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पञ्चापि इन्द्रियप्राणाः मनोवचः कायै त्रयोवलप्राणाः । आनप्राणप्राणाः आयुष्कप्राणेण दश प्राणाः ||
अर्थ - पांच इन्द्रियमाण मनोबल वचनबल कायबल श्वासो - स्वास और आयु यह दश प्राण हैं । तिनमें से भाव अपेक्षा और कायवल वचनबल श्वासोच्छ्रवास और आयु यह ४ प्राण अर्हत के होते हैं और द्रव्य अपेक्षा दमही प्राण होते हैं ।
मयभवेपंचिमदिय जीवद्वाणे होइ चउदसमे | एदेगुणगणजुत्तो गुणमारुढो हवइ अरहो || ३६ ॥
मनुजभवे पञ्चेन्द्रिय जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशमे । एतद्गुणगणयुक्तो गुणमान्दढो भवति अर्हन् ।।
अर्थ - मनुष्य भव में पंचेन्द्रिय नामा १४वां जीवसथान में इन गुणों सहित गुणवान अरहंत होते हैं ।
भावार्थ - जीवसमा १४ हैं, अर्थात सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरंन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, असैनी और पंचेन्द्रिय सैनी, इस प्रकार सात हुवे, पर्याप्त और अपर्याप्त इनके दो दो भेद होकर १४ जीवसमास हैं इनमें श्री अहंत पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्त हैं ।
जरवाहिदुक्खरहियं आहारणीहार वज्जिय विमल । सिंहाणखेलसेओ णच्छि दुगंधा य दोसो य ॥ ३७ ॥ जराव्याधिदु.खरहित. अहारनीहारवर्जितः विमलः । सिंहाणः खेलः नास्ति दुर्गन्धश्च दोषश्च ॥
अर्थ -- अर्हन्तदेव जरा और व्याधि अर्थात शरीर रोग के दुःखों से रहित, आहार अर्थात भोजन खाना, नीहार अर्थात मलमूत्र करना इनसे वर्जित, निर्मल परमैौदारिक शरीरके धारक हैं, जिनके नामिका का मल अर्थात सिणक और थूक खकार नहीं है और उनके शरीर मैं दुर्गन्ध भी नही है और दोष अर्थात वात पित्त कफ भी नहीं है ।