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( ३४ ) चारित्त समारूढो अप्पासुपरंण ईहए गाणी । पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाणणिच्छयदो ॥४३॥
चारित्रसमारुढ आत्मसुपरं न ईहते ज्ञानी । प्रामोतिअचिरेणसुखम् अनुपमं जानीहि निश्चयतः ॥
अर्थ-शानी पुरुष चारित्र वान होता हुवा पर वस्तु को अपने मैं नहीं चाहता है अर्थात अपनी आत्मा मे भिन्न किसी वस्तु में राग नहीं करता है इसी से थोड़े ही काल में अनुपम सुख को अवश्य पालेता है एसा जानो।
एवं संखेवेण य भणियं णाणण वीयरायेण । सम्मत्त संजमासय दुगहंपि उपदेसियं चरणं ॥४४॥
एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतगगेण ।
सम्यक्त्व संयमाश्रय द्वयमपि उपदेशितं चरणम् ।। अर्थ-इस प्रकार वीत्तराग केवल नानी ने दो प्रकार का चारित्र अर्थात उपदेश किया है ? सम्यक्त्वाचरण और मंयमाचरण, तिसको संक्षप के साथ मैंने (कुन्दुकुन्दाचार्यन ) वर्णन किया है।
भावेहभावसुद्धं फुडरइयं चरणपाहुडं चेव । लहुचउगइ चइऊणं अचिरेणापुणव्यवाहोह ॥४५॥
भाषयत भावशुद्धं स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव । लघुचतुर्गतीः त्यक्त्वा अचिरणाऽपुनर्भवा भवत ।।
अर्थ-श्रीमत् कुन्दुकुन्द स्वामी कहते हैं इस चारित्र पाहड़ को मैने (प्रगट। रचा है तिस को तुम शुद्ध भाव कर भावा (अभ्यास करो) इस से शीघ्र ही चारों गतियों को छोड़ कर थाड़ ही काल में मोक्षपद के धारण करने वाले हो जावांगे जिस के पीछे और कोई भावही नहीं है अर्थात् जिस को प्राप्त करके फिर जन्म मरण नहीं होता है।