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( ९७ ) तित्थयरगणहराई अब्भुदय परं पराई मुक्खाई। पावंति भावसहिआ संख च जिणेहिं बजारियं ॥ १२८॥ तीर्थ करगणधरादीनि अभ्युदय परम्पराय सुखानि । प्राप्नुवन्ति भावसहिताः संक्षेपः जिनः उच्चरितः ॥
अर्थ-भाव लिङ्गी मुनि ही तीर्थकर गणधर आदि अभ्युदय की परम्परा के सुखों को पाता है ऐसा संक्षेप रूप वर्णन जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
ते धण्णा ताण णमो दसण वरणाण चरणसुद्धाणं । भाव सहियाण णिचं तिविहेणय णहमायाणं ॥ १२९ ।। ते धन्या तेभ्योनमः दर्शनवरज्ञान चरणशुद्धेभ्यः ।
भाव सहितभ्योनित्यं त्रिविधेन च नष्ट मायेभ्यः ॥ अर्थ-वे ही धन्य हैं उन्हीं को मन बचन काय से हमारा नमस्कार होवे जो दर्शन शान और चारित्र में शुद्ध हैं, भाव लिङ्गी हैं और मायाचार रहित हैं।
रिद्धि मतुलां विउव्विय किंणर कुिंपुरुसअमरखयरेहिं । तेहिं विण जाइ मोह जिण भावण भाविओ धीरो ॥१३०॥
ऋद्धि मतुलां विकृतां किंनरकिम्पुरुषामर खचरैः ।
तैरपि नयाति मोहं जिनभावनामावितो धीरः ।। अर्थ-जिनेन्द्र भावना अर्थात् सम्यक्त्व भावना में बसे हुए धीर पुरुष, किन्नर किंपुरुष कल्पबासी और विद्याधरों की विक्रिया रूप विस्तारी हुई अनुपम ऋद्धि को दखि मोहित नहीं होते हैं। अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष इन्द्रादिकी की विभूति को नहीं बांधे हैं।
किं पुण गच्छइ मोहं परसुरसुक्खाण अप्पसाराण। जाणन्तो पस्सन्तो चिन्तन्तो मोक्खमुणिधवलो ॥१३१॥ किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानामल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्ष मुनिधवलः ॥
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