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( ८३ ) अप्पा अप्पम्पिरओ रायादिमुसयलदोस परिचित्तो। संसार तरणहेदु धम्मोत्ति जिणेहिं णिहिटो ॥८॥
आत्मा आत्मनि रतः रागादिषु सकलदोष परित्यक्तः । संसार तरण हेतुः धर्म इति निनैः निद्दिष्टः ॥ अर्थ-~-गग द्वेषादिक समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में ही लीन होना धर्म है और संसार समुद्र से तरणे का हेतु है एमा जिनेंद्र देव ने कहा है।
अहपुण अप्पाणिच्छदि पुण्णाई करोदि णि र वसेसाई । तहविण पावदि सिद्धिं संसारत्थोपुणो भणिदो ॥८६॥ ___ अथ पुन.आत्मा नेच्छति पुण्यानि करोति निर वशेषाणि ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनमीणतः ।। अथे-अथवा जो पुरुष आत्मा को नहीं जाने है और समस्त प्रकार के पुण्या को अर्थात् पुण्य बन्ध के साधना को करता है वह मिद्धि ( मुाक । को नहीं पाता है संसार में ही रहै है एसा गणधर देवा न कहा है।
एएण कारणेणय तं अप्पां सद्दहेहतिविहेण । जणय लहेह मोदखं तं जाणिजह पयत्तेण ॥८७।।
एतन काणेन च तमात्मानं श्रद्धनत्रिविधेन । येन च लमध्वं मोक्षं तं जानीथ प्रयत्नेन ॥
अथ---आत्माही समस्त धर्मों का स्थान है इसी कारण तिस सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यक चारित्रमय आत्मा का मन बचन काय से श्रद्धान करा और उसको प्रयत्नकर जाना जिसस माक्ष पावो।
मच्छोवि सालिसिच्छो अमुद्धभावो गओ महाणरयं । इयणाउं अप्पाणं भावह जिण भावणा णिचं ॥८८॥
मत्स्योपि शालिशिच्छु अशुद्ध मावगतः महानरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनानित्यम् ॥