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( ५३ ) नव वय गुणेहि मुद्धा संजमसम्पत्तगुण विमुदाय । मुदगुणहि सुदा पवजा एरिसा भणिया ॥२८॥ तपोबत गुणैः शुद्धा संयम सम्यक्त्वगुण विशुद्धा च ।
शुद्धगुणैः शुद्धो प्रवज्या ईदृशी माणता ॥ अर्थ-जो १२ तप ५ व्रत और ८४००००० उत्तर गुणों कर शुद्ध हो, संयम (इन्द्रिय संयम प्राणसंयम ) और सम्यग्दर्शन कर विशुद्ध हो तथा प्रव्रज्या के जो गुण और कहे थे तिन कर सहित हा ऐसी प्रव्रज्या जिन शासन में कही है।
एवं आयत्तगुण पज्जत्ता वहुविसुद्ध सम्मत्ते । णिग्गंथे जिणमग्गे संखे वेण जहा खादं ॥५९।।
एवम् आत्मतत्वगुण-पर्याप्ता बहु विशुद्ध सम्यक्त्वे । निग्रन्थे जिनमोर्ग संक्षेपेण यथाख्यातम् ।।
अर्थ - अत्यन्त निर्मल है सम्यग्दर्शन जिसमें जिन मार्ग में ऐसी निर्ग्रन्थ अवस्था जो आत्म तत्व की भावना में पूर्ण हो एसी प्रव्रज्या है तिसको म ने संक्षेप से वर्णन किया है।
रूपत्थं सुद्धच्छं जिमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भवजण वोहणत्यं छक्काय डियंकरं उत्तं ॥३०॥
रूपस्थं शुद्धार्थ जिनमार्गे जिनवरै यथा गणितम् ।
भव्य जन वोधनार्थ षट्काय हितकरम् उक्तम् ।।
अर्थ-शुद्ध है अर्थ जिसमें ऐसे निग्रन्थ स्वरुप के भाचरणों का वर्णन जैमा जिनेन्द्र देवने जिनमार्ग में किया है तैसाही षटकायिक जीवों के लिये हितकारी मार्ग निकट भव्य जनों को संबोधन के लिये मैं ने कहा है।
सद वियागे हुओ भासामूत्तेसु जंजिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीमेणय भद्दवाहुस्स ॥६॥
शब्द विकारो भूतः भाषा सूतेषु यत् जिनन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रवाहो ॥