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________________ के ग्रहण समय तथा रोग और मरण के समय संसार देह भोगों से अत्यन्त वैरागी होता है उन वैराग्य परिणामों को सदा चिंतवम रखना चाहिये। संबहि चउविहलिङ्गं अब्भन्तरं लिङ्ग सुद्धिमावण्णो । वाहिर लिङ्गगज होइ फुरमावरहियाणं ।। १११ ॥ सेवस्व दार्वियं लिङ्गम् अभ्यन्तर लिहाशद्धिमापन्नः । वाटिकायं भवति स्फुटं भावरहितानां ॥ अर्थ- मनि सत्तम ? अन्तरङ्ग लिङ्ग शुद्धि को प्राप्त हुए तुम चार प्रकार के लिङ्ग को धारण करो, क्योंकि भाव हितों को वाह्य लिङ्ग अकार्य कारी है। अहार भयपरिग्गह मेहुणसण्णहि मोहि ओसि तुमं । भमिओ संसार वर्ण अणाइ कालं अणप्प वसो ॥ ११२।। आहार भयपरिग्रह मैथुन संज्ञाभिःमोहितोसि त्वम् । भ्रमितः संसार वने अनादिकालमनात्म वशः ॥ अर्थ-भो मुनिवर ! तुम आहार भय मैथुन और परिग्रह इन संशाओं में मोहित और पराधीन हुए अनादि काल से संसार बन में भ्रम हो सो स्मरण करो। वाहिरसयणातावण तरुमलाईणि उत्तर गुणाणि | पालाहे भावविशुद्धो पयालाभं ण ई हन्तो ।। ११३ ॥ वहिःशयनातापन तरुमलादीन् उत्तरगुणान् । पालय भावविशुद्धः प्रनालाभ न इहमानः ।। अर्थ-भो साधो ! तुम भाव शुद्ध होकर पूजा, प्रतिष्ठा, लाभ, आदि को न चाहते हुए चौड़े मैदान में सोना बैठना आतापन योग वृक्ष की जड़ में तिष्ठना आदि उत्तर गुणों को पालो । भावार्थ शीत काल में नदी सरोवरों के किनारं ग्रीष्म ऋतु में आतापन योग अर्थात् पर्वतों के शिखरों पर ध्यान करता और वर्षा काल में वृक्षा के नीचे तिष्ठना, तीनों उत्तर गुण है।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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