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अर्थ-भो साधो ? तुम पाँचो परमेष्ठी को ध्यावो जो कि मंगल स्वरूप सुख के कर्त्ता और दुःख के इर्ता है, चारशरण रूप हैं और लोकोत्तम हैं तथा मनुष्य देव विद्याधरों कर पूजित हैं और आराधनाओं अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप के स्वामी और कर्म शत्रुओं के जीतन में बीर हैं ।
णाणमय विमल सीयल सलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहि जरमरण वेयण डाह विमुक्का सिवा होन्ति ॥ १२५ ॥ ज्ञानमय विमल शीतल सलिलं प्राप्य भव्याः भावेन ।
व्याधि जरामरणवेदना दाह विमुक्ता शिवा भवन्ति ॥ अर्थ - भव्यजीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल को उत्तम भावां से पीकर रोग जरा, मरण, वेदना, दाह और संताप से रहित होकर सिद्ध होते हैं। भावार्थ । जैसे मनुष्य किसी उत्तम कूप के निर्मल ठंडे अल को पीकर शांत हो जाते हैं तैसे ही भव्यजीव ज्ञान को पाकर जन्म जरा मरण से रहित अविनाशी सिद्ध हो जाते हैं 1
जह वीयम्मिय दट्टे विरोहइ अंकुरोय महीवीटे । तह कम्मवीय दट्ठे भवंकुरो भाव सवणाणं ॥ १२६ ॥
यथा वीजे दग्ध नैव रोहति अंकुरश्च महीपीठे | तथा कर्मवीज दग्धे भवांकुरो भावश्रमणाणाम् ||
अर्थ-जैसे बीज के दग्ध हो जाने पर पृथिवी पर अंकुर नहीं उगता है तैसेही भाव लिङ्गी मुनि के कर्म बीजों का नाश दग्ध हो जाने पर फिर संसार रूपी अंकुर पैदा नहीं होता है ।
भाव सवणोवि पावर सुक्खाइ दुक्खाइ दव्व सवणोय । इय णाऊ गुण दोसे भावेणय संजुदो होहि ॥ १२७ ॥ भावश्रमणेोपि प्राप्नोति मुखानि दुःखानि द्रव्यश्रमणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतो भव ।
अर्थ - भावलिङ्गी ही मुनि और श्रावक परमानन्द निराकुल सुख को पाता है, और द्रव्यलिङ्गी साधु दुःखों को ही पावै है, इनके गुण दोषों को जान कर भाव सहित होवो !