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शिवमजरामर लिा-मनुपम मुत्तमं परमविमल मतुलम् ।
प्राप्ता वरं सिद्धिमुखं जिन भावना भाविता जीवाः ॥
अथ--जो जिन भावना सहित हैं ते ही जीव उस उत्तम मोक्ष मुख को पाते हैं जोकि कल्य ण स्वरुप हैं, जरा और मरण रहित होना जिसका चिह्न है, जो उपमा रहित है, उत्तम है अत्यन्त निर्मल और अनन्त है,
तेमे तिहुवण महिया सिद्धासुद्धाणिरंजणाणिचा । दितु वरभाव सुद्धिं दसणणाणे चरित्तेय ॥१६॥
ते म त्रिभुवन महिता सिद्धा शुद्धा निरज्जनानित्या ।
ददतु वरभावशुद्धिं दर्शनज्ञाने चारित्रे च ॥
अर्थ-जो कर्ममल से शुद्ध हो चुके हैं और नवीन कर्म बन्ध रहित हैं नित्य हैं और तीनों जगत में पूज्य है त जगत प्रसिद्ध सिद्ध परमेष्टी मरे दर्शन ज्ञान और चारित्र में उत्तम भावशुद्धि दव।
किं जंपिएण वहुणा अच्छोधम्मोय काममोक्खोय । अण्गेविय वावारा भावाम्म परिहया सुद्ध ॥१६४॥ किं जल्पितेन बहुना अर्थोधर्मश्च कामामोक्षश्च ।
अन्येपि च व्यापारः भावपरिस्थिताशुद्धे ।। अर्थ-बहुत कहने से क्या अर्थ [ धन संपत्ति ] धर्म [ मुनि श्रावकधर्म ] काम [पञ्चन्द्रिय सुख दायक इष्ट भोग] माक्ष [मस्त कर्मो का अत्यन्त अभाव] इत्यादि अन्य भी व्यापार त सर्व ही शुद्ध भावों में लिष्ट है अर्थात् शुद्ध भाव होने से ही सिद्ध हो सकते हैं अशुद्ध भावों से नहीं।
इयभावपाहुइमिणं सबबुद्धेहिं देसियं सम्मं । जो पढइ मुणइ भावइ सो पावइ अबिचलं ठाणं ॥१६॥ इति भावप्राभृतमिदं सर्वबुद्धैः देशितं सम्यक् । यः पठति शृगोति भवयति सप्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥