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( ७० ) अर्थ संसार में चोरासी लाख ८४००००० योनियों के स्थान में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहां पर भाव लिङ्ग रहित मुनि होकर न भ्रमा हाय ? अर्थात सर्व स्थानों में समस्त योनि धारण की हैं।
भावेण होइ लिंगी णहुलिङ्गी होई देव्वमित्तेण । तम्हा कुणिज्जावं किं कीरइ दवलिङ्गेण ॥ ४८ ॥
भावेन भवति लिङ्गी न स्फुटं भवति द्रव्यमात्रेण । तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिङ्गेन ॥
अर्थ-भाव लिङ्ग से ही जिन लिङ्गी मुनि होता है, द्रव्यलिङ्ग से ही लिङ्गी नहीं होता इससे भावलिङ्ग को धारण करो द्रव्यलिङ्ग से क्या हो सक्ता है।
दण्डय जयरं सयलं दहिओ अभंतरेण दोसेण । जिण लिङ्गेण विवाहु पडिओ सो उरयं णग्यं ॥ ४९॥
दण्डक नगरं सकलं दग्धा अभ्यन्तरेण दोपेण । जिनलिङ्गनापि वाहुः पतितः स रौरवं नरकम् ॥
अर्थ--वाह्यजिनलिडधारी वाहनामा मुनि ने अभ्यन्तर दोष से ( कषायों से ) समस्त दण्डक राज्य को और उसक नगर को भस्म किया और आप भी सप्तम नरक के रौरव नरक म नारकी हुवा।
दक्षिण भरतक्षेत्र में कुम्भकारक नगर का स्वामी दण्डक राजा था जिसकी सुब्रता नामा रानी थी और वालक नामा मन्त्री था किसी समय अभिनन्दन आदि ५०० मुनि आय तिनकी बन्दना को समस्त नगर निवासी गए और राजा भी गया । बिद्याभिमानी पालक मन्त्री ने खण्डकमुनि के साथ बाद आरम्भ किया । परास्त होकर मन्त्री ने वहरुपिया भाडा से सुव्रता रानी और दिगम्बरमुनि का स्वांग बनवाकर उनको रमते हुवं दिखाये राजा ने क्रोधित होकर समस्त मुनि घाणी में पले । वे मुनि उस उपसग को सहकर उत्तम गति को प्राप्त भये । पश्चात् एक वाहुनामकमुनि आहार के वास्ते नगर जाते थे तिनको लांका ने रोका और राजा की दुष्टता वर्णन