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________________ ( ८४ ) अर्थ-भो भव्य ? तुम देखो कि तन्दुलनामा मछ निरन्तर अशुपरिणामी होता हुआ सप्तम नरको में गया ऐसा जान कर अशुभ परिणाम मत करो, किन्तु निज आत्मा के जानने के लिये जिन भावना को निरन्तर भावो । काकन्दी नगरी में शूरसेन राजाथा उसने सकल धार्मिक परिजनों के अनुरोध से श्रावकों के अष्टमूल गुण धारण किये पीछे वेदानुयायी रुद्रदत्त की सङ्गति से मांस भक्षण में रुचि की, परन्तु लोका पवाद से डरता था, एक दिन पितृ प्रिय नामा रसाइदार को मांस पकाने को कहा, और वह पकाने लगा, परन्तु भोजन समय में अनेक कुटम्बी और परिजन साथ जीमते थे इससे राजा को एकबार भी मांस भक्षण का अवसर न मिला, किंतु पितृप्रिय स्वामी के लिये प्रतिदिन मांस भोजन तैय्यार रखता था, एक दिन पितृप्रिय को सर्प के बच्चे ने डसा और वह मर कर स्वयंभूरमण द्वीप में महामत्स्य हुवा, । और मांसाभिलाषी राजा भी मरकर उसी महामत्स्य के कान में शालिसिक्थु मत्स्य हुवा || जब वह महामत्स्य मुख फैला कर सोता था तब बहुत से जलचर जीव उसके मुख में घुसते और निकलते रहते थे, यह देख कर शालिमि कथु यह विचारता था कि "यह महामत्स्य भाग्यहीन है जो मुख में गिरते हुवे भी जलचरों को नहीं खाता है यदि एसा शरीर मेरा होवे तो सर्व समुद्र को खाली कर देऊं । इस विचार से वह शालिसिक्थु समस्त जलचर जीवों की हिंसा के पापों से सप्तम नरक में नारक हुवा इसमे आचार्य कहे हैं कि अशुद्ध भाव सहित वाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही परंतु वाह्य हिंसादिक पाप किये विना केवल अशुद्ध भाव भी उसी समान हैं इससे अशुभ भाव छोड़ शुभ ध्यान करना योग्य है । वाहिर सङ्गच्चाओ गिरिसरिदार कंदराइ आवासो । सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ॥ ८९ ॥ वाह्य सङ्गत्यागः गिरिसरिद्दरीकन्दरा दिआवासः । सकलं ज्ञानाध्ययनं निरत्यको भावरहितानाम् || अर्थ- शुद्ध भाव रहित पुरुषों का समस्त वाह्य परिग्रहों का त्याग, पर्वत नदी गुफा कन्दराओं में रहना और सर्व प्रकार की विद्याओं का पढ़ना व्यर्थ है मोक्ष का साधन नहीं है ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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