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( ८१ ) विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइ भाऊण । तित्थयरणामकम्म बंधइ अइरेण कालेण ॥७९॥
विपयविरक्तः श्रमणः षोडशवर कारणानि भावयित्वा ।
तीर्थकरनाम कर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ॥
अर्थ --मुनि विषयों से विरक्त मोलह कारण भावनाओं को भायकर थाड़ कालमें ही तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध करता है सोलहकारण भावना इस प्रकार हैं।
दर्शनविशुद्धि १ विनय संपन्नता २ शीलवतेश्वनीतीचार ३ अर्भाषणशानोपयोग ४ संवेग ५ शक्तिस्त्याग ६ शक्तितस्तप ७ साधुममाधि ८ वैयावृत्यकरण ९ अर्हद्भक्ति १० आचार्यभक्ति ११ बहुश्रुतभक्ति १२ प्रवचनभक्ति १३ आवश्यकापरिहाणि १४ मार्गप्रभावना १५ प्रवचनवत्सलत्व १६ ।
वारस विहतवयरणं तेरसकिरियाओ भाव तिविहेण । धरहि मण मत्त दुरियं णाणांकुसएण मुणियवरं ।।८०॥
द्वादशविध तपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन ।
धारय मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिवर ॥ अर्थ-भो मुनिवर ? तुम वारह प्रकार के तपश्चरणको और तेरह प्रकार की क्रियाओं को मन वचन और काय कर धारण करो
और मन रूपी पापिष्ट हस्ती को ज्ञानरूपी अंकुश कर बश करो। ___ पांच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गुप्ति यह १३ प्रकार की क्रिया है।
पञ्चविहचेलचायं खिदिसयणं दुविह संजमं भिक्खं । भावं भाविय पुव्वं जिणलिङ्गं णिम्मलं सुद्धं ॥८॥
पञ्चविध चल त्यागः क्षितिशयनं द्विविध संयम भिक्षा । भावं माविन पूर्व निनलिङ्ग निमलं शुद्धम् ।।
अर्थ-जिसमें पांचों प्रकार के अर्थात रेशम, कई, ऊन, छाल चमड़ा, आदिक सब प्रकार के वस्त्रां का त्याग है, पृथिवी पर शयन