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भावार्थ-वर्षभ नाराच, वज्रनाराय, नाराष, अर्धनाराच, कोलिक, अप्रामासृपाटिक इनमें से किसी एक संहनन वाले भव्यजीवों के जिनदीक्षा होती है । इससे हे भव्यो इस पश्चम काल में इसको कर्म भय का कारण जाम अङ्गीकार करो।
तिल तस मत्त णिमित्तं समवाहिर गंथ संगहो णच्छि । पावज हवइ एसा जह भणिया सन्न दरसीरि ॥२५॥
तिलतुषमात्र निमित्त समं वाह्य ग्रन्थ संग्रहो नास्ति ।
प्रव्रज्या पतति एषा यथा मणिता सर्व दर्शिभिः ।।
अर्थ-जहां तिल के तुष मात्र (छिलके के खरावर ) भी वाह्य परिग्रह नहीं हैं ऐमी यथा जात प्रव्रज्या सर्वत्र देवन कही है।
उपसग्ग परीसह सहा णिज्जणदेसहि णिच्च अच्छेइ । सिल कट्टे भूमि तले सव्वे आरुहइ सव्व च्छ ॥५६॥
उपसर्ग परीषहसहा निर्जन देश नित्यं तिष्टति । शिलायां काष्टे भूमि तले सर्वे अरोहयति सर्वत्र ॥ अर्थ-उपसर्ग और परीषद समभाव से सही जाती हैं निर्जन शुम्य वनादिक शुद्ध स्थानों में निरन्तर निवास करते हैं शिला पर काष्ट पर और भूमि तल में सर्वत्र तिष्ट हैं शयन करते हैं, बैठे हैं। सो प्रवज्या है।
पसुपहिलं सदं संगं कुंसालसंगणकुणइ विकहाओ। सम्झाण झाणजुत्ता पव्यज्जा एरिसा भणिया ॥५७।।
पशु महिलाषण्ढ संग कुशील संगं न करोति विकथाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रवज्या ईदृशी भणिता ।। अर्थ-जहां पशु, स्त्री और नपुंसकों का संग (साथ में रहना) और कशील (व्यभिचारियों के साथ रहने वाले ) जनों का संग नहीं करते हैं तथा विकथा ( राजकया स्त्री कथा भोजन कथा चौर कसा नहीं करते हैं, किंतु स्वाध्याय और ध्याम में लगे है ऐसी प्रव्रज्या जिनागम में कही है।