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अर्थ- जो पुरुष अतिविस्तीर्ण ( अधिक चोड़ाई वाले ) संसार समुद्र से निकलने की इच्छा करे है वह पुरुष कर्म रुपी इन्धन को जलांन के लिये जैसे तैसे शुद्ध आत्मा को ध्यावे ।
सव्वे कसाय मुत्तं गारवमयराय दोस वामोहं । लोय विवहार विरदो अप्पा झाए झाणत्थो || २७ ॥ सर्वान् कषायान्मुक्त्वा गारवमदराग द्वेष व्यामोहम् । लोकव्यवहार विरतः आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ॥ समस्त क्रोधादिक कपायों को और वड़प्पन, मद, राग द्वेष व्यामोह अथवा पुत्र मित्र स्त्री समूह को छोड़कर लोकव्यबहार से विरक्त और आत्म ध्यान में स्थिर होता हुवा आत्मा को व्यावे ।
अर्थ
मिच्छत्तं अण्णाणं पात्रं पुण्णं चण्इ तिविण । मोणव्वएण जोई जोयच्छो जोयए अप्पा || २८ ॥
मिथ्यात्वमज्ञानं पापं पुण्यं च त्यक्त्वा त्रिविधेन । मौन व्रतेन योगी योगस्थो योजयति आत्मानम् ॥
अर्थ - योगी मुनीश्वर मिथ्यात्व अज्ञान पाप और पुण्य बन्ध के कारणा को मन बचन काय मे छोड़ि मौनव्रत धारण कर योग में ( ध्यान में ) स्थित होता हुवा आत्मा को ध्याव है।
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जं मया दिस्सरुवं तणजाणदि सव्वहा । गाणगं दिस्सदे तं तम्हा जयेमि केणहं ॥ २९ ॥ यन्मया दृश्यते रूपं तन्नजानाति सर्वथा ।
ज्ञायको दृश्यतेऽनन्तः तस्माज्जल्पामि केनाहम् ॥
अर्थ-जो रूप स्त्री पुत्र धनधान्यादिक का मुझे दीखे है मो मूर्तीक जड़ है तिसको सर्वथा शुद्धनिश्चय नय कर कोई नहीं जाने है और उन जड़ पदार्थों को में अमृतक अनन्त केवल ज्ञान स्वरुप वाला नहीं दीखू हूं फिर में किसके साथ वचना लाप करूं । भावार्थ । वार्ता लाप उसके साथ किया जाता है जो दीखता हो सुने और कई सो