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( १२४ ) अर्थ-अज्ञानी पुरुष अनेक भव में उम्र (तीव्र ) तपश्चरण से जितने कर्मों को क्षय करता है हानी पुरुष उतने कर्मों को तीनों गुप्तिकर अन्तर्मुहूर्त में भय कर देता है।
मुभ जोगेण मुभावं परदव्वे कुणइ राग दोसाहू । सो तेणदु अण्णाणी गाणी एत्तो दुविपरी दो ॥५४॥
शुभ योगेन सुभावं पर द्रव्ये करोति राग द्वेषौ स्फुटम् ।
स तेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्माहिपरीतः॥
अर्थ--जो योगी मनोज इष्ट प्रिय वनितादिक में प्रीति भाव करे है और पर द्रव्यों में राग द्वेष करे है वह साधु अज्ञानी और जो इससे विपरीत है अर्थात रोग द्वेष रहित है वह हानी है।
आसव हेद्य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवाद । सो तेण दु अण्णाणी आदसहावस्स विचरी दो ॥ ५५ ॥
भाश्रव हेतुश्च तथा भावं मोक्षस्य कारणं भवति ।
स तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ।। अर्थ-जैसे इष्ट वनितादि विषयों में किया हुआ राग आश्रव का कारण है तैसे ही निर्विकल्प समाधि के विना मोक्ष सम्बन्धी भी राग आश्रय का कारण है इसी से मोक्ष को इष्ट मानकर उसमें राग करने वाला भी अज्ञानी है क्योंकि वह आत्म स्वभाव से विपरीत है अर्थात वह आत्म स्वभाव का शाता नहीं है।
जो कम्म जादमइओ सहाव णाणस्स खंट दोसयरो। सो तेण दु अज्ञानी जिण सासण दूसगो भणि ओ ॥५६॥ ___ यः कर्म जात मतिकः स्वभाव ज्ञानस्य खण्ड दोष करः ।
स तेन तु अज्ञानी जिनशासन दूषको मणितः ॥ अर्थ--इन्द्रिय अनिन्द्रिय (मन) अनित ही शान है जो पुरुष ऐसा माने है वह स्वभाव ज्ञान (केवल शान) को खण्ड शान से दूषित कर है। इसी से बह अक्षानी है जिन आशा का दृषक है ।