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( १३८ ) गुणगणविभूषिताङ्गः हेयोपादेय निश्चितः साधुः । ध्यानाध्ययनेषु रत्तः स प्राप्नोति उत्तम स्थानम् ॥
अर्थ-जो साधु विराग भावों में तत्पर है वही परपदार्थों से पराङ्मुख ( ममत्वरहित ) है और संसारीकसुखों से विरक्त है. आत्मीकशुद्ध सुखों में अनुरागी है शानध्यानादि गुणों के समूह कर भूषित है शरीर जिसका, हेय ( त्यागने योग्य ) उपादेय ( ग्रहण करण योग्य) का है निश्चय जिसके तथा ध्यान (धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान ) अध्ययन (शास्त्री का पठन पाठन ) में लीन है सोही साधु उत्तमस्थान को ( मोक्ष को ) पांव है
णविएहि ज णविज्जइ झाइझइ झाइएहि अणवरयं । थुवंतहिं थुणिजइ देहच्छ किंपितंमुणह ॥ १०३ ॥ नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तयमानः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् मनुत ॥
अर्थ-भो भव्यजनो ? तुमारे इस देह में कोई अपूर्व स्वरुपवाला तिष्टे है तिमको जानो जोकि अन्यपुरुषा कर नमस्कृति किये हुवे ऐसे देवेन्द्र नरन्द्र गणन्द्रों कर नमस्कार किया जाता है, तथा अन्य योगियों कर ध्याय हुयं एस तीर्थकर देवा कर निरंतर ध्याया जाता है और अन्य शानियोकर स्तुति किये हुव परमपुरुषांकर (तीर्थकरादिकोंकर) स्तुति किया जाता है।
अरुहा सिद्धा अरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी । तेविहु चिट्टइ आद तम्हा आदाहु में सरणं ॥ १०४ ॥
अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्याया साधवः परमेष्ठिनः । तेऽपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटि में शरणम् अर्थ- अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये परमेष्ठी तेही मेरे आत्मा में तिष्टे हैं उमसे आत्माही मुझं शरण है ॥ (भावार्थ) यह परमेष्ठी आत्मा म तबही ठहर सकत है अब कि उनका स्वरुप चिन्तन कर आत्मा में शेयाकार वाध्येयाकर किया होय