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________________ ( ६१ ) अल स्थलशिखिपवनांवर गिरिसरिद्दरी तह बनेषु सर्वत्र । उषितोसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः || अर्थ - तुम ने शुद्धात्म भावना बिना इस तीन लोक में सर्वत्र अर्थात् जल में थल में अग्नि में पवन में आकाश में तथा पर्वतां पर मदियों में पर्वतों की गुफाओं में वृक्षों में और बनों में बहुत काल निवास किया है। गसियाइ पुग्गलाई भवणोदर वित्तियाइ सव्वाई । पत्तोसि ण तत्ति पुण रुत्तं ताई भुजंतो ॥२२॥ प्रसिता पुद्गला भुवनोदर वर्तिनः सर्वे । प्राप्तोसि न तृप्तिः पुनरुक्तं तान् भुज्जन् ॥ अर्थ -- तीन लोक में जितने पुल हैं वह सर्व ही तुमने ग्रहण किये भक्षण किये, तथा तिनको भी पुन पुनः भोगे परन्तु तृप्त न हुवे । तिहूण सलिलं सयलं पीयं तिराहाए पीडिएण तुमे । तोविण तिणहा छेओ, जायउ चिंतह भवमहणं ||२३|| त्रिभुवनसलिलं सकल पीतं तृष्णाया पीडितेन त्वया । तदपि न तृष्णा छेदः जातः चिन्तय भवमधनम् ॥ अर्थ- इस संसार में तृष्णा ( प्यास ) कर पीडित हुवे तुमने तीन जगत का समस्त जल पीया तौ भी तृष्णा का नाश न हुवा अब तुम संसार का मधन करने वाले सम्यग्दर्शनादिक का विचार करो । गहि उझियाई मुणिवर कलवराई तुमे अणेयाई । ताणं णच्छिपमाणं अणन्त भव सायरे धीर ॥ २४ ॥ गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि । तेषां नास्ति प्रमाणम् अनन्त मवसागरे धीर ? ॥ ? अर्थ - भो धीर ? भो मुनिवर ! इस अनन्त संसार सागर में अनन्ते शरीरे महे और छोड़े तिनकी कुछ गणती नहीं ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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