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अर्थ-इस कारण तुम मन बचन काय से आत्मा का श्रद्धान करो और जिस से मोक्ष प्राप्त होता है उसको यत्न के साथ जानो।
वालग्ग कोडिमत्त परिगह गहणो ण होई साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्ण ण्णं एक ठाणम्मि ॥१७॥
वालाग्र कोटिमात्र परिग्रह ग्रहणं न भवति साधूनाम् ।
भुञ्जीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एक स्थाने ॥
अर्थ-साधुओं के पास रोम के अग्रभाग प्रमाण अर्थात् बाल की नाक के बराबर भी परिग्रह नहीं होता है, वे एक स्थान ही म, खड़ होकर, अन्य उत्तम श्रावको कर दिये हुवे भोजन को, अपने हाथ में रख कर आहार करते हैं।
जह जाय रूप सरिसो तिलतुसमित्तं न गहदि हत्थेमु । जइ लेइ अप्प वहुंअं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥१८॥ यथा जात रुपं सदृशः तिलतपमात्र नग्रह्णाति हस्तयोः ।
यदि लाति अल्प बहुकं ततः पुनः याति निगोदम् ।। थर्म-जन्मते बालक के सामान नग्न दिगम्बर रुप धारण करने वाले साधु तिलतुष मात्र अर्थात् तिल के छिलके के बराबर भी परिग्रह को अपने हाथों में नहीं ग्रहण करते हैं । यदि कदाचित थोड़ा वा बहुत परिग्रह ग्रहण करलं तो ऐसा करने से वह निगोद में जाते हैं।
जस्स परिग्गह गहणं अप्पं वहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिओ जिण वयणे परिगहरहिलो निरायारो॥१०॥
यस्य परिग्रह ग्रहणं अल्प वहुकं च भवति लिङ्गस्य ।
स गर्हणीयः जिन वचने परिग्रह रहितो निरागारः ।।
अर्थ --जिस के मत में जिन लिङ्ग अर्थात् जैन साधु के वास्ते भी थोड़ा या बहुत परिग्रह का ग्रहण कहा है वह मत और उस मत का धारी निंदा के योग्य है जिन बाणी के अनुसार परिग्रह रहित ही निगगार अर्थात् मुनि होते हैं।