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( १३३ ) एवं जिणेण कहियं सवणाणं सावयाणपुणसुणसु । संसार विणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥ ८५ ॥
एवं जिनेन कथितं श्रमणानां श्रावकानां पुनः शृणु ।
संसार विनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमम् ॥ अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्र देवने मुनियों को उपदेश कहा है अब श्रावकों के लिये कहते हैं सो सुनो यह उपदेश संसार का नाश करने वाला और सिद्धि के करने वाला उत्कृष्ट कारण है।
गहिऊणय सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव निकंपं । तं झाणे झाइज्जइ सावय दुक्खक्खय हाए । ८६ ॥
ग्रहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिमलं सुरगिरेरिव निकम्यम् । तद ध्याने व्यायति श्रावक दुःखक्षयार्थे ।
अर्थ---भो श्रावको ! सुमेरु पर्वत के समान निष्कम्प (निश्चल ) होकर निरतीचार सम्यग्दर्शन का ग्रहण कर उसी दर्शन को दुःखों का क्षय करने वाले ध्यान में ध्यावो ।
सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्टी हवेइ सो जीवो। सम्मत्त परिणदो पुण खवेइ दुट्ट कम्माणि ।। ८७॥
सम्क्त्वं यो ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति स जविः ।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥ अर्थ-जो जीव सम्यक्त्व को ध्यावे है सोई जीव सम्यग्दृष्टि है और वही (जीव) सम्यग्दर्शन रूप परणमता हुवा दुष्ट जेबानावरणादिक अष्टकर्म तिन का नाश करै है।
किं वहुणा भणिएण जे सिद्धाणरवरा गए काले । सिझहि जेवि भाविया तं जाणह सम्ममाहाप्पं ॥८८॥
कि वहुना भणितेन ये सिद्धा नर वरागते काले । सेत्स्यति येऽपि भव्याः तज्जानीत सभ्यक्त्व माहात्म्यम् ।। अर्थ-बहुत कहने कर क्या जे ( जितना) भव्य पुरुष अतात