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का वर्णन करते हुवे यह ष्टान्त कहा कि "तुषात्माषो मिनो यथा" (जैसे छिलका से उग्द भिन्न है तैसे आत्मा भी शरीर से भिन्न है)। शिवभूति इस वाक्य को घोषता हुवा भी भूल गया पर अर्थ को म भूला । एक दिन एकाकी नगर में गप, वह उस वाक्य के विस्मगण स क्लशित थ, एक घर पर कोई सी उरद की दाल धो रही थी उससे किसी ने पूछा कि क्या कार्य कर रही हो । उस स्त्री ने कहा कि"जल में डूब हुये उर्द की दाल को छिलका से अलग कर रही हूं" इस वाक्य को सुनकर और उस क्रिया को देखकर मुनि भन्य स्थानको गए और किसी उत्तम स्थान पर बैठे उसी समय भन्तमुईत में केवल ज्ञानी हो गये।
भावेण होइ णग्गो वाहरलिङ्गेण किं च णग्गेण । कम्पपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण ॥ ५४ ॥
भावन भवति नग्नः वहिलिंगन किं च नग्नेन ।
कर्मप्रकृतीनां निकरः नश्यति भावेन द्रव्येण ।।
अर्थ-जो भाव सहित है सोही नग्न है, वाह्यलिङ्ग स्वरूप नग्नता कुछ भी फल नहीं है, किन्तु कर्मप्रकृति आ का समूह (१४८ कम प्रकृति) भावलिङ्ग माहत द्रव्यलिङ्ग करक नष्ट हाता है । ५४ ।
भावार्थ-बिना द्रव्यलिङ्ग के केवल भावलिङ्गकर भी मिद्धि नहीं होती और भालिङ्ग बिना द्रव्यलिङ्गकर भी नहीं। इससे द्रव्यचरित्र व्रतादिकों को धारणकर भावा का निर्मल करो एमा आभप्राय " भावण दवण" कर श्रीकुन्दुकुन्द स्वामी ने प्रकट दर्शाया है।
णग्गत्तणं अकजं भावरहियं जिणेहि पण्णत्तं । इय णाऊणयणिचं भाविजहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥
नग्नत्वम् अकार्य भावरहितं जिन प्राप्तम् । इति ज्ञात्वा च नित्यं भावयः आत्मानं धार ।
अर्थ-भावहित नग्नपना अकार्यकारी है एस जिनेन्द्र देवों ने कहा है ऐसा जानकर भी धीर पुरुषो ? नित्य आत्मा का भावो ध्यावा।