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________________ यथा मूल विनष्टेढुमस्य परिवारस्य नास्तिपरिवृद्धिः । तथा निनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टा न सिध्यन्ति ॥ अर्थ-जैसा कि वृक्ष की जड़ कट जाने पर उस वृक्ष की शाखा आदिक नहीं बढ़ती हैं इस ही प्रकार जो कोई जैन मत की श्रद्धा से भ्रष्ट है उस की भी जड़ नाश हो गई है वह सिद्ध पद को प्राप्त नहीं कर सक्ता है। जह मूलओखन्धो साहा परिवार बहुगुणो होई । तह जिणदसणमूलो णिहिटो मोक्खमग्गस्स ॥११॥ यथा मूलातस्कन्धः शाखा परिवार बहुगुणो भवति । तथा जिनदर्शनमूलो निर्दिष्टः मोक्षमार्गस्य । अर्थ-जैसे कि वृक्ष की जड़ से शाखा पत्ते फूल आदि बहुत परियार और गुणवाला स्कन्ध (वृक्ष का तना होता है इस ही प्रकार मोक्ष मार्ग की जड़ जैनमत का दर्शन ही बताया गया है। जे दंसणेमुभट्टा पाए पाडन्ति दंसणधराणां । ते हुंतिलुल्लम्मा वोहि पुण दुल्लहा तेसिं ॥१२॥ ये दर्शनेषु भ्रष्टा पादेपातयन्ति दर्शन धराणाम् | ते भवन्तिलुलमूकाः वोधिः पुनर्दुर्लभाः तेषाम् ।। __ अर्थ-जो [धर्मात्मा पने का भेष धरने वाल] दर्शन में भ्रष्ट हैं और सम्यक दृष्टि पुरुषों को अपने पैरों में पड़ाते हैं अर्थात् नमस्कार कराते हैं वह लूले और गूंगे होते हैं और उन को बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्रप्ति होना दुर्लभ है। जेपि पडन्ति च तेसिं जाणन्त लज्जगारव भयेण । तेसिपि णत्थि वोही पावं अणमोअ माणाणं ॥१३॥ येपि पतन्ति च तेषां जानन्तो लज्जागौरव भयेन । तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्य मानानाम् ।।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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