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सो त्यि दव्यसवणे परमाणु पमाणे मेतो मिलो। जस्थ ण जाओण मओ तियलोय पमाणि ओ सव्वो ॥३॥
स नास्ति द्रव्य श्रमण परमाणु प्रमाणमात्रो निलयः । ___यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणः सर्वः ।।
अर्थ-इस त्रिलोक प्रमाण समस्त लोकाकाश में ऐसा कोई परमाणु प्रमाण (प्रदेश ) मात्र भी स्थान नहीं है जहां पर द्रव्यलिङ्ग धारण कर जन्म और मरण न किया हो।
कालपणतं जीवो जम्म जरामरण पीडिओ दुक्खं । निणलिंगेण विपत्तो परंपरा भावरहिएण ॥३४॥
कालमनन्त जीयः जन्म जरामरण पीडितः दुःखम् । जिनलिङ्गेन अपि प्राप्तः परम्परा भावरहितेन ॥ अर्थ-श्री वर्धमान सर्वच देव से लेकर केवली श्रुत केवली और दिगम्बराचार्य की परम्परा द्वारा उपदंश किया हुवा जो यथार्थ जिनधर्म उससे रहित होकर बाह्य दिगम्बर लिङ्ग धारण करके मी अनन्त काल अनेक दुःखों को पाया और जन्म जरा मरण पीडित हुवा । अर्थात् संसार में ही रहा और मुक्ति की प्राप्ति न हुवी।
पडिदेससमय पुग्गल आउग परिणाम णाम कालदं । गहि उज्झियाई वहुसो अणंत भव सायरे जीचो ॥३५॥
प्रनिदेश समय पुद्गल-आयुः परिणाम नाम कालस्थम् ।
ग्रहीतोज्झितानि वहुशः अनन्त भव सागरे जीवः ॥
अर्थ-इस जीव ने इस अनन्त संसार समुद्र में इतने पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण किया और छोडा जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं और एक एक प्रदेशों में शरीर को ग्रहण किया और छोडा, तथा प्रत्येक समय में प्रति परमाणु तथा प्रत्येक आयु और सर्व परिणाम (क्रोधमान माया लोभ मोह रागद्वेषादिको के जितने अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं उतने ) समस्त ही नाम ( नार्म कर्म जितना होता है उतना) और उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में स्थित पुदल परमाणुमहे और छोड़े।