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________________ ( ११३ ) . अर्थ-परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से सुगति ( मोक्ष ) होती है ऐसा जान कर अपने आत्मीक द्रव्य में प्रीति करो और अन्य (वाह्य ) पदार्थों में विरति अर्थात् बिरक्तता करो। आदसहावा वणं सञ्चिताचित्तमिस्सियं हवादि । तं परदव्वं भणियं अविच्छिदं सव्वदरसीहिं ।। १७॥ आत्मस्वभादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भाणतम्-अवितथं सर्वदर्शिभिः ।। अर्थ-जो आत्मस्वरूप से अन्य है ऐसे सचित्त अर्थात् पुत्र कलत्रादिक और अचित्त अर्थात् धन धान्य आदिक और मिश्रित अर्थात् आभूषण हित स्त्री आदिक पदार्थ सबही पर द्रव्य है एसा सर्वज्ञ दव ने सत्यार्थ वर्णन किया है। दट्ट कम्म रहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच । सुद्धं जिणेहि कहियं अप्पाणं हवदि सहव्वं ।। १८ ।। दुष्ठाप्ट कम रहितम् नपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम् । शुद्ध निनैः कथितम्, आत्मा भवति म्वद्रव्यम् ।। अथ दुष्ट शानावरणादिक आठ कर्मों से रहित अनुपम् झान ही है शरीर जिम्मका, अविनश्वर शुद्ध अर्थात् कर्म कलरहित कवल ज्ञानमयी आत्मा और स्वद्रव्य है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है। जे झायंति सदव्वं परदव्वं परंमुहा दु सुचरित्ता। ते जिणवरा णमग्गं अणुलग्गा लहहि णिव्वाणं ॥ १९ ॥ _ये ध्यायन्ति स्वद्रव्यं परद्रव्य पराङ्मुखास्त सुचरित्राः । ते जिनवराणां मार्गमनुलग्ना लभन्ते निर्वाणम् ।। अर्थ---जो पर पदार्थों से परांमुख और उत्तम चारित्र के धारक साधु स्वद्रव्य को अर्थात् अपनी आत्मा को ध्यावं हैं वेजिनंद्र दव के मार्ग में लगेहुवे अवश्य निर्वाण को पाव है। जिणवरमएण जोई शाणे झाएइ मुद्धमप्पाणं । .. जण लहहि णिवाणं ण लहहि किं तेण सुरलोयं ॥ २०
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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