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भाव सवणोयधीरो जुवई यणवेदिओवि सुद्धमई । णामेण सिवकुमारो परीतसंसारिओ जादो ||५१
भाव श्रमणश्चधीरो युवतिजन वेष्टितो विशुद्धमतिः । नाम्ना शिवकुमारः परीत संसारिको जातः ।।
अर्थ --- भाव लिङ्गके धारक धीर वीर अनेक युवति जनोकर चलायमान किये हुवे भी शुद्ध ब्रह्मचारी ऐसे शिवकुमार नामा मुनि अल्प संसारी हो गए । अर्थात् भावलिङ्ग से संसार का नाशकर अनन्त सुख भोक्ता हुवे ।
अर्थात् ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्माली नामा महार्धिक देव हुआ और वहां से चयकर जम्बू स्वामी अन्तिम केवली होय मुक्त हुवे । अङ्गइं दसय दुणिय चउदस पुव्वाई सयल सुयणाणं । पठियोय भव्वसेणोणभावसवणतणं पत्तो ॥ ५२ ॥
अङ्गानि दशच द्वेच चतुर्दश पूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । पठितश्च भव्यसेनः न भावश्रवणत्वं प्राप्तः ॥
अर्थ - एक भव्यसेन नामा मुनि ने वारह अङ्ग और चौदह पूर्व समस्त श्रुतज्ञान को पढ़ा परन्तु भावरूप मुनिपने को नहीं प्राप्त हुवा | जैनतत्वों का श्रद्धान बिना अनन्त संसारी ही रहा। तुसमासंघोसंतो मावविमृद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य शिवझर केवलिणाणी फुडं जाओ || ५३ ॥ तुषमासं घोषयन् भावविशुद्धो महानुभावश्च ।
नाम्ना च शिवभूतिः केवल ज्ञानी स्फुटं जातः ।।
अर्थ - एक शिवभूतिनामा मुनि महान प्रभाष के धारक विशुद्ध भाव वाले " तुप मास" इस पद्को घोषते हुवे केवल ज्ञानी हुवे । शिवभूति गुरु से जिनदीक्षा को ग्रहणकर महान तप करता था परन्तु अष्ट प्रवचन मात्रा को ही जानता था अधिक श्रुत नहीं जानता था किन्तु आत्मा को शरीर और कर्म पुंज से भिन्न समझता था, उसको शास्त्र कण्ठ नहीं होता था, एक दिन गुरु ने आत्मतत्व