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(७९) येरागसंगयुक्ता निनमावन रहितद्रव्यनिग्रन्थाः । न लभन्ते ते समाधि बोधिं जिनशासने बिमले ॥
अर्थ--जो रागादिक अन्तरङ्ग परिग्रह कर सहित है और जिन भावना रहित द्रव्य लिङ्ग को धार कर निर्घन्ध बनते हैं वे इस निर्मल ( निर्दोष ) जिन शासन में समाधि ( उत्तम ध्यान) और बोधि ( रत्नत्रय ) को नहीं पाते हैं।
भावेण होइ णग्गे पिच्छत्ताइंय दोस चइऊण । पच्छादव्वेण मुणि पयडदिलिंगं जिणाणाए ।।७।।
भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादींश्चदोषान् त्यत्तवा । पश्चाद् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिङ्ग निनाज्ञया ।
अर्थ-मुनि प्रथम मिथ्यात्वादि दोषा को त्याग कर भाव ( अन्तरंग ) से नग्न होवे, पीछे जिन आशा के अनुसार नम स्वरूप लिंग को प्रकट करै।
भावार्थ--पहले अंतरंग परिग्रह को त्याग कर अंतरंग को नग्न करै पीछे शरीर को नंगा करै--
भावोचि दिव्व सिव सुख भायणो भावन्जिओसमणो। कम्ममल मालिण चिंत्तो तिरियालय भायणो पावो ||७४॥
भावापि दिव्यशिव सुख भाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्म मलमलिन चित्तः तिर्यगालय भाजनं पापः ।।
अर्थ-भाव लिंग ही दिव्य ( स्वर्ग ) और शिव सुख का पात्र होता है । और जो भाव रहित मुनि है उसका चित कर्ममल करमलिन है वह पापाश्रव करता हुवा तियञ्च गति का पात्र होता है ।
खयरामरमणुयाणं अंजालमालाहिसंथुया विउला । चकहर रायलच्छी लब्भइ वोहि सभावेण ॥७॥
खचरामरमनुजानाम् अजुलिमालाभिः संस्तुताविपुला । चक्रधरराज लक्ष्मीः लभ्यते बोधि स्व भावेन ॥ अर्थ-आत्मीक भावों के निमित्त से यह जीव चक्रवर्ती की