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अर्थ -- जो योगी जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार रजश्य को आराध है वह आत्मा को ही ध्यावे है और पर पदार्थों को छोड़े है इसमें सन्देह नहीं है ।
जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपाचाणं || ३७ ॥ यज्जानाति तद् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् । तच्चारित्रं भणितं परिहारः पुण्य पापानाम् ॥
अर्थ - जो आत्मा जाने है सो शान, और जो देखे है सो दर्शन है, और वही आत्मा चारित्र है जो पुण्य और पाप को दूर करे है |
तच्च रुई सम्मत्तं तच्च गाणणं च हवइ स ण्णणं । चारितं परिहारो पयंपियं जिणवरिं देहिं ॥ ३८ ॥ तत्वरुचैिः सम्यकूत्वं तत्वग्रहणं च भवति सञ्ज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पित जिनवरेन्द्रैः ||
अर्थ - जीवादिक तत्वों में जो रुचि है सो सम्यक्त्व है, तत्वों का आनना सो सम्यग् ज्ञान है और पुण्य पाप का छोड़ना सो चारित्र है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
दंसण सुद्धो सुद्धो दंसण सुद्धो लहेइ णिव्वाणं ।
दंसण विहीण पुरुसो ण लहइ इच्छियं लाहं ॥ ३९ ॥ दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् । दर्शनेविहीनः पुरुषः न लभते इष्टं लाभम् ॥
अर्थ --- जो सम्यग् दर्शन से शुद्ध है वही आत्मा शुद्ध है, क्योंकि दर्शन शुद्ध आत्मा हों निर्वाण का पावे है और जो दर्शन रहित पुरुष है वह इष्ट ( अनन्त सुखमयी ) लाभ को नहीं पावें है ।
इय उवए संसारं जरमरण हरं खु मण्णए जंतु । तं सम्यत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि ॥ ४० ॥