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संजम संजुत्तस्सयसुझाणजोयस्म मोक्खमग्गस्स । णाणण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं ॥ २० ॥
संयम संयुक्तस्य च सुध्यान योगस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ।
अर्थ-संयम सहित भौर उत्तम ध्यान युक्त मोक्ष मार्ग का लक्ष्य अर्थात चिन्ह शान से ही जाना जाता है इस से उस ज्ञान को जानना योग्य है।
जहण विलहदिहुलक्खं रहिओ कंहस्स वेज्जयविहीणो। तहण विलक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्ख मग्गस्स ॥२१॥
यथा न विलक्षयति स्फुटं लक्ष्य रहितः काण्डस्य वध्यकविहीनः।
तथा न विलक्षयति लक्ष्यं अज्ञानी मोक्ष मागस्य ।। अर्थ-जैस कोई पुरुष लक्ष्य विद्या अर्थात निशाने वाज़ी को न जानता हुवा और उसका अभ्यास न करता हुवा वाण अर्थात तीर से निशाने को नहीं पाता ह तेमे ही शान रहित अज्ञानी पुरुष मोक्ष मार्ग के निशाने का अर्थात दर्शन शान चरित रूप आत्म स्वरूप को नहीं पा सकता है।
णाणं पुरुसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो विविणय संजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥२२॥ ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोपि विनयसंयुक्तः ।
ज्ञानन लभते लक्ष्यं लक्ष्ययन मोक्षमार्गस्य ।। अर्थ-ज्ञान पुरुष में अर्थात आत्मा में ही विद्यमान है परंतु गुरु आदिक की बिनय करने वाला भव्य पुरुष ही उसको पाता है, और उस ज्ञान से ही मोक्ष मार्ग को ध्यावताहु मोक्ष मार्ग के लक्ष्य अर्थात निशान को पाता है।
मइ धणुहं जस्सथिरं सुदगुण वाणं मु अच्छिरयणतं । परमच्छ बदलक्खो णवि चुकदि मोक्खमग्गस्स ॥२३॥