस्सदि । तम्हा जहावलं जोई अप्पा दुक्खेहिं भावह ।। ६२ ॥ सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति ।
तस्माद् यथावलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत् ॥
अथ-सुखकर (नित्यभोजनादिक कर ) भावित किया हुवा शान दुःख आन पर ( भाजनादिक न मिलन पर ) नष्ट होजाता है इससे योगी यथा शक्ति आत्मा को दुःखा कर (उपवासादिक कर) अनुवासित करे अर्थात् तपश्चरण करें ।
आहारासणणिद्दा जयं च काऊण जिणवर मएण । झायव्बो णियअप्पा णाऊण गुरुवएसेण ॥ ६३ ॥
आहारासननिद्रा जयं च कृत्वा जिनवर मतेन । ध्यातव्यो निजात्मा ज्ञात्वा गुरु प्रशादेन ॥
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अर्थ----आहार जय (कम से माहार को घटाना और वेला तेला पक्षांपवास मासोपवास आदि करना) आसनजय (पद्मासनादिक से २१४६ घड़ी वा दिन पक्ष मास वर्ष तक तिष्टा रहना) निद्राजय (एक पसवाड़ साना एक प्रहर सोना न साना)इनका अभ्यास जिनेश्वर की आशानुसार करकं गुरु के प्रशाद से आत्मस्वरूप को जान कर निज आत्मा को ध्यावा।
अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा । सो झायबो णिच्चं णाऊण गुरुपसाएण ॥ ६४ ॥ __ आत्मा चरित्रवान् दर्शन ज्ञानेन संयुतः आत्मा । __स ध्यातव्यो नित्यं ज्ञात्वा गुरु प्रसादेन ॥
अर्थ--आत्मा चारित्रवान है आत्मा दर्शन ज्ञान सहित है ऐसा जान कर वह आत्मानित्य ही गुरु प्रशाद स ध्यावने योग्य है।
दुक्खेण जइ अप्पा अप्पाणाऊण भावणा दुक्खं । भाविय सहाव पुरिसो विसएसु विरच्चए दुक्खं ॥६५॥
दुःखन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् । भावित स्वभाव पुरुषो विषयेषु विरच्यते दुःखम् ।।
अर्थ-बड़ी कठिनता से आत्मा जाना जात है और आत्मा को जानकर उसकी भावना ( अर्थात आत्मा का वारवार अनुभव ) करना कठिन है और आत्म स्वभाव की भावना होने पर भी विषयों ( भोगादि ) से विरक्त होना अत्यन्त कठिन है।
ता मणणजइ अप्पा विसएसु णरोपवदए जाम । विसए विरत्त चित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ॥६६॥
तावत् न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् । विषय विरक्त चितः योगी जानाति आत्मानम् ॥
अर्थ--जब तक यह पुरुष विषयों में प्रवते है तब तक आत्मा को नहीं जाने है । जो योगी विषयों से विरक्त चित्त है वही आत्मा को जान है।
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( १२८ )
अप्पा गाऊण णरा केई सम्भाव भावयभट्टा । हिंडंति चाउरंगं विसएस विमूहया मूढा ||६७॥
आत्मा ज्ञात्वा नराः केचित्स्वभाव भाव प्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरङ्गे विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ अर्थ - आत्मा को जान कर भी आत्मस्वभाव की भावना से अत्यन्त भ्रष्ट होते हुवे विषयों में मोहित हुवे अज्ञानी जीव चतुर्गति संसार में भ्रम हैं ।
भवार्थ - आत्मा को जान कर विषयों से विरक्त होना चाहिये । जे पुण विसय विरत्ता अप्पाणऊण भावणा सहिया । छडंति चाउरंगं तव गुण जुत्ता ण संदेहो ||६८ ||
ये पुनः विषय विरक्ता आत्मानं ज्ञात्वा भावना सहिताः । त्यजन्ति चातुरङ्गं तपोगुण युक्ता न सन्देहः ||
अर्थ — जेनिकट भव्य विषयों से विरक्त हैं आत्मा को जान
-
कर आत्म भावना करें हैं ते द्वादश तप २८ मूल गुण तथा उत्तर गुणसहित होते हुवे अवश्यं चतुर्गति संसार को छोड़े हैं इसमे सन्देह नहीं ।
परमाणु पमाणं वा परदव्वे राद हवेदि मोहादो ।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो || ६९ ॥ परमाणुं प्रमाणं वा परद्रव्ये रति भवेति मोहात् । स मूढ अज्ञानी आत्म स्वभावाद्विपरीतः ॥
अर्थ -- जिसकी पर द्रव्यों में परमाणु मात्र ( किंचित् ) भी मोह से रति ( प्रीति ) है वह मूढ़ अज्ञानी आत्म स्वभाव से विपत है।
अप्पा सायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचारिताण ।
होदि धुवं णिव्वाणं विसऐसु विरत्त चित्ताणं ॥ ७० ॥ आत्मानं ध्यायतां दर्शन शुद्धीनां दृढ चारित्राणाम् । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम् ॥
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( १२९ )
अर्थ - चल मलिन और अगाढ़ता रहित है सम्यग्दर्शन जिन का वृह्मचर्यादिक चारित्र में दृढ ( स्थित ) है विषयों से विरक्त है चित्त जिनका ऐसे शुद्ध आत्मा के ध्यान करने वाले को अवश्य निर्वाण हांव है |
जेण रागो परे दब्बे संसारस्सहि कारणं ।
तेण वि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पेसु भावणा ॥ ७१ ॥ येन रागः परे द्रव्ये संसारस्यहि कारणम् ।
तेनापि योगी नित्यं कुर्य्यादात्मसु भावनाम् ॥
अर्थ - परद्रव्यों में राग का करना संसार का ही कारण है
इससे योगीश्वर नित्यही आत्मा में भावना करें।
दिए य पसंसार दुक्खे य सुहएमु य ।
सत्तूणं चैव बन्धूणं चारित्तं सम भावदो ॥ ७२ ॥ निन्दायां च प्रसंसायां दुःखे च सुखेषु च ।
शत्रूणां चैव बन्धूणां चरित्रं समभावतः ||
अर्थ-निन्दा और प्रसमा में तथा दुःख और मुखों के प्राप्त होने
पर तथा शत्रु और मित्रों के मिलन पर समता ( द्वेष और राग का न होना ) भाव होने से सम्यक चारित्र ( यथाख्यात चारित्र ) होता है।
चरिया बरिया पदसमिदि वज्जिया सुद्ध भाव पव्भट्टा । कई जंपति राहु कालो झाण जोयस्स ||१३|| चर्या वरिका व्रतसमिति वर्त्तितो शुद्ध भाव प्रभ्रष्टाः केचित जल्पन्ति नराः नहिं कालो ध्यान योगस्य ॥
अर्थ-चर्या अर्थात् आचार के रोकनेवाले, व्रत और समिति से
रहित और आत्मीक शुद्ध भावों से भ्रष्ट ऐसे कई एक पुरुष कहते हैं किं यह काल ध्यान करने योग्य नहीं हैं ।
सम्मत्त णाणरहिओ अभव्वजीवोहि मोक्खपरिमुको । संसारसुहेमुरदो हु कालो हवइ झाणस || ७४ ॥
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( १३० ) सम्यक्त्वज्ञान रहितः अभव्यनीयोहि मोक्षपरिमुक्तः
संसारमुखेमुरतः नहि कालो भवति ध्यानस्य ।। अर्थ-सम्यक्त और शान कर रहित अभव्यजीवात्मा मोक्ष रहित संसार के सुख में अत्यन्त प्रीतिवान हैं ऐसे पुरुष कहते हैं कि यह ध्यान का काल नहीं है ॥
पंचसु पहव्वदेसुय पंचसपिदीसु तीमुगुत्तीसु । जो मूढो अराणाणी णहु कालो भणइ झाणस्स ।। ७५ ॥ पञ्चसु महाव्रतेषु च पश्चसमितिषु तिसृषु गुप्तिषुः
यो मूढः अज्ञानी नहिं कालो भणति ध्यानस्य ॥ अर्थ-जो पांच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति से अनजान है वह ऐसा कहते हैं कि यह काल ध्यान का नहीं है।
भरहे दुक्खमकाले धम्म ज्झाणं हवेइ साहुस्स । सं अप्प सहावहिदे णहु मण्णइ सोचि अण्णाणी ।। ७६ ॥ __ मरते दुःखम काले धर्मध्यानं भवति साधोः
तद आत्मस्वभावस्थिते नहिं मन्यते सोपि अज्ञानी ॥
अर्थ-इस पंचम काल में भारत वर्ष में आत्मस्वभाव में स्थित जो साधु हैं तिनके धर्म म्यान होता है जो इसको नहीं मानते हैं सो अशानी हैं।
अजवितिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं । कोयंतियदेवत्तं तच्छ चुया णिबुदिं जंति ॥ ७७ ॥
अद्यापि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानंध्यात्वा लभन्ते इंद्रत्वम् लोकान्तिक देवत्वं तस्मात् च्युत्वा निर्वाण यान्ति ॥
अर्थ-अब भी इस पंचम काल में साधुजन सम्यक् दर्शन सम्यगज्ञान सम्यकचारित्र रूप रत्नों से निर्दोष होते हुवे आत्मा को ध्याय कर इन्द्रपद को पाते हैं केई लौकान्तिक देव होते हैं और वहां से चय कर पुनः निर्वाण को पावे हैं ।
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नेपावमोडियमई लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं । पावं कुणति पावा ते चत्ता मोक्रसमग्गम्मि ।। ७८ ॥
ये पापमोहितमतयः लिङ्गं ग्रहत्विा जिनवरन्द्राणाम्ः पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥
अथे-पाप कार्यों कर मोहित है बुद्धि जिनकी ऐसे जे पुरुष जिनलिंङ्ग (नग्नमुद्रा) को धारण करके भी पाप करते हैं ते पापी मोक्ष मार्ग से पतित हैं।
जे पंचचेलसत्ता गंथमाहीय जाणांसीला। आधाकम्पम्मिरया ते चत्ता मोक्ख मग्गाम्मि ॥ ७९ ॥
ये पञ्चचेलशक्ताः ग्रन्थ ग्राहिणः याचनशीलाः ___ अधः कर्मणिरताः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥
अर्थ-जे पांच प्रकार में से किसी प्रकार के भी वस्त्रों में आसक्त हैं अर्थात् रेशम वक्कल चर्म रोम सूत के वस्त्र को पहनते हैं परिग्रह सहित हैं, याचना करने वाले हैं अर्थात् भोजन आदिक मांगते हैं और नीचकार्य में तत्पर है वे मोक्ष मार्ग से भ्रष्ट है ।
णिग्गंथमोहमुक्का वावीसपरीसहा जियकसाया । पावारंभ विमुक्का ते गहियामाक्खमग्गम्मि ॥ ८० ॥ निर्ग्रन्था मोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहा जितकषायाः ।
पापारम्भ विमुक्ता ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥
अर्थ-जे परिग्रह रहित हैं पुत्र मित्र कलित्रादिको से मोह ( ममत्व ) रहित हैं वाइस परीषहाओं को सहने वाले हैं जीत लिये हैं कषाय जिन्होंने और पापकारी आरम्भा से रहित है वे मोक्षमार्ग में गृहीत है अर्थात वे मोक्षमार्गी हैं।
ऊद्धद्धमझलोए केई मज्झण अहयमेगगी।। इय भावणांए जोई पावंतिहु सासयं सोक्खं ।। ८१ ॥ उर्वार्धमध्य लोके केचित् मम न अहकमेकाकी । इति भावनया योगिनः प्राप्नुवन्ति म्फुटं शाम्वतं सौख्यम् ।
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( १३२ ) अर्थ-जे योगीश्वर ऐसी भावना कि मेरा उध्वंलोक अधोलोक तथा मध्यलोक में कोई भी नहीं है में अकेलाही हूं वह शास्वत मुख अर्थात मोक्ष को पावे हैं
देवगुरुणं भत्ता णिव्बेय परंपरा विचिंतता । झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ।। ८२ ॥
देवगुरूणां भक्ताः निर्वेद परम्परा विचिन्तयन्तः ।
ध्यानरता सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥ अर्थ-जे अष्टादश १८ दोप रहित गुरु और २८ मूलगुण धारक गुरु के भक्त हैं निर्वद ( मंमार देह भोगों से विरागता ) की परम्परा रूप उपदश की विशेषता से विचारते हैं, ध्यान में तत्पर हैं और उत्तम चारित्र के धारक हैं तं मोक्षमार्गी हैं।
णिच्छय णयस्स एवं अप्पा अप्यम्मि अप्पणेसुरदो। सो होदिहु सुचरित्ता जोई सो लहइणिव्वाणं ।। ८३ ॥ निश्चयनयस्यैवम् आत्माऽऽत्मनि आत्मनेसुरतः ।
सो भवति स्फुट सुचरित्रः योगी सो लभते निवाणम् ।।
अर्थ-निश्चयनयका ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में ही लीन होता है वही आत्मा उत्तम चारित्रवान् योगी निर्वाण को पाव है।
पुरुसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसण समग्गो । जो झायदि सोयोई पावहरो हवदिणिद्दट्ठो ॥ ८४ ॥ पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शन समग्रः । योध्यायति स योगी पापहरो भवति निर्द्वन्द्वः ।। अर्थ-पुरुष के आकार के समान है आकार जिसका ऐसा आत्मा उत्तम ज्ञान दर्शन कर पूर्ण और मन वचन, काय के योगों का निरांध करने वाला जो आत्मा को ध्यावे है वह योगी है पापों का नाश करने वाला है और निद्वन्द ( रागद्वेषादि रहित) होजाता है।
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( १३३ ) एवं जिणेण कहियं सवणाणं सावयाणपुणसुणसु । संसार विणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥ ८५ ॥
एवं जिनेन कथितं श्रमणानां श्रावकानां पुनः शृणु ।
संसार विनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमम् ॥ अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्र देवने मुनियों को उपदेश कहा है अब श्रावकों के लिये कहते हैं सो सुनो यह उपदेश संसार का नाश करने वाला और सिद्धि के करने वाला उत्कृष्ट कारण है।
गहिऊणय सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव निकंपं । तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खय हाए । ८६ ॥
ग्रहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिमलं सुरगिरेरिव निकम्यम् । तद ध्याने व्यायति श्रावक दुःखक्षयार्थे ।
अर्थ---भो श्रावको ! सुमेरु पर्वत के समान निष्कम्प (निश्चल ) होकर निरतीचार सम्यग्दर्शन का ग्रहण कर उसी दर्शन को दुःखों का क्षय करने वाले ध्यान में ध्यावो ।
सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो। सम्मत्त परिणदो पुण खवेइ दुट्ट कम्माणि ।। ८७॥
सम्क्त्वं यो ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति स जविः ।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥ अर्थ-जो जीव सम्यक्त्व को ध्यावे है सोई जीव सम्यग्दृष्टि है और वही (जीव) सम्यग्दर्शन रूप परणमता हुवा दुष्ट जेबानावरणादिक अष्टकर्म तिन का नाश करै है।
किं वहुणा भणिएण जे सिद्धाणरवरा गए काले । सिझहि जेवि भाविया तं जाणह सम्ममाहाप्पं ॥८८॥
कि वहुना भणितेन ये सिद्धा नर वरागते काले । सेत्स्यति येऽपि भव्याः तज्जानीत सभ्यक्त्व माहात्म्यम् ।। अर्थ-बहुत कहने कर क्या जे ( जितना) भव्य पुरुष अतात
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( १३४ ) काल में सिद्ध हुवे हैं और जे आगामि काल में सिद्ध होगे वह सर्व सम्यक्त्व का महत्व जानो।
भावार्थ-सम्यग्दर्शन मोक्ष का प्रधान कारण है, वह सम्यग्दर्शन ग्रहस्थ श्रावाको मैं भी होता है इससे ग्रहस्थ धर्म भी मोक्ष का कारण जानो।
ते धण्णा सुकयच्छा तेसूरा तेवि पंडिया मणुया। सम्मत्तं सिद्धियरं सिवणेवि ण मइलियं जेहि ॥८९॥
ते धन्याः सुकृतस्थाः ते शूरा तेपि पण्डिता मनुजाः । सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेपि न मलितं यः ॥ अर्थ-ते ही पुरुष धन्य हैं तेही पुण्यवान हैं तेही सूरिमा हैं और पण्डित हैं जिन्होंने स्वप्न में भी सर्व सिद्धि करने वाले सम्यक्त्व को दूषित नहीं किया है।
हिंसा रहिए धम्मे अट्ठारसदोस वज्जिए देवे । णिग्गंथेप्पवयणे सद्दहणं होदि सम्मत्तं ॥१०॥
हिंसारहिते धर्मे अष्टादश दोष वर्जिते देवे । निम्रन्थे प्रवचने श्राद्दधनं भवति सम्यक्त्वम् । अर्थ-हिंसा रहित धर्म, क्षुधादिक अठारह दोष रहित देव और निर्ग्रन्थ अर्थात् दिगम्बर मुनि और प्रवचन अर्थात् जिनबाणी में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
जह जायरूव रुवं सुसंजयं सव्व संगपरिचत्तं । लिंगं ण वरा वेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥११॥ __ यथा जातरूपं रुपं सुसंयतं सर्व संग परित्यक्तम् ।
लिङ्गं न परापेक्षं यःमन्यते तस्य सम्यक्त्वम् ।।
अर्थ-मोक्ष मार्गी साधुवों का लिङ्ग (भेश ) यथा जातरुप है अर्थात् जैसे बालक माता के गर्भ से निकला हुआ बालक निर्विकार होता है तैसे निर्विकार है। उत्तम है सयम जिसमें, समस्त परिग्रह रहित है, जिसमें पर वस्तु की इच्छा नहीं हैं ऐसे स्वरुप को जो माने है तिसके सम्यक्त्व होता है।
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कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छिय लिंगंच वंदए जोदु । लज्जा भयगारवदो मिच्छादिट्टी हवे सोहु ॥१२॥
कुत्सितदेव धर्म कुत्सितलिङ्गं च वन्दते यस्तु । लज्जा भय गारवतः मिथ्यादृष्टि भवेत् सस्फुटम् ॥ अर्थ-खोटेदेव (रागीद्वेषी ) खोटा धर्म (हिंसामयी ) और खोटे लिङ्ग (परिग्रही गुरु ) को लज्जा कर भयकर अथवा वडप्पन कर जो वन्दे हैं नमस्कार करें हैं ते मिथ्यादृष्टि जानने।
सवरावेक्खं लिंग राईदेवं असंजयं वंदे । माणइ मिच्छादिट्टी णहुमाणइ सुद्ध सम्मत्तो ॥१३॥
स्वपरापेक्षं लिङ्ग रागिदेवम् असंयतं वन्दे । __ मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्त्वः ॥
अर्थ-स्वापेक्ष लिङ्ग को ( अपने प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ अथवा स्त्री सहित होकर साधु वेश धारण करने वाले को ) और परापक्षलिङ्ग (जो किसी की जबरदस्ती से वा माता पितादि के चढ़ाने स वा राजा के भय से साधु हो जाव) को में वन्दना करता हूँ तथा रागीदेवों का में बन्दू हूं अथवा समय रहित (हिंसक) देवताओं) को वन्दना करु हूं ऐसा कहकर तिन को माने है सो मिथ्यादृष्टि है । जो एसे को नहीं मानता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टी है।
सम्माइट्टीसावय धम्मं जिणदेव देसियं कुणदि । विपरीयं कुव्वंतो मिच्छादिडी मुणेयव्वो ॥१४॥
सन्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदोशतं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ।।
अर्थ-भो श्रावको ! जो जिनेन्द्र देव के उपदेशे हुवे धर्मको पालता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो अन्य धर्म को पालता है सो मिथ्या दृष्टी जानना।
मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजर परणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥९५।।
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( १३६ )
मिथ्यादृष्टिः यः स संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरण प्रचुरे दुःखसह श्राकुले जीवः ||
अर्थ -- जो मिथ्या दृष्टि प्राणी हैं वह जन्म जरा और मरण की अधिकता वाले इस चतुर्गति रूप संसार में सुखरात भ्रम हैं और वह संसार हज़ारो दुःख से परिपूर्ण है ।
सम्मगुण मिच्छ दोसो मणेण परि भाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्च किं वहुणा पलवि एणंतु ॥ ९६ ॥ सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत्कुरु । यत्ते मनसि रोचते किंबहुना प्रलपितेन तु ॥
अर्थ - भो भव्य ! सम्यग्दर्शन तो गुण अर्थात् उपकारी है और मिथ्यात्व दोष है, ऐसा विचार करो पीछे जो तुम्हारे मन में रुच तिसको ग्रहण करो बहुत बोलने से क्या ।
वाहिर संग विमुको विमुको मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाण मौणं णवि जाणदि अप्प सम भाव ॥९७॥ वाह्य संग विमुक्त. न विमुक्तः मिथ्या भावेन निर्ग्रन्थ. | किं तस्य स्थानं मौनं नापि जानाति आत्मसम भावम् ॥
नहीं
अर्थ - जो वाह्य परिग्रह से रहित है परन्तु मिथ्यात्व भावों से छूटा है उस निर्ग्रन्थ वैषवारी के कायोत्सर्ग और मौन व्रत कर ने से क्या साध्य है अर्थात् कुछ भी नहीं वह आत्मा के समभाव को वीतराग भाव को ) नहीं जाने है ।
-
भावार्थ – विना अन्तरङ्ग सम्यक्त्व कोई भी वाह्य क्रिया कार्यकारी नहीं ।
मूल गुणं छितूणय बाहिर कम्मं करेइ जो साहु |
सोलह सिहं, जिण लिंग विराधगो णिच्चं ॥ ९८ ॥ मूलगुणं छित्वा बाह्य कर्म करोति यः साधुः ।
स न लभते सिद्धिमुखं जिनलिङ्ग विराधकः नित्यम् ॥
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( १३७ ) अर्थ- जो साधु अट्ठाईस मूल गुणों का छेदन करके अन्य वाह्य कर्म करे हैं सो पिद्धसुख को नहीं पावे हैं किंतु वह सदाकाल जिनलिङ्ग की विराधना अर्थात् बदनामी करने वाला है।
किं कदादि वहिकम्म कि काहदि बहाविहंच खवणंच। किं काहिदि आदावं आद सहावस्म विवरीदो ॥९९।।
किं करिष्यति वाह्यकर्म किं करिप्यति बहुविधं च क्षपणंच । ___ किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावस्य विपरीतः ।।
अर्थ-आत्मीक स्वभाव दर्शन शान क्षमादि स्वरूप से विपरीत अज्ञान मोह कषादि सहित वाह्य कर्म क्या कुछ कर मकै है ? ( मोक्ष दे सके है ?) अर्थात् नहीं, और बहुत प्रकार किये हुवे क्षपण ( उपवाम ) कुछ कर सके हैं ? तथा आतापन योग ( धूप में कायोत्सर्ग करना ) भी कुछ कर सके हैं ? अर्थात कुछ नहीं। भावार्थ केवल शारीरक क्रिया मात्र आत्मा को निराकुल सुख नहीं कर सक है।
जइ पठइ सुदाणिय जदि काहदि बहुविहेय चरित्तो। तं वालमुयं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीयं ।।१००॥
यदि पठति श्रुतानि च यदि करिप्यति बहुविधानिचारित्राणि।
तद्वालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् ॥
अर्थ-जो आत्म स्वभाव म विपरीत वाह्य अनेक तर्क व्याकरण छन्द अलंकार साहित्य सिद्धान्त तथा एकादशाङ्ग दशपूर्व का अध्ययन करना है मो बाल श्रुत है, तथा आत्मीक स्वरूप विरुद्ध अनेक चारित्र करना बाल चारित्र है।
वेरग्गपरोसाह परदव्वपरमुहोय सो होई । संसारसुहाविरत्तो सगसुद्धसुहेमुअणुरत्तो ॥ १०१॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छदो साहू । झाणझयणेमुरदो सो पावई उत्तमठाणं ॥१०२॥
वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च स भवति । संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धंसुखेषु अनुरक्तः ॥१०१॥
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( १३८ ) गुणगणविभूषिताङ्गः हेयोपादेय निश्चितः साधुः । ध्यानाध्ययनेषु रत्तः स प्राप्नोति उत्तम स्थानम् ॥
अर्थ-जो साधु विराग भावों में तत्पर है वही परपदार्थों से पराङ्मुख ( ममत्वरहित ) है और संसारीकसुखों से विरक्त है. आत्मीकशुद्ध सुखों में अनुरागी है शानध्यानादि गुणों के समूह कर भूषित है शरीर जिसका, हेय ( त्यागने योग्य ) उपादेय ( ग्रहण करण योग्य) का है निश्चय जिसके तथा ध्यान (धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान ) अध्ययन (शास्त्री का पठन पाठन ) में लीन है सोही साधु उत्तमस्थान को ( मोक्ष को ) पांव है
णविएहि ज णविज्जइ झाइझइ झाइएहि अणवरयं । थुवंतहिं थुणिजइ देहच्छ किंपितंमुणह ॥ १०३ ॥ नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तयमानः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् मनुत ॥
अर्थ-भो भव्यजनो ? तुमारे इस देह में कोई अपूर्व स्वरुपवाला तिष्टे है तिमको जानो जोकि अन्यपुरुषा कर नमस्कृति किये हुवे ऐसे देवेन्द्र नरन्द्र गणन्द्रों कर नमस्कार किया जाता है, तथा अन्य योगियों कर ध्याय हुयं एस तीर्थकर देवा कर निरंतर ध्याया जाता है और अन्य शानियोकर स्तुति किये हुव परमपुरुषांकर (तीर्थकरादिकोंकर) स्तुति किया जाता है।
अरुहा सिद्धा अरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी । तेविहु चिट्टइ आद तम्हा आदाहु में सरणं ॥ १०४ ॥
अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्याया साधवः परमेष्ठिनः । तेऽपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटि में शरणम् अर्थ- अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये परमेष्ठी तेही मेरे आत्मा में तिष्टे हैं उमसे आत्माही मुझं शरण है ॥ (भावार्थ) यह परमेष्ठी आत्मा म तबही ठहर सकत है अब कि उनका स्वरुप चिन्तन कर आत्मा में शेयाकार वाध्येयाकर किया होय
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इससे परमेष्ठी को नमस्कार किया जानना । और आगम भाव निक्षे पकर जब आत्मा जिसका ज्ञाता होता है तब वह उसी स्वरूप कहलाता है | इसमे अर्हन्तादिक के स्वरुप को ज्ञेय रूप करने वाला जीवात्मा भी अर्हन्तादि स्वरुप हो जाता है। और जब यह निरन्तर ऐसाही बना रहे है तब समस्त कर्मक्षय रूप शुद्ध अवस्था (मुक्त) हो जाती है । जो समस्त जीवांको संबोधन करने में समर्थ है सो अन है अर्थात् जिसके ज्ञान दर्शन सुख वीर्य परिपूर्ण निरावरण होजाते है सोही अन्न हैं । सर्व कर्मो के क्षय होने से जो मोक्ष प्राप्त होगया हो सो मिद्ध हैं। शिक्षा देनेवाले और पांच आचारों को धारण करने वाले आचार्य है | श्रुतज्ञानोपदेशक हो तथा स्वपरमत का ज्ञाता हो सो उपाध्याय हैं । रत्नत्रय का साधन करें सो साधु हैं ।
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संमत्तं संणाणं सच्चारितं हिसत्तवं चैत्र I
चउरो चिट्ठा आदे ता आदा हुमेसरणं ।। १०५ सम्यक्त्वं ज्ञानं सचारित्रं हि सत्तपश्चैव ।
चत्वारो तिष्ठति आत्मनि तस्मारात्मास्फुटं में शरणम् ॥
अर्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र और सम्यकतपयह चारों आत्मा में ही तिष्ठे हैं तिससे आत्माही मेरे शरण है । भावार्थ । दर्शन ज्ञान चरित्र और तप ये चारों आराधना मुझे शरण हो ! आत्मा का श्रद्धान आत्माही करें हैं आत्मा का ज्ञान आत्मा ही करे है आत्मा के साथ एकमेक भाव आत्माकाही होता है और आत्मा आत्मा में ही तप है वही केवल ज्ञानेश्वर्य को पावे है ऐसे चारों प्रकार कर आत्मा कोही घ्यावे इससे आत्माही मेरा दु:ख दूर करने वाला है आत्माही मंगल रूप है |
एवं जिणं पणत्तं मोक्खस्यय पाहुंड सुभत्तीए ।
जो पढाइ सुणइ भावई सो पावइ सासयं सोक्खं ।। ९०६
एवं जिन प्रज्ञतं माक्षस्यच प्राभृत सुभक्त्या ।
य पठति श्रणोति भावयति स प्राप्नोति शास्वत्तं सौख्यम् ॥
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( १४० )
अर्थ--इस
--इस प्रकार कहे हुवे मोक्ष प्राभृत को जो उत्तम भक्तिकर पढ़े है श्रवण करे है भावना ( बार बार मनन) करै है सो अविनश्वर सुख को पावे है।
॥ इति श्रीकुन्दुकुन्दस्वामिविरचितं मोक्षप्राभृतं समाप्तम् ॥ ॥ समाप्तं च षट्प्राभृतम् ॥
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