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अथे-कन्द मूल बीज फूल पत्र इत्यादि सधित वस्तुओं को मान और गर्व से खाकर तुम अनन्त संसार में भ्रमे हो।
विणयं पंचपयारं पालहि मणबयण कायजोगेण । अविणय णरामुविहियं तत्तोमुत्तिं पावंति ॥१०४॥
विनयं पञ्चप्रकारं पालय मनोवचन काययोगेन । __ अविनतनरा सुविहितां ततोमुक्तिं न प्राप्नोति ॥
अर्थ--तुम मन वचन काय से पांच प्रकार के विनय को धारण करो क्योंकि अविनयी मनुष्य तीर्थंकर पद और मुक्ति को नहीं पाता है!
णिय सनिए महाजस मत्तिरागेण णिच कालम्मि । तं कुण जिणभत्तिपरं विजावच्चं दसवियप्पं ॥१०॥ निनशक्त्यामहायशः भक्तिरागण नित्यकाल ।
त्वं कुरु जिनमक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ॥
अर्थ- भो महाशय ? तुम सर्वदा अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति भाव के राग सहित दश प्रकार की वैयावृत को पालो जिस से तुम जिनेन्द्र की भक्ति में तत्पर होओ । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शेक्ष्य, गलान, गण, कुल, मंघ और साधु यह दश भेद मुनियों के हैं इनकी वैय्यावृत्त करने से वैय्यावृत्त के दस भद है।
जं किश्चिकयं दोसं मणवयकाएहि असह भावेण । त गरह गुरु सयासंगारवमायं च मोत्तूण ॥ १०६ ॥ ___ यः कश्चित् दोषः मनवचनकायैः अशुभ भावेन । ___तं गर्हय गुरुशकासे गारवं मायां च मुक्त्वा ॥
अर्थ-- मन बचन काय से वा अशुभ परिणामों से जो कोई दोष किया गया हो तिसे गुरु के समीप बड़प्पन और मायाचार को छोड़ कर कहे अर्थात् किय हुए दाषा की निन्दा करै ।
दुजण वयण च डकं निठुर कड्डयं सहति सप्पुरिसा । कम्मपलणासणहूँ भावेणय णिम्ममा सवणा ॥ ॥ १०७॥