________________
। ८२ ) होता है दोनों प्रकार का संयम होता है और भिक्षा से पर घर भोजन किया जाता है और सब से पहले आत्मीक भावों को भावना रूप किया जाता है ऐसा निर्मल शुद्ध जिनलिङ्ग है।
जहरयणाणं पवरं वजं जहतरुवराण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाव भवषहणं ।।८२॥
यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुवराणां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्म भावय भवमथनम् ।। अर्थ-जैस समस्त रत्नों में अत्युत्तन बज्र । हीरा) है जैम समस्त वृक्षा में उत्तम चन्दन है तैमही समस्त धर्मा में अत्युत्तम जिनधर्म है जो कि संसार का नाश करने वाला है । उसको तुम भावो धारण कगे।
पूयादि मुवयसहियं पुण्णहिजिणेहिं सासाणे भणियं । मोह क्खोह विहीणो परिणामो अपणो धम्मो ॥ ८३ ॥
पूजादिषुत्रत सहितं पुण्यं हि जिनैः शासने मणितम् ।
मोह क्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो धर्मः ॥
अथे-ब्रत (अणुव्रत) सहित पूजा आदिक का परिणाम पुण्य पन्ध का कारण है, ऐसा जिनन्द्र देवन उपामकाध्ययन (श्रावकाचार ) में कहा है, और जो माह अर्थात् अहंकार ममकार वा गगद्वेष तथा क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है वह धर्म है अर्थात माक्ष का साक्षात कारण है।
सद्दहदिय पत्तेदिय रोचेदिय तहपुणोवि फासेदि । पुण्णं भोयणिमित्तं णहुसो कम्मक्खयाणिमित्तं ॥८४॥
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति ।
पुण्यं भोगनिमित्तं न स्फुटं तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।
अर्थ---जो पुण्य को धर्म जान श्रद्धान करता है अर्थात उसको माक्ष का कारण समझ कर उसी में रुचि करता है और तैसेही आचरण करै है तिसका पुण्य भांग का निमित है कर्मक्षय होने का निमित्त नहीं है।