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अर्थ-दर्शन, शान, चारित्र, तप, और विनय में जो कोई सदा काल लवलीन है और गणधरों का गुणानुबाद करनेवाले हैं वह ही बन्दने योग्य है ।
सहजुप्पण्णं रूवं दिट्ठे जो मरण्णए णमच्छरिऊ | सो संजम पडिपण्णो मिच्छा इट्ठी हवई एसो ||२४||
सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्वा यो मनुते नमत्सरी ।
स संयम प्रतिपन्नः मिथ्या दृष्टि र्भवति असौ |
अर्थ - जो पुरुष यथा जात अर्थात् जन्मते हुए बालक के समान नन दिगम्बर रूप को देख कर मत्सर भाव से अर्थात् उत्तम कार्यों से द्वेष बुद्धि करके उनको नही मानता है अर्थात् दिगम्बर मुनि को नमस्कार नही करता है वह यदि संयमधारी भी है तो भी मिथ्या दृष्टि ही है।
अमराणं वन्दियाणं रूवं दहणसील सहियाण || जो गारवं करन्ति य सम्पत्तं विविज्जिया होति ||२५||
मरैः वन्दितानां रूपं दृष्ट्वाशील सहितानाम् ।
यो गरिमाणं कुर्वन्ति च सम्यक्तं विवर्जिता भवन्ति ॥
अ - देव जिन की बन्दना करते है और जो शील व्रतों को धारण करते हैं, ऐसे दिगम्बर साधुओं के सरूप को देखकर जां अभिमान करते हैं अर्थात् शेखी में आकर उन को नमस्कार नही करते हैं वह सम्यक्त रहित हैं।
असंजदं ण वंन्द वच्छविहीणोवि सोण वन्दिज्जो । दोणिव होंति समाणा एगोवि ण संजदो होदि ||२६||
असंयतं न बन्दे वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्यः । grat भवतः समानौ एकोऽपि नसंयतो भवति ॥
अर्थ - चरित्र रहित असंयमी बन्दने योग्य नहीं है, और