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अप्पा गाऊण णरा केई सम्भाव भावयभट्टा । हिंडंति चाउरंगं विसएस विमूहया मूढा ||६७॥
आत्मा ज्ञात्वा नराः केचित्स्वभाव भाव प्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरङ्गे विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ अर्थ - आत्मा को जान कर भी आत्मस्वभाव की भावना से अत्यन्त भ्रष्ट होते हुवे विषयों में मोहित हुवे अज्ञानी जीव चतुर्गति संसार में भ्रम हैं ।
भवार्थ - आत्मा को जान कर विषयों से विरक्त होना चाहिये । जे पुण विसय विरत्ता अप्पाणऊण भावणा सहिया । छडंति चाउरंगं तव गुण जुत्ता ण संदेहो ||६८ ||
ये पुनः विषय विरक्ता आत्मानं ज्ञात्वा भावना सहिताः । त्यजन्ति चातुरङ्गं तपोगुण युक्ता न सन्देहः ||
अर्थ — जेनिकट भव्य विषयों से विरक्त हैं आत्मा को जान
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कर आत्म भावना करें हैं ते द्वादश तप २८ मूल गुण तथा उत्तर गुणसहित होते हुवे अवश्यं चतुर्गति संसार को छोड़े हैं इसमे सन्देह नहीं ।
परमाणु पमाणं वा परदव्वे राद हवेदि मोहादो ।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो || ६९ ॥ परमाणुं प्रमाणं वा परद्रव्ये रति भवेति मोहात् । स मूढ अज्ञानी आत्म स्वभावाद्विपरीतः ॥
अर्थ -- जिसकी पर द्रव्यों में परमाणु मात्र ( किंचित् ) भी मोह से रति ( प्रीति ) है वह मूढ़ अज्ञानी आत्म स्वभाव से विपत है।
अप्पा सायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचारिताण ।
होदि धुवं णिव्वाणं विसऐसु विरत्त चित्ताणं ॥ ७० ॥ आत्मानं ध्यायतां दर्शन शुद्धीनां दृढ चारित्राणाम् । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम् ॥