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पावंति भावसवणा कल्लाणपरं पराइ सुक्खाई । दुक्खाई दव्व समणा णरतिरिय कुदेव जोणीए ॥ १०० ॥ प्राप्नुवन्ति भावश्रमणाः कल्याण परम्पराय सुखानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यङ्कदेवयोनौ ॥
अर्थ-भाव मुनिद्दी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और कल्यान रूपी पाञ्च कल्याणों के सुखों को पाते हैं और द्रव्य मुनि मनुष्यतिर्यंच और कुदेवों की योनि (गति) में दुःखों को पाते हैं ।
छादाल दोपदूसिय असणं गसिक असुद्धभावेण । पत्तोसि महावसणं तिरिय गईए अणष्पवसो ||१०१ || पट्चत्वारिंशद्दोप दूषित मशनं ग्रसित्वाऽशुद्ध भावेन । प्राप्तोसि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ||
अर्थ - भो मुनं ! ४६ दोषयुक्त अशुद्ध भावों से आहार ग्रहण करने से तुमने तिर्यञ्च गति में परवश होकर छेदन भेदन भूख प्यास आदि महान दुःख उठाये हैं
सचित्त भत्तपाणं गिद्धीदप्पणी पभुनूण ! पत्तोसि तिव्वदुःखं अणाइकालेण तं चित्त ।। १०२॥ सचित्त भक्तपानं गृद्ध्यादर्पण अधीप्रभुक्त्वा । प्राप्तोसि तदुःखं अनादिकालेनत्वं चिन्तय ॥
अर्थ - भो मुनिवर ? विचार करो कि तुमने अज्ञानी होकर अत्यन्त अभिलाषा तथा अभिमान अर्थात उद्धत पने के साथ सचित्त ( सजीव ) भोजन पान करके दुःखों को अनादि काल से अनेक तीव्र दुःख उठाये हैं ।
कंदंवीयं मूलंपुष्कं पत्तादि किं सचित्तं ।
असिऊण माणगव्वे भमिऊसि अनंत संसारे || १०३ || कन्दं वीजं मूलं पुष्पं पत्रादि किंच स चित्तम् । अशित्वा मानेन गर्वेण भ्रमितोसि अनन्तसंसारे ॥