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अयशसा भाजनेन च किते नग्नेन पापमलिनेन । पैशून्य हास्य मत्सर माया वहूलेन श्रमणेन ॥
अर्थ-ऐसे नग्नपने वा मुनिपने से क्या होता है जो कि अपयश [अकीर्ति] का पात्र है और पैशुन्य दूसरों के दोषों का कहना] हास्य, मत्सर [ अदेषका भाव ] मायाचार आदि जिसमें बहुत ज्यादा है और जो पाप कर मलिन है।
भावार्थ-मायाचारी मुनि होकर क्या सिद्ध कर सक्ता है उससे उलटी अपकीर्ति होती है और उससे व्यवहार धर्म की भी हंसी होती है इससे भावलिंगी हानाही योग्य है।
पयडय जिणवरलिङ्गं अभंतर भावदोसपरिसुद्धो। भावमलेणय जीवो वाहिर संगम्मि मइलियइ ॥ ७० ॥
प्रकटय जिनवरलिङ्गम् अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः। ___ मावमलेन च जीवा वाह्यसङ्गे मलिनः ।।
अर्थ--अन्तरंग भावों में उत्पन्न होने वाले दोषों से रहित जिनवर लिंग को धारणकर । यह जीव भाव मल [अन्तरंग कषाय मादिक ] के निमत्त स वाह्य परिग्रह म मैला हो जाता है।
धम्मम्मि निप्पवासो दोसावासोय इच्छुफुल्लसमो। णिप्फलीणग्गुणयारो णड सवणो णग्गरवेण ॥ ७१ ।।
धर्मे निप्रवासो दोषावासश्च इक्षपुष्पसमः । निष्फलनिगुणकारो न तु श्रमणो नग्नरूपेण ॥
अर्थ-रत्नत्रयरूप, आत्मस्वरूप, उत्तम क्षमादिरूप अथवा वस्तु स्वरूप धर्म म जिसका चित्त लगा हुवा नहीं है बल्फि दोषा का ठिकाना बना हुवा है वह गन्ने के फूलक समान निष्फल और निर्गुण होता हुवा नग्न वेष धारण कर नटवा ( बहुरुपिया ) बना हुवा है।
जेण्य संगजुत्ता जिण भावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं वोहिं जिण सासणे विमळे ॥७२॥