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अर्थ-- दिगम्बर मुद्रा के सिवाय अवशेष जो पुरुष दर्शन शान कर संयुक्त हैं और एक वस्त्र को धारण करने वाले उत्कृष्ट ग्यारवीं प्रतिमा के श्रावक हैं ते इच्छा कार करने योग्य कहे हैं अर्थात् उनको " इच्छामि" ऐसा कहकर नमस्कार करना चाहिये।
इच्छायारमही मुतद्धि ऊ जो हु छंडए कम् । छाणे ट्ठिय समां पर लोयझहं करो होइ ॥१४॥
इच्छा कार महत्त्व सूत्र स्थितयः स्फुटं त्यजति कर्म । स्थाने स्थित्वा समंचति पुरलोके सुखकरो भवति ॥
अर्थ- जो पुरुष जिन सूत्र में स्थित होता हुआ इच्छाकार के महान अर्थ को जानता है और श्रावका के स्थान अर्थात् ११ प्रतिमाओं में कहे हुवं आचारी में स्थित होकर सम्यक्त्व सहित होता हुवा वैया वृत्त्य बिना अन्य आरम्भादिक कर्मो को छोड़ता है वह परलोक में स्वर्ग सुखों को प्राप्त करता है अर्थात् उत्कृष्ट श्रावक मोलहवें स्वर्ग में महिर्धिक देव होकर वहां मनुष्य पर्याय पाकर निर्ग्रन्थ मुनि ही मोक्ष को पाता है।
अह पुण अप्पाणिच्छदि-धम्माइ करेदि निरव सेसाइ । तहवि ण पावदि सिद्धिं संसार च्छो पुणो भणिदो॥१५॥
अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निर वशेपान ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनः भणितः ।। अर्थ-जो इच्छा कार को नहीं समझता है. अथवा जो पुरुष आत्मा को नहीं चाहता है आत्म भावनाओं को नहीं करता है और अन्य समस्त दान पूजादिक धर्भ कार्यो को करता है वह सिद्धि को नहीं पाता है वह संसार में ही रहता है ऐसा सिद्धान्त में कहा है।
एयेण कारणेण य त अप्पा सहहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिजह पयतेण ॥१६॥
एतेन कारणेन च तम् आत्मानं श्रद्दधत त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ।।