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( ११४ ) जिनवर मतेन योगी ध्यान ध्यायति शुद्धमात्मानम् ।
येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ॥
अर्थ-योगी ध्यानी मुनि जिनेन्द्र देव के मत के द्वारा ध्यान में शुद्ध आत्मा को ध्याकर निर्वाण पद को पावे हैं तो क्या उस ध्यान से स्वर्गलोक नहीं मिलता अर्थात् अवश्य मिलता है।
जो जाइ जोयणसयं दिय हेणेक्केण लेवि गुरु भारं । सो किं कोसद्धं पिह णसक्कए जाहु भुवणयले ॥ २१ ॥ । यो यति योजनशंन दिनैनकेन लात्वा गुरु भारम् ।
स किं क्रोशर्धमपि स्फुटं न शक्यते यातुं भुवनतले ॥
अर्थ-जो पुरुष भारी बोझ लेकर एक दिन में सौ १०० योजन तक चलता है तो क्या वह आधा कोश जमीन पर नहीं जा सकता है। इसी प्रकार जो ध्यानी मोक्ष को पा सकता है तो क्या वह स्वर्गादिक अभ्युदय को नहीं पा सक्ता है ?
जो कोडिएन जिप्पइ सुहटो संगाम एहि सम्वेहि । सो किं जिप्पई इकिं णरेण संगामए मुहडो ॥ २२ ॥ ___ यः कोटीः जीयते सुभटः संग्रामे सर्वैः ।
स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामें सुमटः ॥ अर्थ-जो सुभट ( यांधा ) संग्राम में समस्त करोड़ों योधाओं को एक माथ जीते है वह सुभट क्या एक साधारण मनुष्य से रण में हार सकता है ? अर्थात् नहीं । जो जिन मार्गी मोक्ष के प्रति बन्धक कर्मों का नाश करे है वह क्या स्वर्ग के रोकने वाले कर्मों का नाश नहीं कर सके है।
सगं तवेण सव्वो विपावए तहवि झाण जोएण। जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ॥ २३ ॥ स्वर्ग तपसा सर्वोऽपि प्राप्नोति तत्रापि ध्यान योगेन । यः प्राप्नोति स प्राप्नोति परलोके शास्वतं सौख्यम् ।।