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येही हानादिक मेरे स्वरूप हैं। अन्य स्वरूप में नहीं हूं और न अन्य मेरा स्वरूप है।
एगो मे सास्सदोअप्पा णाणं दसण लक्खणो । सेसा मे पाहिराभावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ५९ ।।
एको मे शास्वत आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षणः ।
शेषा मे वाह्या भावा सर्वे संयोग लक्षणाः ।। अर्थ-भावलिङ्गी मुनि विचार करते हैं कि मेरा मात्मा एक है शाम्वता है और शानदर्शन ही उसका लक्षण है । रागद्वेषादिक अन्य समस्तही संयोग लक्षण वाले भाव वाह्य है।
भावेह भाव सुद्धं अप्पासुविसुद्ध णिम्मलं चेव । लाहु चउगइ चइजणं जइ इच्छह सासयं मुक्खं ॥ ६० ॥
भावयत भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धं निर्मलं चैव । लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शास्वतं सुखम् ॥
अर्थ-भो मुनीश्वरो ? जो आप यह यांछा करते हो कि शीघ्र ही चारों गतिओं को छोड़कर अविनाशी सुख को प्राप्त करो तो भाव शुद्ध करके जैसे तैस कर्ममल रहित निर्मल आत्मा को भावो चिन्तवो ध्यावो।
जो जीवो भावतो जीव सहावं मुभाव संजुत्तो। सो जर मरण विणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥६॥
यो जीवो भावयन् जीवस्वभाव समावसंयुक्तः । ___स जन्म मरण विनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वानम् ।।
पर्थ-जो भव्य जीव शुद्ध भाव सहित आत्मा के स्वभावों को भाव है वह ही जन्म मरण का विनाश करै है और अवश्य निर्वाण को पावै है।
जीवो जिणपण्णत्तो णाण महाभोय चेयणा सहिो । सो जीवो गायव्यो कम्मक्खय कारण णिमित्ते ॥२॥