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( ७७ ) अवधि मनः पर्यय और केवल ज्ञान को शीघ्रही भावो जो कि अज्ञान के नाश करने वाले हैं। जो कोई भावना कर भावित किये हुवे भावों (परिणामां) कर सहित है साई स्वर्ग मोक्ष के सुख का पात्र बनता है।
पढिएणवि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण । भावो कारण भूदो सायार णयार भूदाणं ।। ६६ ।। पठितेनापि किं क्रियते किंवा श्रुतेन भावरहितेन ।
भावः कारणभूतः सागारा नगार भूतानाम् ।। अर्थ-भाव हित पढ़न वा सुनने से क्या होता है ? सागार भावक धर्म और अनगार ( मुनि ) धर्म का कारण भावही है।
दम्बेण सयल जग्गा णारयतिरियाय संघाय । परिणामेण अशुद्धा ण भाव मवणत्तणं पत्ता ॥ ६७ ॥
द्रव्येण सकला नग्ना नारकातियञ्चश्व सकलसंघाश्च । परिणामेण अशद्धा न भाव श्रमणत्वं प्राप्ताः ।।
अर्थ ~ द्रव्य [ वाह्य ] कर ता समस्त ही प्राणी नग्न [ वस्त्र रहित ] हैं, नारकीतिर्यंच तथा अन्य नर नारी [वालक वगैराः ] वस्त्रर्गहत ही हैं,परन्तु वमपरिणामी म अशुद्ध हैं अर्थात् भावलिंगी मुनि नही हो गय है अर्थात् विना भाव के वस्त्र रहित होना कार्यकारी नहीं है।
णग्गो पावर दुक्खं णगो संसारसायरे भमई । णग्गो ण लहइ वोहिं जिण भावण वजिओ मुरं ॥६८॥ नग्नः प्राप्नोति दःख नग्नः संमार सागरे भ्रमति ।
नग्नो न लभते बोधि जिन भावना वर्जितः ॥ अर्थ-जिन भावना रहित नग्न प्राणी नाना प्रकार के चतु. गति सम्बन्धी दुखों को पाता है। जिन भावना रहित नग्न प्राणी संमार सागर में भ्रमता है और भावना रहित नग्न प्राणी [वाधिरत्नत्रयलब्धि ] को नहीं पाता है।
अयसाण भायणेणय किन्ते णग्गेण पाप मकिणेण । पैमुण्णहासमच्छर माया बहुलेण सवणेण ।। ६९ ।।