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अर्थ - श्रुतज्ञान रूपी जल को पीकर जीव सिद्ध होते हैं, और तृषा ( विषयाभिलाषा ) दाह ( संताप ) शोष ( रसादिहानि ) जो कठिनता से नाश होने योग्य है इन से रहित हो जाते हैं तीन लोक के चूड़ामणि और शिवालय ( मुक्त स्थान ) के निवासी होते हैं I दसदस दोड़ परीसह सहहिमुणी सयलकाल कारण । सुत्तेणं अय्यमत्ता संजयवादं पमोत्तॄण ||२४|| दशदशौ सुपरीषा सहस्त्र मुने सकलकाल कायेन | सूत्रेण अप्रमतः संगमघातं प्रमोच्य ॥
अर्थ-भां मुने ? तुम प्रसाद ( कपायादि ) रहित होते हुवे
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जिन सूत्रों के अनुकूल सर्वकाल संयम के घात करने वाली बातों का छोड़ कर वाईस परीषाहों को काया में महो ।
जहपच्छरोण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकाल मुद्रण । तह साहुण विभिज्जइ उवसग्ग परीमदेहिता ॥ ९५ ॥ यथा प्रस्तरो न भिद्यते परिस्थितो दीर्घकल उदकेन । तथा साधुर्न विभिद्यते उपमर्ग परीषहेभ्यः ||
अर्थ - जैसे पत्थर बहुत काल पानी में पड़ा हुवा भी पानी से गीला नहीं होता है, जैसे ही रत्नत्रय के धारक साधु उपसर्ग और परीषाओं से क्षोभित नहीं होते हैं 1
भावहि अणुपेक्खाओ अवरेपण वीस भावणा भावि । भावरहिण किंपुण वाहर लिङ्गेण कायव्वं ॥९६॥
भाव अनुप्रेक्षा अपरा पञ्चविंशति भावना भावय । भावरहितेन किंपुनः वहिर्लिङ्गेन कार्यम् ॥
अर्थ---भो साधो ? तुम अनित्यादि १२ भावनाओं को भावो, और पच्चीस भावनाओं को ध्यावो, भाव रहित वाह्य लिङ्ग कर क्या होता है अर्थात कुछ नहीं हो सक्ता
सव्व विरओवि भावहि णवय पयत्थाइ सत्ततच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदश गुणठाण णामाई ।। ९७॥