SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११७ ) मैं तो ज्ञानी अमूर्तिक वचन वर्गणा रहित हूं और ये स्त्री पुत्र शिष्य आदिकों का शरीर जो कि मुझे व्यवहार नय से दीखता है वह पुद्गल है मूर्तीक है तो इन से परस्पर कैसे वार्ता होसके इससे मौन धारण कर आत्म ध्यान करूंहूँ । सव्वा सव्वणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं । जायच्छो जाणए जोई जिण देवेण भासियं ॥ ३०॥ सर्वाश्रवनिरोधेन कर्म क्षिपति संचितम् । योगस्थो जानाति योगी जिनदेवेन भासितम् ॥ अर्थ — योग ( ध्यान ) में ठहरा हुवा शुक्ल ध्यानी साधु मिथ्या दर्शन अम्रत प्रमोद कषाय और योग ( मन वचन काय की प्रवृत्ति इन समस्त आश्रवों के निरोध होने से पूर्व संचय किय हुवे समस्त ज्ञानावरणादिक कर्मों का क्षय कर है और समस्त जानने वाले पदार्थों को जाने है एसा श्रीजिनेन्द्र देव ने कहा है । जो सुत्तो ववाहोरे सो जोई जग्गए सकज्जम्पि | जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥ ३१ ॥ यः सुप्तो व्यवहारे स योगी जागर्ति स्वकार्ये । यो जागर्ति व्यवहारे स सुप्तः आत्मनः कार्य || अर्थ – जो योगी व्यवहार में ( लौकिकाचार में ) सोता है। वह स्वकार्य में जागता है अर्थात् सावधान है और जायोगी व्यवहार में जागता है वह आत्मकार्य में सांता है। इयजाणऊण जोई ववहारं चयइ सव्वा सव्व । झाइय परमप्पाणं जह भणियं जिणवरं देण ॥ ३२ ॥ इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् | ध्यायति पारमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रेण ॥ अर्थ - ऐसा जानकर योगी सर्वप्रकार से समस्त व्यवहार को छोड़े है और जैसा जिनेन्द्रदेव ने परमात्मा का स्वरूप कहा है उस स्वरूप को ध्यावे है ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy