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अथ भावलिङ्ग स्वरूप वर्णनम् ।
देहादि संग रहिमो माणकमाएहि सयलपरिचसो । अप्पा अप्पम्मिरओ सभावलिङ्गी हवे साहू ॥ ५६ ।। देहादि संगरहितः मानकषायैः सकलं परित्यक्तः ।
मात्मा आत्मनिरतः स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ।। थर्थ-जो शरीरादिक २४ प्रकार के पारग्रह से रहित हो और मानकपाय से सर्व प्रकार छूटा हुवा हो और जिसका आत्मा मात्मा में लीन हो सो भावलिङ्गी साधु है।
ममति परिवज्जामि णिम्ममतिमुवहिदो । भालंवणं च मे आदा अवसेसा इवोस्सरे ॥ ५७ ॥
ममत्वं परिवर्नामि निर्ममत्वमुपस्थितः ।। __ आलम्बनं न मे आत्मा अवशेषाणि व्युन्मृनाभि ॥
अर्थ-मैं ममत्व (ये मेरे हैं. मैं इनका हूं ) को छोड़ता हूं निर्ममत्व परिणामों में उपस्थित होता हूं। मेरा आश्रय आत्मा ही है आत्म परिणामी से भिन्न रागद्वप माहादिक विभाव भावों को छोड़ता हूं।
आदाखु मज्झणाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदायञ्चक्खाणे आदा मे संवरे जोग ॥ ५८ ॥
आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
मात्मा प्रत्याख्यान आत्मा मे संवरे योगे । अर्थ-भावलिङ्गी मुनि ऐसी भावना करते हैं कि मेरे ज्ञानही में आत्मा है मेरे दर्शन में तथा चारित्र में आत्मा है प्रत्याख्यान में (परपदार्थ परित्याग में ) आत्मा है । संवर में आत्मा है और योग ( ध्यान ) म आत्मा है।
भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, ध्यान भादि जितने आत्मीक अनन्त भाव है तिन स्वरूपही मैं हूं और